Jhansi ki Rani - Lakshmibai # 1 - Vrindavan lal verma


 इस कहानी को audio में सुनने के लिए इस पोस्ट के अंत में जाएँ। 



उदय 

1


वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वारोही तेजी के साथ चले जा रहे थे। तीनों बाल्यावस्था में। एक बालिका, दो बालक। एक बालक की आयु 16 वर्ष, दूसरे की 14 से कुछ ऊपर। बालिका की 13 साल से कम।

बड़ा बालक कुछ आगे निकला था कि बालिका ने अपने घोड़े को एड़ लगाई। बोली, ‘‘देखूँ कैसे आगे निकलते हो।और वह आगे हो गई। बालक ने बढ़ने का प्रयास किया तो उसका घोड़ा ठोकर खा गया और बालक धड़ाम से नीचे जा गिरा। सूखी लकड़ी के टूकड़े से उसका सिर टकरा गया। खून बहने लगा। घोड़ा लौटकर घर की ओर भाग गया। बालक चिल्लाया, ‘‘मनू, मैं मरा।


बालिका ने तुरन्त अपने घोड़े को रोक लिया। मोड़ा, और उस बालक के पास पहुंची। एक क्षण में तड़ाक से कूदी और एक हाथ से घोड़े की लगाम पकड़े हुए झुककर घायल बालक को ध्यानपूर्वक देखने लगी। माथे पर गहरी चोट आई थी और खून बह रहा था। बालिका मिठास के साथ बोली, ‘‘घबराओ मत, चोट बहुत गहरी नहीं है। लोहू बहने का कोई डर नहीं।


मझला बालक भी पास गया। उतर पड़ा और विह्वल होकर अपने साथी की चोट को देखने लगा।नाना, तुमको तो बहुत चोट लग गई।उस बालक ने कहा। 

नहीं, बहुत नहीं है, ‘बालिका मुसकराकर बोली, ‘अभी लिए चलती हूँ। कोठी पर मरहम पट्टी हो जाएगी और बहुत शीघ्र चंगे हो जाएँगे।

कैसे ले चलोगी, मनु ?’ बड़े लड़के ने कातर स्वर में कराहते हुए पूछा।

मनू ने उत्तर दिया, ‘तुम उठो। मेरे घोड़े पर बैठो। मैं उसकी लगाम पकड़े तुम्हें अभी घर लिए चलती हूँ।

मेरा घोड़ा कहाँ है ?’ घायल ने उसी स्वर में प्रश्न किया।


मनू ने कहा, ‘भाग गया। चिंता मत करो। बहुत घोड़े हैं। मेरे घोड़े पर बैठो। जल्दी। नाना, जल्दी।

नाना बोला, ‘मनू, मैं सध नहीं सकूँगा।

मनू ने कहा, ‘मैं साध लूंगी। उठो।

नाना उठा। मनू एक हाथ से घोड़े की लगाम थामे रही, दूसरे से उसने खून में तर नाना को बैठाया और बड़ी फुरती के साथ उचटकर स्वयं पीछे जा बैठी। एक हाथ से घोड़े का लगाम सँभाली, दूसरे से नाना को थामा और गाँव की ओर चल दी। पीछे-पीछे मँझला बालक भी चिंतित, व्याकुल चला। जब ये गांव के पास गए तब कई सिपाही घोड़ों पर सवार इन बालकों के पास पहुँचे।

चोट लगी तो नहीं ?’

ओफ बहुत खून निकल गया है।

आओ, मैं लिए चलता हूँ।


घर पर घोड़े के पहुँचते ही हम समझ गये थे कि कोई दुर्घटना हो गई है।इत्यादि उग्दार इन आगंतुकों के मुँह से निकले। इन लोगों के अनुरोध करने पर भी मनू नाना को अपने ही घोड़े पर सँभाले हुए ले आई। कोठी के फाटक पर पहुँचते ही एक उतरती अवस्था का और दूसरा अधेड़ वय का पुरुष मिले। दोनों त्रिपुंड लगाए थे। उतरती अवस्थावाला रेशमी वस्त्र पहने था और गले में मोतियों का कंठा। अधेड़ सूती वस्त्र पहने था। उतरती अवस्था वाले को कुछ कम दिखता था। उसने अपने अधेड़ साथी से पूछा, ‘क्या ये सब गए, मोरोपंत ?’

