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Showing posts from May, 2021

Munshi Premchand - Boodhi Kaki - Mansarovar 8

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 इस कहानी को audio में सुनने के लिए पोस्ट के अंत में जाएँ।  बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं। उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालांतर हो चुका था। बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के अलावा और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी। भतीजे ने सारी सम्पत्ति लिखाते समय ख़ूब लम्बे-चौड़े वादे किए, किन्तु वे सब वादे केवल कुली-डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्ज़बाग थे। यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपए से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी

Munshi Premchand - Rani Sarandha - Mansarovar 6

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इस कहानी को audio में सुनने के लिए पोस्ट के अंत में जाएँ।   अँधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चट्टानों से टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी जैसे घुमुर-घुमुर करती हुई चक्कियाँ। नदी के दाहिने तट पर एक टीला है। उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है जिसको जंगली वृक्षों ने घेर रखा है। टीले के पूर्व की ओर छोटा-सा गाँव है। यह गढ़ी और गाँव दोनों एक बुंदेला सरकार के कीर्ति-चिह्न हैं। शताब्दियाँ व्यतीत हो गयीं बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ मुसलमान आये और बुंदेला राजा उठे और गिरे-कोई गाँव कोई इलाका ऐसा न था जो इन दुरवस्थाओं से पीड़ित न हो मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-पताका न लहरायी और इस गाँव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण न हुआ। यह उसका सौभाग्य था। अनिरुद्धसिंह वीर राजपूत था। वह जमाना ही ऐसा था जब मनुष्यमात्र को अपने बाहुबल और पराक्रम ही का भरोसा था। एक ओर मुसलमान सेनाएँ पैर जमाये खड़ी रहती थीं दूसरी ओर बलवान राजा अपने निर्बल भाइयों का गला घोंटने पर तत्पर रहते थे। अनिरुद्धसिंह के पास सवारों और पियादों का एक छोटा-सा मगर सजीव दल था। इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया क

Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 30 (last part) - Vrindavan Lal Verma

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इस कहानी को audio में सुनने के लिए पोस्ट के अंत में जाएँ   89 अट्ठारह जून आई। ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमी। शुक्रवार। सफ़ेद और पीली पौ फटी। उषा ने अपनी मुस्कान बिखेरी। रानी स्नान ध्यान और गीता के अट्ठारहवें अध्याय के पथ से निबट चुकी। झींगुरों की झंकार पर एकाध चिड़िया ने चहक लगाई। रानी ने नित्यवत अपने रिसाले की लाल कुर्ती की मर्दाना पोशाक पहनी। दोनो ओर एक एक तलवार बांधी और पिस्तौलें लटकाई। गले में मोतियों और हीरों की माला - जिससे संग्राम के घमासान में उनके सिपाहियों को उनके पहिचानने में सुविधा रहे। लोहे के कुले पर चन्देरी का जरतारी लाल साफ़ बांधा। लोहे के दस्ताने और भुजबंद पहने। इतने में उसके पाँचों सरदार आ गए।   मुंदर ने कहा , “ सरकार घोड़ा लंगड़ाता है। कल की लड़ाई में या तो घायल हो गया है ये ठोकर खा गया है। ” रानी ने आज्ञा दी , “ तुरंत दूसरा अच्छा और मज़बूत घोड़ा ले आ। ” मुंदर घोड़ा लेने गई और उसने अस्तबल में से एक बहुत तगड़ा और देखने में पानी