Jhansi ki Rani - Lakshmibai # 2 - Vrindavan Lal Verma

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिला। बलवंतराव के दो लड़के हुएएक मोरोपंत और दूसरा सदाशिव। ये दोनों पूना दरबार के कृपापात्रों में थे। 


उस समय पेशवा बाजीराव द्वितीय पूना में रहते थे। सन् १८१८ में अंग्रेजों ने पेशवाई खत्म करके बाजीराव को आठ लाख रुपया वार्षिक पेंशन और बिठूर की जागीर दी। बाजीराव ब्रह्मावर्त (बिठूरचले आए। बाजीराव के निज भाई चिमाजी आप्पा साहब थे। वे बनारस चले गए। मोरोपंत ताँबे पर चिमाजी की बड़ी कृपा थी। मोरोपंत मोरोपंत मनूबाई के पिता थे। 

मोरोपंत की पत्नी का नाम भागीरथीबाई थासुशीलचतुररूपवती। 

मनूबाई कार्तिक वदी १४संवत् १८९१ (११ नवंबरसन् १८३६के दिन काशी में इन्हींसे उत्पन्न हुई थी। 


चिमाजी का शरीरांत हो गया। मोरोपंत को अपने कुटुंब के पालन के लिए कोई सहारा काशी में नहीं दिखाई पड़ रहा था। बाजीराव ने उन्हें काशी से बिठूर बुला लिया। मोरोपंत पर बाजीराव की भी बहुत कृपा रही। 


मनूबाई चार वर्ष की ही थीजब उसकी माता भागीरथीबाई का देहांत हो गया। मनू के पालन-पोषण और लाड़-दुलार का संपूर्ण भार मोरोपंत पर  पड़ा। मोरोपंत ने मनू को बहुत प्यार के साथ पालालड़के से बढ़कर। 

मनू इतनी सुंदर थी कि छुटपन में बाजीराव इत्यादि उसको स्नेहवश ‘छबीली’ के नाम से पुकारते थे। 


बाजीराव के अपनी कोई संतान  थीइसलिए उन्होंने नाना धोडूपंत नाम के एक बालक को गोद लिया। नाना तीन भाई थेनानाबाला और रावसाहब। बाला उस समय बिठूर में  था। छोटा सहोदर रावसाहब था। 


मनू और ये दोनों लड़के साथ खेलतेखाते और पढ़ते थे। मलखंबकुश्तीतलवारबंदूक का चलानाअश्वारोहणपढ़ना-लिखना इत्यादि सब इन तीनों ने छुटपन से साथ-साथ सीखा। मनू चपलहठीली और बहुत पैनी बुद्धि की थी। कम आयु की होने पर भी वह इन हुनरों में उन दोनों बालकों से बहुत आगे निकल गई। स्त्रियों की संगति कम प्राप्त होने के कारण वह लाज-संकोच की अतीव दबन और झिझक से दूर हटती गई थी। 


नाना आठ लाख वार्षिक पेंशन अपने और अपने भाइयों की परंपरा के जीवन-सुख के लिए काफी से अधिक समझता होगा। बाजीराव को पेंशन उसको और उसके कुटुंब के लिए दी गई थी। बिना किसी प्रयत्न के आठ लाख वार्षिक मिलते जाएँ तो फिर किस महत्त्वाकांक्षा की जोखिम के लिए और अधिक हाथ-पैर हिलाए जाएँ?’ 


मनूबाई ऐसा नहीं सोचती थी। छत्रपति शिवाजी इत्यादि के आधुनिक और अर्जुन-भीम इत्यादि के पुरातन आख्यानौं ने मनू की कल्पना को एक अस्पष्ट और अदम्य गुदगुदी दे रखी थी। 


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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगाउतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण होगा। 


दीक्षित ने मन में कई वर टटोले। जिसको स्थिर करते उसी के लिए प्रश्न उठता, 'क्या पेशवा इसको पसंद कर लेंगे?' जी उचट जाता। सरदार श्रेणी के ब्राह्मणों में कुछ टीपनाएँ लाकर मिलाईंपर मेल  खाया। 