हाँ, महाराज।मोरोपंत ने उत्तर दिया। जब वे बालक और निकट गए तब मोरोपंत नामक व्यक्ति ने कहा, ‘अरे ! यह क्या ? मनू और नाना साहब दोनों लोहूलुहान हैं !’

जिनको मोरोपंत नेमहाराजकहकर संबोधन किया था, वह पेशवा बाजीराव द्वितीय थे। उन्होंने भी दोनों बच्चों को रक्त से सना देखा तो घबरा गए।

सिपाहियों ने झपटकर नाना को मनु के घोड़े से उतारा। मनू भी कूद पड़ी। 

मोरोपंत ने उसको चिपटा लिया। उतावले होकर पूछा, ‘मनू, चोट कहाँ लगी है बेटी ?’

मुझको तो बिलकुल नहीं लगी, काका,’ मनू ने जरा मुसकराकर कहा, ‘‘नाना को अवश्य चोट आई है, परंतु बहुत नहीं है।

कैसे लगी मनू ?’ बाजीराव ने प्रश्न किया।

कोठी में प्रवेश करते-करते मनू ने उत्तर दिया, ‘ऊँह, साधारण-सी बात थी। घोड़े ने ठोकर खाई। वह संभल नहीं सके। जा गिरे। घोड़ा भाग गया। घोड़ा ऐसा भागा, ऐसा भागा कि मुझको तो हँसी आने को हुई।


मोरोपंत ने मनू के इस अल्हड़पने पर ध्यान नहीं दिया। नाना को मनू अपने घोड़े पर ले आई, वे इस बात पर मन ही मन प्रसन्न थे।

बाजीराव को सुनाते हुए मोरोपंत ने पूछा, ‘तू नाना साहब को कैसे उठा लाई ?’

मनू ने उत्तर दिया, ‘कैसे भी नहीं। वह बैठ गए। मैं पीछे से सवार हो गई। एक हाथ में लगाम पकड़ ली, दूसरे में नाना को थाम लिया। बस।

नाना को मुलायम बिछौने पर लिटा दिया गया। तुरंत घाव को धोकर मरहम-पट्टी कर दी गई। घाव गंभीर होने पर भी लंबा और जरा गहरा था। बाजीराव चिंतित थे।

मोरोपंत को विश्वास था कि चोट भयप्रद नहीं है तो भी वह सहानुभूति के कारण बाजीराव के साथ चिंताकुल हो रहे थे।

जब मनूबाई और मोरोपंत उसी कोठी के एक भाग में, जहाँ उनका निवास था, अकेले हुए, मनू ने कहा, ‘इतनी जरा-सी चोट पर ऐसी घबराहट और रोना-पीटना !’

बेटी, चोट जरा-सी नहीं है। कितना रक्त बह गया है !’

आप लोग हमको जो पुराना इतिहास सुनाते हैं, उसमें युद्ध क्या रेशम की डोरों और कपास की पौनियों से हुआ करते थे ?’

नहीं, मनू ! पर यह तो बालक है।

बालक है ! मुझसे बड़ा है। मलखंब और कुश्ती करता है। बाला गुरु उसको शाबाशी देते हैं। अभिमन्यू क्या इससे बड़ा था ?’

मनू, अब वह समय नहीं रहा।

क्यों नहीं रहा, काका ? वही आकाश है, वही पृथ्वी। वही सूर्य, चंद्रमा और नक्षत्र। सब वही हैं।

तू बहुत हठ करती है।

जब मैं सवाल करती हूँ तो आप इस प्रकार मेरा मुँह बंद करने लगते हैं। मैं ऐसे तो नहीं मानती। मुझको समझाइए, अब क्या हो गया है !’

अब इस देश का भाग्य लौट गया है। अंग्रेजों के भाग्य का सूर्योदय हुआ है। उन लोगों को प्रताप के सामने यहाँ के सब जन निस्तेज हो गए हैं।

एक का भाग्य दूसरे ने नहीं पढ़ा है। यह सब मनगढंत है। डरपोकों का ढकोसला।

तू जब और बड़ी होगी तब संसार का अनुभव तुझको भी यह सब स्पष्ट कर देगा।

मैं डरपोक कभी नहीं हो सकती। आप कहा करते हैंमनू, तू ताराबाई बनना, जीजाबाई और सीता होना। यह सब भुलावा क्यों ? अथवा क्या ये सब डरपोक थीं ?’

