Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 3 - Vrindavan Lal Verma

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10

पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और डंडे पर बैठी। झंझट का रूप जरा भयानक हो गया। मामला गंगाधरराव के पास पहुँचा। जाति और धर्म का झगड़ा था, इसलिए उन्होंने दखल देने की ठानी। नए जनेऊवाले लोग बुलाए गए। प्रमुख ब्राह्मण भी। 


उस दिन कुछ वाद-विवाद हुआ, राजा किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे। छोटी जाति के कहे जानेवाले जनेऊधारियों ने नारायण शास्त्री को पेश करने की मुहलत माँगी। एक दिन का समय मिला। उन लोगों ने नारायण शास्त्री को सहज ही राजी कर लिया। उसी दिन बिठूर से तात्या दीक्षित और युवक तात्या झाँसी आए। दीक्षित ने बिठूर का सब समाचार राजा को सुनाया। राजा ने सब शर्तें मंजूर कर लीं। मँगनी की रस्म बिठूर में हो आई थी, परंतु सीमंती इत्यादि विवाह की अन्य रीतियाँ झाँसी में किसी मकान में होकर होंगी, इसका प्रबंध राजा ने अपने कर्मचारियों के सूपुर्द कर दिया। इसके लिए युवक तात्या को झाँसी में दो-एक दिन के लिए ठहरना पड़ा। 


दूसरे दिन जनेऊ संबंधी झगड़े की पेशी होने को थी। युवक तात्या भी इस विलक्षण मुकद्दमे को सुनना चाहता था। दरबार में गया। उसको फौजी अफसर की पोशाक पसंद थी। खास तौर पर लोहे की फ्रांसीसी टोपी। 


गंगाधरराव ने उसको आदर के साथ बैठाया। बाजीराव पेशवा का कर्मचारी और भविष्य की ससुराल से आया हुआ मेहमान। राजा अपने पदाभिमान के आतंक में गए और शास्त्रियों के थोड़े से ही विवाद को सुनने के बाद वे न्‍याय-निष्ठुरता पर जम गए। 

राजा ने अपराधियों से पूछा, 'क्या ब्राह्मण बनना चाहते हो?' 

अपराधियों में एक अधिक साहसवाला था। उसने उत्तर दिया, 'नहीं तो सरकार!' 

'फिर यह अनुचित काम क्‍यों किया?' 

'अनुचित तो नहीं सरकार!' 

'क्यों रे अनुचित नहीं है?' 

'सरकार! ब्राह्मणों के अलावा और अनेक जातियाँ भी तो जनेऊ पहनती हैं। 

'अबे बदमाश! उन जातियों की बराबरी करता है?' 

वह चुप रहा। 

गंगाधरराव का क्रोध चढ़ लेने पर उतरता मुश्किल से था। बोले, 'जनेऊ तोड़कर फेंक दे और फिर कभी आगे पहनना। उसने हाथ जोड़े और सिर नीचा कर लिया। 

राजा ने कड़ककर कहा, 'क्या कहता है? अपने हाथ से तोड़ता है या तुड़वाऊँ?' 


उसने उत्तर दिया, 'अपने हाथों तो हम लोग अपने जनेऊ नहीं तोड़ेंगे चाहे प्राण भले ही निकल जावें। आप राजा हैं, चाहे जो करें।' गंगाधरराव की आँखों के लाल डोरे रक्त हो गए। चोबदार को हुक्म दिया, 'एक पतला तार लाओ। ताँबा, लोहा किसी का भी। जल्दी लाओ।


वह दौड़कर ले आया। आग मँगवाई गईं। तार को जनेऊ का आकार बनाकर गरम किया गया। आज्ञा दी, 'यह गरम जनेऊ इसको पहनाओ।


अपराधी ने गर्व से सिर ऊँचा किया। आकाश की ओर एक क्षण के लिए हाथ बाँधकर देखा और फिर नतमस्तक हो गया। वह गरम जनेऊ उसके कंधे को छुआया ही था कि युवक तात्या ने विनय की, 'महाराज, धर्म की रक्षा करिए। यह ठीक नहीं है।

गंगाधरराव ने वह गरम जनेऊ तुरंत अलग कर दिया। युवक से बोले, 'श्रीमंत पेशवा भी तो यह दंड देते।

'नहीं सरकार,' युवक ने निर्भयता के साथ सम्मति दी, 'धर्म अपने-अपने विश्वास की बात है। इसमें राज्य को तटस्थ रहना चाहिए।

'लोकाचार भी ?' गंगाधरराव ने जरा-सा मुसकराकर प्रश्न किया। 


'हाँ महाराज,' युवक ने विनीत और मधुर स्वर में उत्तर दिया, 'लोकाचार समय- समय पर बदलते रहते हैं।


गंगाधरराव के क्रोध ने कुछ ठंडक पाई। उनकी दृष्टि उस युवक के टोपे पर जा टिकी। कुछ क्षण ठहरी। कुतूहलवश पूछा, 'यह टोप क्यों लगाते हो?' 