सोचाश्रीमंत सरकार गंगाधरराव की जन्म-पत्री मिलाकर देखूँशायद टक्कर खा जाए।टीपना प्राप्त हो गई। मिल गई। परंतु एक असमंजस हुआगंगाधरराव की पहली पत्नी का देहांत काफी दिन पहले हो चुका था। वह विधुर थे। विवाह करना चाहते थे। परंतु अपने कठोर स्वभाव के कारण बदनाम थे। भीड़-भगतियोंखसियों इत्यादि के हँसी-मजाकआमोद-प्रमोद में उनका काफी समय जाता था। नाटकशाला में तो रात का अधिकांश प्रायः बीतता ही था। इसलिए जितना वह करते थेउससे कहीं अधिक बदनामी फैल गई थी। 


नाटकशाला में बहुत रुचि के कारण खास तौर पर वेश्याओंगायिकाओं और नर्तीकियों के नाटकशाला में नौकर रखते हुए भी स्त्रियों की भूमिका में अभिनय करने की वजह से उनकी झूठी बदनामी बहुत कर दी गई थी। इस पर उनका कठोर बरताव। दीक्षित सोचते थे कि विवाह संबंध स्थापित करने में सफल हो जाऊँ तो सदा याद किया जाऊँगा। मोरोपंत तो हमेशा कृतज्ञ रहेंगे हीबाजीराव भी मानते रहेंगेझाँसी राज्य में कितना सम्मान होगामनूबाई सुंदर हैरानी बनने योग्य सब गुण उसमें हैं। चपलचंचल और उद्धत है। मुँहजोर है। किसी और घर में जाएगी तो  खुद सुखी हो सकेगी और  अपने पति को सुखी बना सकेगी। गंगाधरराव की रानी बनने पर चपलता  रह सकेगी। जीवन में संयम  जाएगा। वह १३-१४ साल की है और गंगाधरराव चालीस से कुछ ऊपर। परंतु उनका स्वास्थ्य अच्छा है। स्वभाव कठोर सही हैलेकिन ऐसी उग्र स्त्री के लिए तो ऐसा ही पति चाहिए। घोड़े की सवारीतीर-तमंचामलखंब और क्या-क्या-यह झाँसी के राज्य में ही मिल सकेगाऔर कहीं असंभव है। यह सब सोचकर दीक्षित ने झाँसी के राजा के साथ मनूबाई का विवाह संबंध कराने में किसी प्रकार की भी कसर  लगाने का निश्चय किया। गंगाधरराव के पास गए। एकांत पाकर बोले, 'महाराज से एक निवेदन करने आया हूँ।


राजा ने कहा, 'कहिए दीक्षितजी।

दीक्षितमहाराजरनवास को सूना हुए काफी समय हो गया है। अब।


राजा-'मैं क्या करूँजन्म -पत्री में मेरे इतने तेजस्वी ग्रह हैं कि किसी से मेल ही नहीं खाती। एकाध जगह मिली तो लड़की का भुखमरा पिता चाहता था कि मैं सब काम-धाम छोड़कर बाप-बेटी की पूजा-अर्चना में ही बाकी जीवन बिताऊँ। इससे तो मेरी नाटकशाला ही अच्छी। अप्सराओं के सुंदर अभिनयसुखलाल के बनाए नए-नए परदे। सुरीला गायन-वादन और सुहावना नृत्य। आपने तो अनेक बार रंगशाला में अभिनय देखे हैं


दीक्षित-'श्रीमंत सरकारवंश-परंपरा बनाए रखने के लिए शास्त्रों का विधान अनिवार्य है। प्रजा अपने राजा की बगल में अपना राजकुमार देखने की लालसा रखती है। सरकार का आमोद-प्रमोद भी चलता रह सकता है।


'हाँठीक है।कहकर गंगाधरराव सोचने लगे। क॒छ क्षण बाद बोले, 'दीक्षितजीआप तो काव्य-रसिक हैं। श्रीहर्षदेव रचित रत्नावली नाटिका कितनी कोमलमधुरमंजु कल्पना है और मोतीबाई अब भी कितना सुंदरकितना मनोहर अभिनय करती है।


दीक्षित ने सोचाअब खतरे में पड़े। मोतीबाई के प्रति राजा का ऐसा उत्साह देखकर दीक्षित क़ुंठित हुए। धीरज पकड़कर दीक्षित कह गए, 'परंतु सरकारमहल सूना है। उसमें तो दीवाली कोई सजातीय कन्या ही जगमगा सकती है।

गंगाधरराव की आँखें बड़ी थीं और डोरे लाल। दीक्षित ने डरते-डरते देखा। डोरे कुछ और रक्तिम हो गए। 

राजा ने कहा, 'मैं क्या करूँसजातीय कन्या को जबरदस्ती पकड़ लूँ?' 