बेटी, ये सब सती और वीर थीं; परंतु समय बदलता रहता है। बदल गया है।


यह तो हेर-फेरकर वही सब मनमाना तर्क है।

फिर कभी बतलाऊँगा।

मैं ऐसी गलत-गलत बात कभी नहीं सुनने की।

तो सोएगी भी या रात-भर सवाल ही करती रहेगी !’ अंत में खीजकर परंतु मिठाश के साथ मोरोपंत ने कहा। मनू खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली, ‘काका, आपने तो टाल दिया। मैं इस प्रसंग पर फिर बात करूँगी। अभी अवश्य करवट लेते ही सोई, यह सोई।फिर एक क्षण उपरांत मनू ने अनुरोध किया, ‘काका, देख आइए, नाना सो गया या नहीं। आपको नींद रही हो तो मैं दौड़कर देख आऊँ।मोरोपंत ने मनू को नहीं जाने दिया। स्वयं गए। देख आए। बोले, ‘नाना साहब सो गए हैं।

मनू सो गई। मोरोपंत जागते रहे। उन्होंने सोचा, मनू की बुद्धि उसकी अवस्था से बहुत आगे निकल चुकी है। अभी तक कोई योग्य वर हाथ नहीं लगा। दक्षिण जाकर देखना पड़ेगा। इसी विचार के लौट-फेर में मोरोपंत का बहुत समय निकल गया। कठिनाई से अंतिम पहर में नींद आई। 


2


मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’

सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।नाना ने उत्तर दिया।

मनू-‘वह दोपहर तक ठीक हो जाएगा। तीसरे पहर घूमने चलोगे ? संध्या से पहले ही लौट आएँगे।

नाना- ‘सवारी की धमक से पीड़ा बढ़ने का डर है।

मनू- ‘आरंभ में कदाचित् थोड़ी-सी पीड़ा हो; परंतु शीघ्र ही उसको दाब लोगे और जब लौटोगे, याद रहेगा कि कभी चोट लगी थी।


नाना- ‘यदि पीड़ा बढ़ गई तो ?’

मनू- ‘तो सह लेना, फिर कभी गिरोगे तो चोट कम आँसेगी।

नाना- ‘और यदि आज ही फिर फिसल पड़ा तो ?’

मनू- ‘तो मैं तुमको फिर उठा लाऊँगी। चिंता मत करो।

नाना- ‘और जो तुम खुद गिर पड़ीं तो ?’

मनू- ‘तब मैं फिर सवार हो जाऊँगी। किसी की सहायता नहीं लेनी पड़ेगी और घर जाऊँगी।

नाना- ‘मेरे बस का नहीं।

मनू- ‘लड्डू खाओगे ?’

नाना- ‘मुझे चुपचाप पड़ा रहने दो !’

मनू- ‘कब तक ?’

नाना- ‘तीन-चार दिन लग जाएँगे।

मनू- ‘किसने कहा ?’

नाना- ‘काका कहते थे। वैद्य ने भी कहा था।

मनू- ‘वैद्य तो लोभवश कहता होगा, पर दादा क्यों कहते थे ?’

नाना- ‘उनसे ही पूछ लेना। मेरा सिर मत खाओ।

मनू हँस पड़ी। फिर दाईं ओर का ओठ थोड़ा-सा-बिलकुल जसा-सा-दबाकर बोली, ‘तुम कहते थेबाजी प्रभु देशपांडे की कीर्ति से बढ़कर कीर्ति कमाऊँगा, तानाजी मालसुरे को पछाड़ूँगा, स्वर्गवासी छत्रपति शिवाजी को अपने कृत्यों से फड़का दूँगा, श्रीमत पंत प्रधान प्रथम बाजीराव की बराबरी करूँगा,...’

इतने में वहाँ बाजीराव गए। मनू इतनी तीक्ष्णता के साथ बोल रही थी कि बाजीराव ने उसका अंतिम वाक्य सुन लिया।


बोले, ‘तेरी चपलता जाने कब खत्म होगी ? यह सब क्या बके जा रही है ?’