युवक ने उत्तर दिया, 'मैं सिपाही हूँ।


राजा को इस उत्तर पर हँसी आई। बोले, 'हमारे यहाँ तात्या दीक्षित एक शास्त्रज्ञ ब्राह्मण हैं, सो जानते ही हो। तुम सिपाही ब्राह्मण हो परंतु नाम से बुलाने में कभी-कभी गड़बड़ हो सकती है। इसलिए तुमको तात्या टोपीवाले या सीधे टोपे कहें तो कैसा?' 

हँसकर युवक ने जवाब दिया, 'श्रीमंत सरकार, मुझको इसी छोटे से नाम से लोग पुकारते हैं।


"मुझे भी पसंद है। राजा ने कहा। फिर जनेऊवाले अपराधियों को बनावटी रूखे स्वर में डाँटते हुए बोले, 'इस यवक ने तुमको बचा लिया-भाग जाओ।


वे लोग चले गए। राजा ने तात्या टोपे को नाटकशाला के लिए आमंत्रित करते हुए कहा, 'टोपे, आज रात को हमारी नाटकशाला में रत्नावली नाटक खेला जाएगा। आना। बहुत अच्छा अभिनय, गायन-वादन और नृत्य है। पहले कभी देखा?' 

'नहीं सरकार, टोपे ने उत्तर दिया। 

'पढ़ा है?' दूसरा प्रश्न किया गया। 

'नहीं सरकार,' टोपे ने उत्तर दिया। 

'समय से जरा पहले जाना,' राजा ने प्रस्ताव किया, 'मैं तुमको कथानक वहीं बतलाऊँगा।


संध्या के कुछ घड़ी पीछे तात्या टोपे नाटकशाला पहुँच गया। राजा ने रत्नावली का कथानक उत्साहपूर्वक सुनाया और रंगमंच पर आनेवाले अभिनेताओं के नाम और गुण बतलाए। कहा, 'रानी वासवदता का अभिनय मोतीबाई करेगी। बड़ी कलावती है और सागरिका अर्थात्‌ रत्नावली का अभिनय जूही करेगी। नृत्य बहुत अच्छा करती है। गाती भी है। नाटकशाला में हाल ही में आई है।

नाटक समय पर शुरू हो गया। 


राजा के निकट बैठे हुए नवागंतुक तात्या टोपे को सभी पात्र बहुधा देखते थे। सुंदर, बलिष्ठ और किसी उमंग में तना हुआ। और सिर पर विलक्षण टोपी


रानी वासवदत्ता का अभिनय मोतीलाई ने बहुत अच्छा किया। सागरिका (रत्नावली) का अभिनय जूही ने खूब निभाया। नाची भी बहुत अच्छा। टोपे को वह बहुत भला लगा। परंतु उसके मुँह से 'वाह' या 'आह' कुछ भी नहीं निकला। 

नाटक की समाप्ति पर गंगाधरराव रंगशाला के श्रृंगार-कक्ष में नहीं गए। टोपे से पूछा, 'कैसा रहा?' 

टोपे ने जबाब दिया, 'सरकार ने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही सब हुआ है।

'नृत्य कैसा था जूही का?' राजा ने सवाल किया। 

टोपे ने सावधानी के साथ जवाब दिया, 'मैंने इससे पहले नृत्य देखे ही नहीं हैं। मुझे तो बड़ा विलक्षण जान पड़ा।


राजा प्रसन्‍न हुए। उन्होंने प्रस्ताव किया, 'थोड़े दिन ठहर जाओ झाँसी में? कुछ और अच्छे-अच्छे अभिनय देखने को मिलेंगे।

टोपे ने कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया। 


11




जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर में धूमें मच गईं, 'ताँबे और लोहे के जनेऊ आग में लाल कर-करके राजा ने पहनाए। नहीं तो, इन्होंने आज जनेऊ पहने थे, कल वेदों की ऋचाएँ आल्हा की तरह गली-गली बकते फिरते!' 