दीक्षित ने तुरंत उत्तर दिया, 'नहीं महाराजमैंने जन्म-पत्रियों की परीक्षा कर ली हैबिलकुल मिल गई हैं। कन्या भी देख आया हूँ। बहुत सुंदर और कुशाग्र बुद्धि है। उसमें रानी होने योग्य समस्त गुण हैं। ' 

'कहाँ पर?' राजा ने जरा मुसकराकर पूछा। 


दीक्षित का साहस बढ़ा। उत्तर दियामहाराजवह इस समय बिठूर में है। श्रीमंत पंत प्रधान पेशवा का काम-काज देखने पर कन्या का पिता मोरोपंत तांबे नियुक्त है। पढ़ी-लिखी है और समयोचित सभी गुण उसमें हैं।


राजा ने प्रश्न किया, 'तांबे कुलीन होते हैंयह मैं जानता हूँलेकिन मोरोपंत भट्ट भिक्षुक तो नहीं हैं?' 


दीक्षित ने जवाब दियाश्रीमंत पेशवा की यज्ञशाला पर एक रामभट्ट गोडसे है। वह मोरोपंत का मित्र है। उसने मोरोपंत की पुत्री को विद्याभ्यास-भर कराया हैइसके सिवाय मोरोपंत का रामभट्ट या किसी भट्ट से कोई संबंध नहीं है।

गंगाधरराव ने जरा तीखेपन से कहा, 'मैं पूछता हूँमोरोपंत भिक्षुक है या नहीं!' 

दीक्षित ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया, 'कदापि नहीं सरकार।

गंगाधरराव ने दूसरा प्रश्न कियापेशवा और मोरोपंत में कैसा संबंध है?' 


दीक्षितबहुत घनिष्ठ। मित्रों जैसा। कोई नहीं कह सकता कि पेशवा मालिक है और मोरोपंत नौकर। कन्या को पेशवा ने बिलकुल अपनी पुत्री की तरह मान रखा है। मैं स्वयं देख आया हूँ।

राजा-'वे लोग संबंध को स्वीकार कर रहे हैं?' 

दीक्षित-'कर लेंगे। मुझको विश्वास है।

राजा-'तब सगाई-मँगनी इत्यादि के लिए आपको ही बिठूर जाना पड़ेगा।

हर्ष के मारे दीक्षित का दिमाग चक्कर खा गया। बोले, 'अवश्य जाऊँगासरकार।

फिर गला भर आया। आँख में एक आँसू। 

'यह क्‍यादीक्षितजी?' राजा ने मिठास के साथ कहा। 

दीक्षित गला संयत करके बोले, 'झाँसी की जनता को यह समाचार बहुत हर्ष देगाश्रीमंत!' 


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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। 


मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन रेशमी साड़ीस्वर्ण के आभूषणमाणिक-मोती के हार। बाजीराव ने अपने वे सब आभरण मनूबाई से फिर वापस नहीं लिए। 


मनूबाई के बड़े -बड़े गोल नेत्र मणि-मुक्ताओं को भी आभा दे रहे थे। दुर्गा-सी जान पड़ती थी। 


सगाई-वाग्दान की रीति होने के बाद मनूबाईनाना साहब और रावसाहब एक ही कमरे में इकट्ठे हुए। वे दोनों लड़के भी रेशमी वस्त्रों और आभूषणों से लदे थे। सगाई का उत्सव बाजीराव ने धूमधाम से करवाया। बालकों में बातचीत होने लगी। 

नाना-'अब तो मनू झाँसी से हाथियों पर बैठकर ब्रह्मावर्त आया करेगी।

मनू‌एक हाथी पर या दस पर

नाना-'एक पर बैठेगीबाकी पर मंत्रीसेनापति इत्यादि बैठे आवेंगे।

मनू‌-'मुझको तो घोड़े की सवारी पसंद है।

नानाझाँसी में बैठ पावेगी

मनू-'कौन रोक लेगा

नाना- 'सुनता हूँ राजा बड़ा क्रोधी है।

मनू- 'तो क्या मुझको सूली मिलेगी?' रावसाहब-'अरे नहीं। पर नबकरझुककर चलना पड़ेगा।

मनू ने नबकरझुककर कमरे का एक चक्कर काटा। हँसकर बोली, 'ऐसेऐसे चलना पड़ेगा?' 