मनू रंचमात्र भी नहीं दबी। बोली, ‘इसको दादा, आप बकना कहते हैं ? आप ही हम लोगों को छुटपन से सुनाते आए हैं। मैं उसी को दुहरा रही हूँ। अब आप इसे बकवास समझने लगे हैं। ! यह क्यों दादा ?’

बाजीराव ने कहा, ‘बेटी, क्या आज उन बातों के स्मरण से जीवन को चलाने का समय रहा है ? महाभारत की कथाएँ सुनो और अपने पुरखों की बातें सुनो। अच्छी-भली बनो। मन बहलाओ और जीवन को पवित्र सुख से सुखी बनाओ। नाना को चिढ़ाओ मत।

मनू ने मुसकराकर होंठ जरा-सा दबाया, थोड़ी-सी त्योरी संकुचित की और बाजीराव के बिलकुल पास आकर बोली, ‘क्या हम लोगों को अब सोकर, खाकर ही जीवन बिताना सिखलाइएगा, दादा ?’

बाजीराव को हँसी आई। कुछ कहना ही चाहते थे कि मोरोपंत कहते हुए गए, ‘नाना साहब को हाथी पर बैठकर थोड़ा-सा घूम आने दीजिए। बाहर तैयार खड़ा है।


बाजीराव ने प्रश्न किया, ‘हाथी की सवारी में चोट को धमक तो नहीं लगेगी ?’

मोरोपंत ने उत्तर दिया, ‘नहीं, पलकिया में बहुत मुलायम गद्दी-तकिए लगा दिए गए हैं और हाथी बहुत धीमे चलाया जाएगा।

मनू हाथी को देखने बाहर दौड़ गई। नाना निस्तार इत्यादि के लिए उठ गया। मनू ने हाथी पहले भी देखे थे, फिर भी वह इस हाथी को बार-बार चारों ओर से घूम-घूमकर देख रही थी और उसके डीलडौल पर कभी मुसकरा रही थी, कभी हँस रही थी।

थोड़ी देर बाद बाजीराव नाना को लिए बाहर आए। साथ में छोटा लड़का भी था, मोरोपंत पीछे-पीछे। हाथी पर पहले नाना को बिठा दिया गया, फिर छोटे को। महावत ने हाथी को अंकुश छुलाई, हाथी उठा।

मनू ने मोरोपंत से कहा, ‘काका, मैं भी हाथी पर बैठूँगी।बाजीराव के घुटनों से लिपटकर बोली, ‘दादा, मैं भी बैठूँगी।

नाना हौदे में महावत के पास बैठा था। उसने महावत को अविलंब चलने का आदेश किया। मनू की ओर देखा भी नहीं। बाजीराव ने नाना से कहा, ‘लिए जाओ मनू को !’


नाना ने मुँह फेर लिया ! तब बाजीराव ने दूसरे बालक से कहा, ‘रावसाहब, मनू को ले लेते तो अच्छा होता !’

महावत कुछ ठमका तो नाना ने उसकी पसलियों में उँगली चुभोकर बढ़ने की आज्ञा दी। वह नाना साहब और रावसाहबदोनों को लेकर चल दिया। मनू की आँखों में क्षोभ उतर आया। मोरोपंत का हाथ पकड़कर बोली, ‘हाथी लौटाओ काका। मैं हाथी पर अवश्य बैठूँगी।

बाजीराव कोठी में चले गए।

मोरोपंत को भी क्षोभ हुआ, परंतु उन्होंने उसको नियंत्रित करके कहा, ‘वह चला गया बेटी।

मनू मोरोपंत का हाथ पकड़कर खींचने लगी, ‘महावत को पुकारिए, वह रुक जाएगा। मैं बिना बैठे नहीं मानूँगी।

मोरोपंत का क्षोभ भड़का। उन्होंने उसका फिर दमन किया। मनू ने फिर हाथी पर बैठने का हठ किया। मोरोपंत ने क्रुद्ध स्वर में मनू को डाँटा, ‘तेरे भाग्य में हाथी नहीं लिखा है। क्यों व्यर्थ हठ करती है ?’