कोई कहते थे, 'अजी बड़ी कुशल समझो , बिठूरवाले मिहमान दरबार में होते तो राजा सिर काटकर फेंक देने का हुक्म दे चुके थे।


नारायण शास्त्री यह सब वाङ्मय चुपचाप सूनते हुए घर आए। उदास थे। किवाड़ लुटकाकर पौर के चबूतरे की चटाई पर लेट गए। देर तक लेटे रहे। संध्या हो गई। अँधेरा छा गया। वह उठे। दीया-बत्ती की। कुछ खा-पीकर फिर पौर में बैठे। किसी ने धीरे से साँकल खटकाई। नारायण शास्त्री ने किवाड़ खोले। छोटी थी। 


भीतर गई। शास्त्री ने किवाड़ बंद करके साँकल चढ़ा ली। छोटी चबूतरे पर बैठ गई। शास्त्री की उदासी जा चुकी थी। छोटी के नेत्रों में कटाक्ष सरल था परंतु सरल चितवन में ही मद बहुत। 


छोटी ने अपने एक घुटने पर ठोड़ी टेककर नजर उठाई। बरौनियाँ भौंहों के ऊपर जाने को हुईं। बोली, 'मैं तो बड़ी हैरान हूँ। लोग बहुत तंग करते हैं, छेड़ते हैं। आपका नाम लेकर आवाजें कसते हैं।

शास्त्री ने भौंहें सकोड़कर कहा, 'ऊँह, बकने दो छोटी! जरा भी परवाह मत करो।


'मुझको आप ही की फिकर रहती है।' छोटी बोली, 'अपने लिए कोई लटका नहीं। मेरी जातवाले लोग मुझको जात से बाहर करना चाहते हैं। सुग-सुग चल रही है।

'फिर क्‍या करोगी?' 

'क्या करूँगी-आप ही बतलाइए।

'देखा जाएगा।

'कब?' 

'जब बात सामने आवेगी तब।

'और ये लोग जो मुझसे छेड़छाड़ करते हैं, उनका क्‍या करूँ?' 

'उनसे आँख बरकाओ। कान मूँदकर अपना रास्ता लिया करो।

'ऐसी छेड़छाड़ को तो मैं अनसुनी कर सकती हूँ, करती ही रहती हूँ; परंतु वे प्रेम की बातें करते हैं।

'अच्छा!' 

'हाँ। कोई अप्सरा कहता है। कोई कविता न्योछावर करने की बात कहता है! कोई सौगंध लाता है कि तेरे लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हूँ मैं।

'तुम क्या जवाब देती हो।

'किसी को कुछ, किसी को कुछ। कुछ से मैंने पूछा-जनेऊ भी उतार देने को तैयार हो?' 

'उन लोगों ने इस सवाल के पल्टे में क्या कहा? ' 

'उन्होंने कहा, उतार देंगे।

छोटी मुसकराई। शास्त्री को गुस्सा आया। थोड़ी देर सोचते रहे। कभी सिर खुजाते और कभी छोटी को देखते थे। बोले, 'छोटी, यदि बात ऊपर ही जावे तो मैं मारे जाने तक के लिए तैयार हूँ, तुम पक्की हो?' 

उसने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया, 'क्या आपने कभी कोई कचाहट पाई?' 

शास्त्री ने नीची गरदन करके कहा, 'वैसे ही पूछा था। एक काम करना होगा।

'क्या?' निश्चितता के साथ छोटी ने प्रश्न किया। 

शास्त्री ने प्रश्न के रूप में उत्तर दिया, 'क्या इन लोगों के जनेऊ उतरवा सकोगी?' 


छोटी सहज वृत्ति से बोली, 'जनेऊ उतरवाने के बदले में कुछ देना पड़ेगा? क्या बड़े-बड़े लोग यों ही जनेऊ उतारकर दे देंगे?' 