वे दोनों लड़के भी हँस दिए। मनू की कांति से वह घर झिलमिला उठा। और जब वे बालक हँसेउनके दाँतों की दीप्ति से वह घर दमक उठा। 

रावसाहब-'मनूतुम्हारे चले जाने पर हम लोगों को सब तरफ सूना-सूना लगेगा। ' 

मनू‌- 'तो साथ चले चलना।

नाना-'काका एकाध महीने के लिए जाने दे सकते हैंअधिक समय के लिए नहीं।


मनू‌-'अधिक समय तो यहीं रहना चाहिए। बाला गुरु से तुमको अभी बहुत सीखना हैआया ही क्या हैमलखंबकुश्ती इत्यादि से शरीर को खूब कमाओ। अच्छी तरह से हथियार चलाना सीखो।

नाना- 'और दिल्‍ली पर धावा बोल दो।


मनू‌दिल्ली में क्या रखा हैदादाकाका और अखाड़े के सब समझदार लोग चर्चा करते हैं कि दिल्‍ली के कटघरे में अब एक कठपुतली-भर रह गई है।

नाना-'अब तो सब तरफ अंग्रेजों का चरचराटा है।

मनू हँस पड़ी। 

रावसाहब ने कहा, 'तो क्या अंग्रेज हमको वैसे ही निगल जाएँगे?' 

मनू हँसते-हँसते बोली, 'नाना साहब को कदाचित्‌ विश्वास नहीं होता कि अंग्रेज भी हराए जा सकते हैं।

नाना जरा कुढ़ गया। कहने लगा, 'छबीली को सिवाय घमंड मारने के और कुछ आता ही नहीं।

उन उज्ज्वल विशाल नेत्रों को और भी विस्तार मिला। मनू बोलीफिर छबीली कहा?' 

नाना हँस पड़ा। 'आज तो तुमने अपने ही मुँह से छबीली कह दियाओह मात खाई!' नाना ने कहा। 

मनू भी हँसी। बोली, 'आगे कभी मत कहना।

नाना ने गंभीर मुख-मुद्रा करके कहा, 'अब तो झाँसी की रानी कहा करूँगा।

मनू मुसकराई। 

उस मुसकान में झाँसी का कितना महान्‌ और कैसा अमर इतिहास छिपा पड़ा थाउसी समय वहाँ बाजीराव और मोरोपंत  गए। बाजीराव प्रसन्न थे और मोरोपंत आनंद-विभोर। उन बच्चों को सुखी देखकर वे लोग उस कमरे के वातावरण में समा गए। बाजीराव के मुँह से निकल पड़ा, ‘मनूतू ऐसी भाग्यवती हो कि भाग्य को बाँटती रहे!’ 


मोरोपंत ने मनू को चिढ़ाने के तात्पर्य से कहा, ‘श्रीमंत ने इसका छुटपन में क्या नाम रखा थामैं तो भूल ही गया।’ 

मनू ने गरदन मोड़कर होंठ सिकोड़ेआँखों में क्रोध लाने की चेष्टा की, ‘ऊँ’ निकली और मुसकरा दी। 

बाजीराव बोले, ‘क्या नाम थामनूतू ही बता देबेटी।’ 

बाजीराव के पेट पर अपना सिर रखकर मनू ने कहा, ‘नहीं दादाछबीली नाम अच्छा नहीं लगता।’ 

सब खिलखिलाकर हँस पड़े। 

उसी समय तात्या ने आकर कहा, ‘सरकारलोग इकट्ठे हो गए हैं। बातचीत होनी है।’ 


वे तीनों चले गए। बैठक में ब्रह्मावर्त निवासी महाराष्ट्र के प्रमुख ब्राह्मण विवाह की शर्तों की चर्चा कर रहे थे। 


मोरोपंत के पास सोना-चाँदी नहीं थापर जो कुछ था वह उसे विवाह में लगा देने को तैयार थे। बिठूर के इन प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की मध्यस्थता में तय हुआ कि विवाह का व्यय झाँसी के राजा वहन करेंगे और विवाह झाँसी में जाकर होगा। यह भी तय हुआ कि मोरोपंत झाँसी में ही स्थायी तौर पर रहा करेंगे और उनकी गणना झाँसी के सरदारों में होगी। 