मनू तिनककर सीधी खड़ी हो गई। तमककर कुछ कहना चाहती थी। एक क्षण होंठ नहीं खुल सके।

मोरोपंत ने शांत करने के प्रयोजन से, भरसक धीमे स्वर में परंतु क्रोध के सिलसिले में कहा, ‘सैकडों बार कहा कि समय देखकर चलना चाहिए। हम लोग तो छत्रधारी हैं और सामंत सरदार। साधारण गृहस्थों की तरह संसार में रहन-सहन रखना है। पढ़ी-लिखी होने पर भी जाने सुनती-समझती क्यों नहीं है। कह दिया कि भाग्य में हाथी नहीं लिखा है। हठ मत किया कर।

मनू के होंठ सिकुड़े। चुनौती-सी देती हुई बोली, ‘मेरे भाग्य में एक नहीं दस हाथी लिखे हैं।

मोरोपंत का क्रोध भीतर सरक गया। हँस पड़े। मनूबाई को पेट से चिपका लिया। कहा, ‘अब चल, कोई शास्त्र-पुराण पढ़। तब तक वे दोनों लौट आते हैं।

मनू मचली। बोली, ‘मैं अपने घोड़े पर बैठकर सैर को जाऊँगी और उस हाथी को तंग करूँगी।

मोरोपंत सीधे शब्दों में वर्जित करना चाहते थे, परंतु इस उपकरण में सफलता के चिह्न पाकर उन्होंने तुरंत बहाना बनाया, ‘घोड़े से यदि हाथी चिढ़ गया तो तू भले ही बचकर निकल आए, पर नाना साहब, रावसाहब तथा महावत मारे जाएँगे।

वह मान गई।

तब तक कुछ और करूँगी,’ मनूबाई ने कहा, ‘पुस्तकें तो नहीं पढ़ूँगी। बंदूक से निशानेबाजी करूँगी। 


3


थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

नहीं बढ़ा,’ नाना ने उत्तर दिया, ‘अच्छा लग रहा है। मनू कहाँ गई ?’

बाजीराव ने कहा, ‘भीतर होगी।

रावसाहब- ‘उसे बुरा लगा होगा। नाना ने साथ नहीं लिया, मैंने तो कहा था।

नाना- ‘वह मुझको सवेरे से चिढ़ा रही थी।

बाजीराव- ‘क्या ? कैसे ?’

नाना- ‘उसका स्वभाव है।

कुछ क्षण उपरांत मनू गई।

नाना ने हँसते हुए कहा, ‘छबीली, तुम क्या कोई ग्रंथ पढ़ रही थीं ?’

मनू जल उठी। बोली, ‘मुझसे छबीली मत कहा करो।


नाना ने और भी हँसकर कहा, ‘क्यों नहीं कहा करूँ ? यह तो तुम्हारा छुटपन का नाम है।

मनू की आँखें लाल हो गईं। बोली, ‘मुझको इस नाम से घृणा है।

नाना गंभीर हो गया। बोला, ‘मुझको तो यही नाम सुहावना लगता है। छबीली, छबीली।

इस नाम को कभी नहीं सुनूँगी।कहकर मनू वहाँ से जाने को हुई। बाजीराव ने उसको पकड़ लिया। मनू ने भागना चाहा। भाग सकी। तब नाना ने भी पकड़ लिया।

क्या मनू बुरा मान गई ?’ नाना ने स्नेह के साथ पूछा।

मनू होंठ सिकोड़कर, रुखाई के साथ बोली, ‘अवश्य। आगे इस नाम से मेरा संबोधन कभी मत करना।

इसी समय पहरेवाले ने बाजीराव को सूचना दी, ‘झाँसी से एक सज्जन आए हैं। नाम तात्या दीक्षित बतलाते हैं।

नाना बोला, ‘मनू, एक से दो तात्या हुए।


मनू का क्षोभ घुला। बाजीराव ने प्रहरी से झाँसी के आगंतुकों को बैठाने के लिए कह दिया।

मनू ने कहा, ‘झाँसीवाला कुश्ती लड़ता होगा ?’

रावसाहब- ‘झाँसी में कोई बाला गुरु होंगे तो कुश्ती का भी चलन होगा ! वह तो राज्य ठहरा।

नाना- ‘बड़ा राज्य है ?’