'कौन-कौन लोग हैं? जाति और नाम तो बतलाओ।' शास्त्री ने कहा। 


छोटी ने ब्योरेवार बतलाया। लंबी सूची थी। बतलाने में समय लगा। शास्त्री को फिर क्रोध आया। थोड़ी देर जलते-भुनते रहे। 


उसी समय ऐसा जान पड़ा जैसे किसी ने बाहर से साँकल चढ़ा दी हो। छोटी चौंकी। उसने शास्त्री को इशारा किया। शास्त्री धीरे-से किवाड़ों के पास गए। आहट ली। बाहर कुछ खुसफुसाहट और पैरों का शब्द सुनाई पड़ा। छोटी को संकेत किया। वह अँगन में चली गई। शास्त्री ने भीतर की साँकल खोलकर किवाड़ खोलना चाहा। खुला। आहर से साँकल चढ़ी हुई थी। उन्होंने भीतर की साँकल फिर चढ़ा ली। आँगन में छोटी के पास गए। 


कहा, 'ये लोग पाजीपन पर तुले हुए हैं।

छोटी जरा आतुरता के साथ बोली, 'मैंने अभी-अभी पूछा था कि ऐसा समय आने पर क्या करूँ। समय गया। अब बतलाइए।

शास्त्री ऊपर से दृढ़ और भीतर से घबराए हुए थे। चुप रहे। 


छोटी शांति के साथ बोली, 'आप मेरी चिंता छोड़ें। किसी तरह अपने को बचावें। मुझको चाहे मारकर घर के कुएँ में डाल दें। कह दें कि छोटी यहाँ कभी आई ही नहीं।


शास्त्री ने दृढ़तापूर्वक कहा, 'क्या कहती है छोटी? मेरे भीतर अभी कुछ बाकी है, जो मुझको मरने के समय भी धीरज दे सकता है। अब सब उधड़ गया। राजा के सामने जाना पड़ेगा। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा बाल बाँका हो। कह देना कि शास्त्री ने जबरदस्ती की। मैं वैसे भी मारा जाऊँगा। तुम इस तरह बच जाओगी।


'कभी नहीं,' छोटी गर्व के साथ बोली, 'अगर हमारी जाति में कोई गुण है तो एक-हम लोग बेईमानी नहीं कर सकते।


शास्त्री सोच-विचार में पड़ गए। क॒छ देर बाद उन्होंने एक अनुरोध किया, कुछ कुछ झूठ बनाना पड़ेगा।

छोटी बोली, 'सिवाय उस झूठ के और जो कहिए, कह दूँगी।


शास्त्री ने कहा, तुम कुछ ब्राह्मणों, बनियों इत्यादि के नाम लेकर कह सकती हो कि इन-इन लोगों ने अपने जनेऊ उतारकर तुम्हारे हवाले किए हैं।

छोटी ने उत्तर दिया, जिन-जिन लोगों ने मेरा धर्म माँगा, उन्हीं-उन्हीं लोगों के नाम लूँगी, औरों के नहीं। पर जनेऊ कहाँ हैं?' 

शास्त्री ने समाधान किया, 'जनेऊ मैं देता हूँ। नए हैं, उनो मैला कर लेना। कुछ उतारे हुए भी हैं, उनको नयों में मिला लेना।

छोटी बोली, 'जल्दी करो। अभी तो मैं निकल जाऊँगी।

शास्त्री ने पूछा, 'कैसे?' 

छोटी ने कहा, 'आप अपना काम देखिए। मैं निकल जाऊँगी।' शास्त्री ने बहुत-से नए-पुराने जनेऊ छोटी को दे दिए। 


छोटी ने प्रस्ताव किया, 'आप पौर का दिया भीतर रख दीजिए। किवाड़ खुलवाने का उपाय कीजिए, तब तक मैं ख़परैल पर से कूदकर घर जाती हूँ। देर लगेगी तो ये लोग मेरी जातिवालों को दरवाजे पर इकट्ठा कर देंगे और फिर मैं बहुत मारी-पीटी जाऊँगी। अभी तो मुझको कोई छुएगा।


शास्त्री ने मान लिया। उन्होंने किवाड़ खोलने की कोशिश की परंतु खुले। हल्ला करना ठीक समझा। छोटी खपरैल से कूदकर निकल गई। परंतु उसके मार्ग में रुकावट डाली गई। फिर भी वह अपने घर पहुँच गई, यद्यपि घिरी हुई थी। 