झाँसी के मेहमान मोरोपंत को कन्यासहित अपने साथ लिवा ले जाना चाहते थेलेकिन यह ठीक  समझकर मोरोपंत उन लोगों के साथ नहीं गए। अपने सुभीते के लिए उन्होंने कुछ समय उपरांत झाँसी आने का संकल्प प्रकट किया। विवाह का मुहूर्त निश्चित करके मेहमान झाँसी चले गए। बाजीराव ने बाला गुरु के अखाड़ेवाले तात्या को झाँसी में मोरोपंत के लिए निवास-स्थान इत्यादि की उचित व्यवस्था के लिए उन लोगों के साथ भेजा। यह ब्राह्मण था। आगे चलकर इतिहास में यही युवा तात्या टोपे के नाम से प्रसिद्ध हुआ।


8


झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्रीतंत्रशास्त्री वैद्यरणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे  शाक्तशैववाममार्गीवैष्णव सभी काफी तादाद में  अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही थी जो 'गृहे शाक्ताबहिर्शैवासभामध्ये  वैष्णवा:' थे। इन सबके संघर्ष में अनेक जातियाँ और उपजातियाँजिनको शूद्र समझा जाता थाउन्‍नति की ओर अग्रसर हो रही थीं। व्यक्तिगत चरित्र का सुधारघरेलू जीवन को अधिक शांत और सुखी बनाना तथा जातियों की श्रेणी में ऊँचा स्थान पाना-यह उस प्रगति की सहज आकांक्षा थी। ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य जनेऊ पहनते हैं-यह उनकी ऊँचाई की निशानी हैजो  पहनता हो वह नीचा। इसलिए उन जातियों के कुछ लोगों नेजिनके हाथ का छुआ पानी और पूड़ीमिष्ठान आम तौर पर ऊँची जाति के हिंद्‌ ग्रहण कर सकते थेजनेऊ पहनने आरंभ कर दिए। उनके इस काम में कुछ बुंदेलखंडी और महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों का समर्थन था। झाँसी नगर में ब्राह्मण काफी संख्या में थे। अकेले महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों के ही तीन सौ घर थे। इन सबका बहुत बड़ा भाग प्रगति के विरुद्ध था। 


आंदोलन उठा। शूद्र जनेऊ के अधिकारी नहीं हैंअधिकांश पंडित इस मत के थे। आंदोलन के पक्ष में एक विद्वान्‌ तांत्रिक नारायण शास्त्री नाम का था। वह श्रृंगार शास्त्र का भी पारंगत समझा जाता था। उसने शिवाजी के प्रसिद्ध अमात्य बालाजी आवजी के पक्ष में दी हुई महापंडित विश्वेश्वर भट्ट (पूरा नाम-ब्राहमदेव विश्वेश्वर भट्ट कलियुग के व्यास। महाराष्ट्र के गंग के नाम से विख्यातकी व्यवस्था को जगह-जगह उद्धृत किया। 

यह वाद-विवाद कुछ दिनों अपनी साधारण गति से चलता रहा। 


गंगाधरराव के पास भी ख़बर पहुँची। वह तटस्थ से थे और कट्टरपंथियों के नायकों का उन्होंने मजाक भी उड़ाया। पर इससे कट्टरपंथ की धार को जरा और तेजी मिली। घर-घर वाद-विवाद होने लगा-अमुक वर्ग शूद्र हैअमुक सवर्ण। इस बात पर खूब ले-दे मची। घरों के बाहर के चबूतरों परबैठकों मेंतैबोलियों की दूकानों परमंदिरों मेंपाठशालाओं मेंदावतों-जेवनारों में चर्चा का यही प्रधान विषय। उस समय झाँसी में दो अच्छे कवि थे। एकहीरालाल व्यासदूसरे, 'पजनेश' हीरालाल ने अपना उपनाम 'हृदयेशरखा था। हृदयेश वैसे उदार विचारों के थेउस समय के लिहाज से राष्ट्रवादी  


पजनेश श्रृंगार रस के कवि थे। अन्य जाति की एक सुंदरी रखे हुए थे और नारायण शास्त्री के मित्र थे। दोनों रसिकइसलिए कट्टरपंथियों के प्रतिकूल थे। पजनेश ने इस विषय पर कुछ छंद भी बनाएपरंतु समय की हवा खिलाफ होने के कारण पजनेश के तर्क-वितर्कवाले थोड़े से छंद बिलकुल पिछड़ गए और हृदयेश का कट्टरपंथी पक्षपात छंदों की बाढ़ में बहने लगा। 