बाजीराव- ‘बड़ा तो नहीं है, पर खासा है। हमारे पुरखों का प्रदान किया हुआ है, जानते होगे।

रावसाहब- ‘अपने को फिर नहीं मिल सकता ?’

मनू- ‘दान किया हुआ फिर कैसे वापस होगा।


बाजीराव- ‘हाँ, वापस नहीं हो सकता। झाँसी के राजा हमारे सूबेदार थे। इस समय अपना बस होता तो झाँसी में हम लोगों का काफी मान होता। परंतु झाँसी तो बहुत दिनों से अंग्रेजों की मातहती में है।

मनू-‘ग्वालियर, इंदौर, बरोदा, नागपुर, सतारा इत्यादि होते हुए भी थोड़े से अंग्रेजों ने आप सबको दबा लिया !’

बाजीराव- ‘यह मानना पड़ेगा कि वे लोग हमसे ज्यादा चालाक हैं। हथियार उनके पास अधिक अच्छे हैं। शूरवीर भी हैं और भाग्य उनके साथ है। और आपसी फूट हमारे साथ।

मनू- ‘दादा, क्या भाग्य में शूरवीर होना लिखा रहता है ? यदि ऐसा है तो अनेक सिंह सियार होते होंगे और अनेक सियार सिंह।

बाजीराव- ‘जब सियार पागल हो जाता है तब सिंह भी उससे डरने लगता है।

मनू- ‘वह भाग्य से पागल होता है अथवा और किसी कारण से ?!’

बाजीराव हँसने लगे।

इसी समय मोरोपंत ने आकर कहा, ‘दादा साहब, तात्या दीक्षित झाँसी से आए हैं।

बाजीराव बोले, ‘मैंने उनको बिठला लिया है। यहीं ठहरने, भोजन इत्यादि का प्रबंध कर दिया जावे।


मोरोपंत ने कहा, ‘तात्या मुझको एक बार काशी में मिले थे। यात्रा के लिए गए हुए थे। विद्या-विदग्ध हैं, सज्जन हैं। राजा के यहाँ उनका मान है।

मनू ने हँसकर पूछा, “कुश्ती लड़ते हैं? तलवार-बंदूक चलाते हैं? घोड़े पर चढ़ते हैं?” 


'दुर पगली', मोरोपंत ने कहा. 'जो यह सब जानता हो, वह क्या कुछ है ही नहीं? दीक्षितजी पक्के ब्राह्मण हैं। शास्त्री, आचार्य।’ 

नाना ने मनू की ओर देखते हुए कहा, ‘और यदि ब्राह्मण हथियार बाँध उठे तो वह पक्के से कच्चा हो जाएगा? मनू, तुम बताओ।’ 

मनू हँसी, बाजीराव भी हँसे। मोरोपंत ने मुसकराकर कहा, ‘इस लड़की जैसी वाचाल तो शायद ही कोई हो।’ 


मनू ने होंठों की समेट में मुसकराहट को दबाकर गरदन मोड़ी, फिर विशाल नेत्र संकुचित करके बोली, ‘आप ही कहा करते हैंताराबाई ऐसी थीं, जीजाबाई ऐसी थीं, अहिल्या ऐसी, मीरा ऐसी। मैं पूछती हूँ, क्या वे सब मुँह पर मुहर लगाए रहती थीं?’ 


4


भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचित थे। बिठूर (ब्रह्मावर्त) में बाजीराव के साथ दक्षिणी ब्राह्मणों का एक बड़ा परिवार बसा था। उस काल में मलखंब और मल्लयुद्ध के आचार्य बाला गुरु का अखाड़ा दक्षिणियों और हिंदुस्तानियों से भरा रहता था और गुरु बल, यौवन और स्वाभिमान को वितरित-सा करते रहते थे। वह स्वयं इतने दृढ़, बलिष्ठ और स्वाभिमानी थे कि लेटा करते थे। 