12


जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे, परंतु जिनका भीतरी जीवन बाहरी छल से भिन्‍ने था-जो जीवन के काँटों पर, गूलाब की सेजों पर, अंगूरी की या महुए की-मोझक सिंचाई से मीठा बना-बनाकर हर घड़ी को मौजों में बाँट-बाँटकर चल रहे थे-उन्होंने नारायण शास्त्री की सबसे ज्यादा बुराई की। पाखंडी है, पाजी है, धर्मद्रोही, राक्षस है, इत्यादि और उसको कम-से-कम प्राणदंड मिलना चाहिए। और छोटी को? उसके टुकड़े -टुकड़े करके सियारों को खिला देना चाहिए, क्योंकि उसी ने तो एक विद्वान्‌ ब्राह्मण को पतित किया! इतनी बड़ी बात विलंब से राजा के पास पहुँचे, यह असंभव था। राजा ने जब सुना, कभी हँसी आती थी और कभी उनको क्षोभ-संताप होता था। 


छोटी और नारायण शास्त्री बुलाए गए। मालूम होता था जैसे शास्त्री कुछ घंटों में ही बूढ़े हो गए हों। छोटी चिंतित थी परंतु उसके पैर जम-जमकर किले की ओर गए थे। जब वह गंगाधरराव के सामने पहुँची, तब उसको पसीना जरूर गया था। 

इस मामले का निर्धार सुनने के लिए भी तात्या टोपे गया। 


नारायण शास्त्री को उस वीभत्स में डूबा देखकर राजा को बड़े जोर की हँसी आने को हुई। उन्होंने कठोरता के साथ अपना दुस्‍सह संयम किया। पूछताछ शुरू की। 

राजा-'यह क्‍या हुआ शास्त्री?' 

शास्त्री-'जो होना था हो गया सरकार।

राजा-'कैसे हुआ?' 

शास्त्री- 'क्या कहूँ श्रीमंत।

राजा-'बतलाना तो पड़ेगा। बतलाने से ज्यादा नुकसान होगा।

शास्त्री-'क्या बतलाऊँ महाराज?' 

राजा-'यह कैसे हुआ?' 


शास्त्री-'तप और संयम के अतिरेक से। जब शरीर ने ताड़ना सह पाई तब जो- जो कुछ उसके सामने आया, ग्रहण कर लिया।

राजा-'तुमको तो लोग बहुत दिन से शृंगार शास्त्री कहते हैं।

शास्त्री-'वह तो उपकरण मात्र था।

राजा-'सुनता हूँ, कोकशास्त्र का भी अध्ययन किया है।

शास्त्री-'हाँ सरकार।

राजा-'क्यों?' 


शास्त्री-'उस शास्त्र में अपने संबंध के प्रसंग ढुँढ़ने के लिए और यह जानने के लिए कि इसमें ऐसा क्या है, जिसने महर्षि वात्स्यायन से कामसूत्र की रचना करवाई।


राजा-'क्या पाया?' 

शास्त्री-'प्रकृति के साथ जीवन की टक्‍कर।

राजा-'आगे क्‍या पाओगे?' 

शास्त्री-'यह मेरे हाथ में नहीं है, सरकार।

राजा-'तब किसके हाथ में है?' 

शास्त्री-'सरकार के।


राजा ने थोड़ी देर सोचा। उपस्थित लोगों पर दृष्टि घुमाई। छोटी की विनम्र आँखों को देखा। बड़े पलक और बड़ी बरौनियाँ। फिर अपने ब्राह्मणत्व का ध्यान किया। बोले, 'इस लड़की को तुरंत झाँसी का राज्य छोड़ना पड़ेगा। इसके लिए देश-निकाले का दंड काफी है। तुमको...' 


छोटी ने तुरंत दृढ़ स्वर में टोका, 'श्रीमंत सरकार, शास्त्री महाराज का कोई कसूर नहीं है। मैं इनके पीछे पड़ गई, इसलिए इनका पतन हुआ। मेरे दंड को बढ़ाकर इनके दंड की कमी को पूरा कर लीजिए। मैं सिर कटवाने के लिए तैयार हूँ।


राजा को रत्नावली नाटक का एक दृश्य प्रासंगिक होने पर भी याद गया, रत्नावली को भगवान्‌ ने आत्मवध से बचाया था। 

राजा बोले, ठहर जा लड़की। शास्त्री! तुमको विधिवत्‌ प्रायश्चित करना पड़ेगा। पंचगव्य इत्यादि।

शास्त्री-'और इसको देश-निकाला होगा?' 