दुर्गा लावनीवाली एक वेश्या थी। अच्छी गायिका और विलक्षण नर्तकी। उसने बहुमत का साथ दिया। हृदयेश के छंद गाती और कभी अपनी बनाई हुई लावनियों में उस पक्षपात को चमकाती। नारायण शास्त्री दाँत पीसते और सिरतोड़ परिश्रम अपने पक्ष की पुष्टि के लिए करते। पजनेश ने उस पक्ष के समर्थन में कविता करना बंद कर दिया। हृदयेश को गली-कूचेहाट-बाजार और मंदिरों में इतना महत्त्व मिलते उन्हें अच्छा नहीं लगा। खासतौर पर दुर्गा सरीखी प्रसिद्ध नर्तकी और सुंदरी द्वारा हृदयेश के बनाए हुए छंदों का गायन। वह नारायण शास्त्री के घर अब और अधिक आने-जाने लगे और अधिक समय तक बैठने लगे। नारायण शास्त्री का शास्त्रोक्‍त समर्थन सीख-सीखकर वाद-विवाद में पूरी मुँहजोरी के साथ उद्धृत करने लगे। एक दिन उनके एक क्षुब्ध विरोधी ने सब दलीलों का एक जवाब देते हुए तड़ाक से कहानारायण शास्त्रीजिसकी तुम बार-बार दुहाई देते होब्राह्मण ही नहीं है।


पजनेश ने अधिकतम क्षुब्ध स्वर में पूछा, 'क्यों नहीं है?' 

उत्तर मिला, 'वह एक भंगिन को रखे हुए है।


यह अपवाद खुसफुस के रूप में फैलापरंत धीरेधीरे। कुछ कट्टरपंथियों ने इसको अपना लिया और कुछ ने असंभव कहकर अस्वीकृत कर दिया। पजनेश ने सोचा, 'मैं स्वयं निर्धार करूँगा।

नारायण शास्त्री ने भी बदनामी सुन ली। 


9


एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थेजैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठायापरंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बारीकी से परखा होता तो उनको मालूम हो जाता कि उनके आने पर शास्त्री का मन प्रसन्न नहीं हुआ था। पजनेश पौर के चबूतरे पर दरवाजे की ओर पीठ करके बैठ गए। शास्त्री दरवाजे की ओर मँह किए बैठ गए। शास्त्री ने पान खाने के लिए पानदान बढ़ाया। पजनेश के जी में एक क्षणिक झिझक उठीउसको दबा लिया और पान लगाकर खा लिया। 

शास्त्री ने पुछा, 'कोई नया समाचार?' 


'अब तो आपके चरित्र पर ही लांछन लगाया जाने लगा है।पजनेश उत्तर देकर पछताए। उस प्रसंग का प्रवेश और किसी तरह करना चाहते थे। 

शास्त्री ने आँख चढ़ाकर कहा, 'मैंने भी सुन लिया है।


पजनेश ने दम ली। शास्त्री कहते गए, 'मू्र्खों के पास जब युक्त नहीं रहती तब वे गालियों पर  जाते हैं। मैं क्या गाली-गलौज के दबाव में शास्त्र-चर्चा को छोड़ दूँगाबदमाशों को मुँहतोड़ जवाब दूँगा। उस पक्ष के जितने शास्त्री हैंचाहे महाराष्ट्र के होंचाहे एतद्देशीयसब इन बनियोंमहाजनों और सरदारों के किसी--किसी प्रकार आश्रित हैं। और ये आश्रयदाता हैं-पुरानी लीकों के पुजारी। 'मक्षिका स्थाने मक्षिकावाले। ये लोग शास्त्र का पारायण नहीं करते अथवा करते हैं तो सच बात  कहकर यजमानों को संतुष्ट करने के लिए केवल उनकी मुँहदेखी कहते हैं। तंत्रशास्त्र वालों का मूल ज्ञान-विज्ञान और सत्य में हैवे अवश्य पुराणियों और कथा-वाचकों के साथ असत्य की साँझ नहीं करते।


पजनेश-' परंतु अपवाद का दमन जरूरी है। ' 

शास्त्री-' व्यर्थबकने दो। मैं परवाह नहीं करता। अपना काम देखो।

पजनेश-'मेरी समझ में श्रीमंत सरकार से फरियाद करनी चाहिए। वे जब कठोर दंड देंगे तब यह बदनामी खत्म होगी।

शास्त्री-'मैं ऐसी सड़ियल बात को राजा के सामने नहीं ले जाना चाहता। राजा तो यों भी उन कथा-वाचकों की दिल्‍्लगी उड़ाया करते हैं।

पजनेश-'तब मैं क्‍या कहूँगा?' 