राजा-'हाँ।


नतमस्तक अपराधी का सिर ऊँचा हुआ। जैसे कीचड़ में से कमल फूट पड़ा हो। बोला, सरकार, मैं प्रायश्चित नहीं करूँगा। मैंने कोई पाप नहीं किया है। यदि मुझको प्रायश्चित की आज्ञा दी जाती है तो पहले लगभग आधे शहर को पंचगव्य लेना पड़ेगा।

'क्यों?' राजा ने विस्मय के साथ पूछा। 

शास्त्री ने छोटी से आग्रह किया, 'बतला दे सरकार को।

छोटी ने अपने वस्त्रों में से मिट्टी की दो डबुलियाँ निकालीं और उनमें से जनेऊ। 

राजा ने उत्सुक होकर प्रश्न किया, 'यह क्या है छोकरी?' 


नीची गरदन किए, बिना आँख मिलाए छोटी ने उत्तर दिया, 'बड़ी जातों के जिन-जिन लोगों ने मुझको फाँसने की कोशिश की, उन सबके मैंने जनेऊ उतरवाए और इन डबुलियों में इकट्ठे किए।


सुननेवाले सन्‍नाटे में गए। राजा जरा असमंजस में पड़े। फिर यकायक हँसकर शास्त्री से बोले, 'तुमने इस स्त्री को केवल अपना तन ही दिया या मन भी ?' 


शास्त्री ने कोई उत्तर नहीं दिया। छोटी कुछ कहना चाहती थी परंतु राजा ने उसको हाथ के संकेत से वर्जित करके शास्त्री से फिर प्रश्न किया, 'तुम इस स्त्री को भ्रष्ट समझते हो या नहीं?' 

शास्त्री के मुँह से यकायक निकला, 'नहीं सरकार।


गंगाधरराव कुछ क्षण विचार-विमरन रहे। फिर गंभीर स्वर में बोले, 'इस स्त्री के साथ और किसी का भी संसर्ग नहीं है, मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ। इन यज्ञोपवीतों की कहानी तुम्हारी ही गढ़ंत जान पड़ती है। मैं सूत के इन डोरों को छूना नहीं चाहता। यदि परीक्षा करूँ तो पुरानों में ब्रह्मगाँठ लगी होगी और नए बिना किसी गाँठ के होंगे। ये सब तुम्हीं ने इसको दिए होंगे।

शास्त्री पसीने में तर हो गए। 


राजा कहते गए, 'तुम समझते होगे कि तुम्हारे सिवाय सब मूर्ख हैं। तुमको अवश्य कठोर दंड देता, परंतु तुमको दंड देने से इस अभागिन का दंडभार बढ़ जाएगा।

छोटी रोने लगी। 'मैं भुगतने को तैयार हूँ।


राजा ने रुखे स्वर में शास्त्री से कहा, तुम प्रायश्चित पंचगव्य के लिए तैयार नहीं हो, इसलिए तुमको भी झाँसी तुरंत छोड़नी पड़ेगी।


शास्त्री प्रसन्‍न हुए। बोले 'बड़ा अनुग्रह हुआ। मैं इसी के साथ झाँसी छोड़ देने को तैयार हूँ।

वे दोनों चले गए। 

राजा ने तात्या टोपे की ओर देखा। वह बिलकल संतुष्ट जान पड़ता था। 


राजा ने सोचा, बहुत सस्ता छूटा यह। वह लड़की छोटी जाति की होने पर भी इस ब्राह्मण से बड़ी है। देश-निकाला दे दिया, काफी है। बिठूर के लोग भी इसी निर्धार से संतुष्ट होंगे। अधिक कड़ा दंड देने से झाँसी के बाहर बदनामी ज्यादा होती। फिर अंग्रेज-अंग्रेज- 

फिर और आगे उन्होंने नहीं सोच पाया। 

छोटी और शास्त्री दूसरे दिन झाँसी छोड़कर चले गए। 


13


मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। 


टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँसी ज्यादा पसंद आई। उसकी कल्पना गंगाधरराव की नाटकशाला में बार-बार उलझ जाती थी। इसके सिवाय झाँसी का रहन-सहन, यहाँ के स्त्री-पुरुष और यहाँ का प्राकृतिक वातावरण उसको ब्रह्म्मावर्त के गंगातट से अधिक मनोहर लगे। जब बिठूर लौटा, अवसर पाकर उन बालकों ने झाँसी के विषय में सवालों की झड़ी लगा दी। 

नाना-'क्या झाँसी बिठूर से बड़ा नगर है?' 


तात्या-'कुछ बड़ा ही होगा। किला बड़ा है। नगर के चारों ओर परकोटा है। बस्ती पहाड़ी की ऊँचाई-निचाई पर बसी है। इसलिए बरसात में कीचड़ नहीं मचती होगी। घर-घर कुएँ हैं। नगर के भीतर इधर-उधर फल-फूल के बगीचे। भीतर-बाहर तालाब, अच्छे-अच्छे मंदिर। किला पहाड़ी पर है। उसमें राजमहल है। महादेव और गणपति के मंदिर। एक बड़ा महल नीचे है। महल के पीछे नाटकशाला।

मनू-'नाटकशाला! उसमें क्या होता है?' 

तात्या-' अच्छे-अच्छे नाटक खेले जाते हैं। गायन-वादन होता है।

मनू-'मैं भी देखूँगी।

तात्या-'श्रीमंत राजा साहब तो नित्य ही नाटकशाला में जाते हैं। मुझको भी बुलवा लेते थे।

मनू-'हाथी कितने हैं?' 

तात्या-'दस या शायद ज्यादा हों।

मनू-'घोड़े?' 

तात्या-'सरकार को धोड़े की सवारी पसंद नहीं है। तामझाम में चलते हैं।' नाना-'सेना कितनी है?' 

तात्या-'कई हजार है।

मनू-'ठीक नहीं गिनी है?' 

तात्या-'बिलकुल ठीक तो नहीं परंतु आठ और दस के बीच में होगी।' मनू-'लोग कैसे हैं?' 


तात्या-'उनके शरीर दृढ़ और स्वस्थ हैं। व्योपार अच्छा है। शहर में चहल-पहल मची रहती है। धनधान्य खूब है। गरीबी बहुत कम देखने में आई है। स्त्री-प्रुष सुखी दिखलाई पड़ते हैं। संध्या समय लोग फूलों की माला डाले बगीचे और बाजारों में घूमते हैं। स्त्रियाँ घी के दीए थालों में सजाकर पूजन के लिए लक्ष्मीजी के मंदिर में जाती हैं।

रावसाहब-'कुश्ती, मलखंब के अखाड़े हैं?' 

मनू-'मैं भी यह पूछना चाहती थी।

तात्या-'हैं तो, परंतु लोगों में गाने-बजाने का अधिक शौक दिखलाई पड़ता है।

रावसाहब-' क्या रास्तों में गाते-बजाते फिरते हैं?' 

तात्या-'नहीं तो।

मनू- 'फिर क्‍या नाटकशाला में गाते-बजाते हैं?' 


तात्या-'नहीं, घरों पर, सभाओं में, उत्सवों पर। जान पड़ता है मानो गाने का मिस डूँढ़ रहे हों। स्त्रियाँ तो गाने का कोई--कोई बहाना लिए रहती हैं। पीसने के समय तो सब स्त्रियाँ गाती हैं परंतु झाँसी में पानी भरने जायें तो गाएँ, पानी भरते समय गाएँ। शायद मरती भी गाते-गाते होंगी।

मनू‌- 'झाँसी में तोपें कितनी हैं?' 

तात्या-'बड़ी तोपें चार हैं-बहुत बड़ी हैं। छोटी तो बहुत हैं।

मनू- 'किले के भीतर तालाब है?' 


तात्या-'नहीं। एक पोखरा है। एक बड़ा कुआँ भी है, उसमें बहुत पानी रहता है। जाने पहाड़ पर किसने खुदवाया होगा।

नाना-'आदमियों ने खुदवाया होगा, देव-दानव तो खोदने आए होंगे।

तात्या को बाजीराव ने बुलवाया और पूछा, 'बच्चों में क्या बात कर रहे थे?' 

तात्या ने उत्तर दिया, 'झाँसी का हाल सुना रहा था।

बाजीराव- 'नारायण शास्त्रीवाली बात तो नहीं सुनाई?' 

तात्या- 'नहीं सरकार। और नाटकशाला की गाने-नाचनेवालियों की। 

बाजीराव- 'तुम मोरोपंत के साथ कुछ दिन के लिए फिर झाँसी जाओगे?' 

तात्या-'हाँ श्रीमंत।

बाजीराव-'मुहूर्त पास का निकला है। जल्दी जाना होगा।






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