शास्त्री को प्रस्ताव पसंद नहीं आया। बोले, 'यह और भी बुरा होगा। राजा कहेंगे कि कुछ रहस्य अवश्य हैतभी तो स्वयं फरियाद  करके मित्र से करवाई।फिर विषयांतर के लिए कहा, 'आज घर से इतनी जल्दी कैसे निकल पड़े

पजनेश ने उत्तर दिया, 'कान नहीं दिया गया तो इसी चर्चा के लिए आपके...' 

पजनेश का वाक्य पूरा नहीं हो पाया था कि उतरती अवस्था की एक स्त्री डलिया-झाड़ू लेकर दरवाजे पर आईं। वह बाहर ही रह गईउसके पीछे उससे सटी हुई एक युवती थी। वह कुछ अच्छे वस्त्र पहने थीथोड़े से आभूषण भी। साफ-सुथरी। युवती उतरती अवस्थावाली स्त्री को एक ओर करके मुसकराती हुई पौर में  गई। प्रवेश करते समय उसने पजनेश को नहीं देखा था। परंतु भीतर घुसते ही पजनेश की झाँईं पड़ गई। ठिठकीलौटने के लिए मुड़ी और फिर खड़ी रह गई। दूसरी स्त्री से बोली, 'कोंसापौर में तो कोई कूड़ा नहीं।

कोंसा ने कहा, 'मैं आती हूँ। ठहरना।

पजनेश ने देखा-ऊँची जाति की सुंदर स्त्रियों जैसी सुंदर है। नायिका-भेद की उपमाएँ स्मरण हो आईंकमलगातमृगनयनकपोत ग्रीवाकमलतालकटि। परंतु नायिका-भेद का साहित्य और आगे साथ  दे सका। कवि का मन आकर्षण और ग्लानि की खींचतान में पड़ गया। 


शास्त्री ने अपनी घबराहट को किसी तरह नियंत्रित करके उस युवती से कहा, 'थोड़ी देर में आनातब तुम्हारा काम कर दुँगा। समझी छोटी?' 

युवती के खरे रंग पर लाली दौड़ गई। वह हाँ कहकर गजगति से नहींबिल्ली की तरह वहाँ से भाग गई। 

शास्त्री और कवि दोनों किसी एक बड़े बोझ से मानो दब गए। पजनेश के मुँह से वाक्य फूट पड़ा, 'यह कौन है?' 

शास्त्री - 'छोटी।

पजनेश-'यह तो उसका नाम है। वह है कौन?' 

शास्त्री-'स्त्री।

पजनेश-'यह तो मैं भी देखता हूँ। कौन स्त्री?' 

शास्त्री-'एक काम से आई थी।

पजनेश-'खैरमुभको कुछ मतलब नहींपरंतु यदि...' 

शास्त्री ने बात काटकर पूछा, 'परंतु यदि क्याआप क्या इसके संबंध में मेरे ऊपर संदेह करते हैं?' 


पजनेश ने एक क्षण सोचकर उत्तर दिया 'बस्ती के लोग क्‍या इसी स्त्री की चर्चा करते हुए आप पर लांछन लगा रहे हैंयदि ऐसा है तो आपको सावधान हो जाना चाहिए। उस स्त्री की जातिवाले उसका सर्वनाश कर डालेंगे और राजा आपका।

शास्त्री ने कहा, 'झूठा आरोप है। मैं किसी से नहीं डरता।

'आप जानें।पजनेश बोले, 'मेरा कर्तव्य थासो कह दिया।


पजनेश उठे। शास्त्री ने एक पान और खाने का अनुरोध किया परंतु पजनेश बिना पान खाए चले गए। बाहर निकलकर उनकी आँखों ने इधर-उधर उस युवती को ढूँढ़ापरंतु वह  दिखाई पड़ी। उन्हें आश्चर्य था, 'इस जाति में भी पद्मनी होना संभव है!



Part #1; Part #3

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