मोरोपंत ने अवसर निकालकर तात्या दीक्षित से प्रार्थना की, ‘दीक्षितजी, मुझे अपनी कन्या मनूबाई के विवाह की बड़ी चिंता लग रही है। मैंने बहुत खोज की है, परंतु कोई योग्य वर नहीं मिला। अब भी खोज कर रहा हूँ। आपका संसार में बहुत परिचय है। आप इस कन्या के लिए योग्य वर ढूँढ़ दीजिए। बड़ा अनुग्रह होगा।’ 

बाजीराव ने भी कहा, ‘कन्या बहुत सुंदर है, बड़ी कुशाग्र बुद्धि और होनहार। उसके लिए अच्छा वर ढूँढ़ना ही चाहिए।’ 


मोरोपंत बोले, ‘सब हथियार चलाना बहुत अच्छी तरह जानती है, घोड़े की सवारी में पुरुषों के कान पकड़ती है। जब चार वर्ष की थी, इसकी माँ का देहांत हो गया था। इसलिए मैंने स्वयं उसकी दिन-रात देखभाल की है, लालन-पालन किया है। मराठी, संस्कृत और हिंदी पढ़ाई है। शास्त्रों में उसकी रुचि है।’ 

बाजीराव ने कहा, ‘बालिका है, इसलिए इस आयु में जितना पढ़ सकती थी, उतना ही पढ़ा है; परंतु तेज बहुत है। पूजा-पाठ मन लगाकर करती है।’ 


मोरोपंत फूल गए। बाजीराव को भी संतोष हुआ। बोले, ‘जब आप जाएँ तो साथ में जन्मपत्री लेते जाएँ। योग्य वर से मेल खाने पर हमको सूचित करें।’ 

दीक्षित ने स्वीकार किया। 

उसी समय रावसाहब के साथ मनू वहाँ गई। 

बाजीराव ने दीक्षित से कहा, ‘यही वह कन्या है।’ 

दीक्षित ने मनूबाई के विशाल नेत्र, भौंरे को लजानेवाले चमकीले बाल, स्वर्ण-सा रंग और संपूर्ण चेहरे का अतीव सुंदर बनाव देखकर प्रसन्नता प्रकट की। 

दीक्षित ने ममता प्रदर्शित करते हुए कहा, ‘ बेटी, ! तूने शास्त्र पढ़े हैं, उच्च कुल की ब्राह्मण कन्या के लिए यह उपयुक्त ही है।’ 

मनू और रावसाहब बाजीराव के पास मसनद पर बैठ गए। 

मनू बिना किसी संकोच के बोली, ‘मैंने शास्त्र आँखों से भाँजना, घोड़े की सवारीये उससे भी बढ़कर भाते हैं।’ 

बाजीराव ने हँसकर टोका, ‘और बात बनाना, चबड़-चबड़ करना, इन सबसे बढ़कर अच्छा लगता है।’ 

मोरोपंत के मन में क्षणिक रोष आया। वह चाहते थे कि लड़की तात्या दीक्षित के सामने ऐसी बातें करे कि शील-संकोच का अवतार जान पड़े। 

पूजा-पाठ संबंधी रुचि पर बाजीराव ने ज्यादा जोर दिया। अश्वारोहण इत्यादि पर बहुत कम। 


तात्या दीक्षित ने जन्मपत्री माँगी। मोरोपंत ने ला दी। दीक्षित ने उसकी परीक्षा करके कहा, ‘ऐसी जन्मपत्री मैंने कदाचित् ही पहले कभी देखी हो। इसको कहीं की रानी होना चाहिए।’ 

परंतु, दीक्षित ने हँसकर कहा, ‘बालिका है। अभी संसार का उसने देखा ही क्या है?’ 

बिलकुल अबोध है’, मोरोपंत बोले, ‘सयानी होने पर अपने घर-द्वार का खूब प्रबंध करेगी।’ 

तात्या दीक्षित ने उत्साहित होकर भविष्यवाणी-सी की, ‘यह किसी राज्य की रानी होगी।’ 

रावसाहब अभी तक मनू के पीछे चुप बैठा था। बोला, ‘राज्य तो सब अंग्रेजों ने ले लिये हैं। नए राज्य कहाँ से बनेंगे?’ 

राज्यों की और राज्य बनानेवालों की, कमी रही है और रहेगी।तात्या दीक्षित ने हँसकर कहा। 

मनूबाई मुसकराकर बोली, ‘पर कुछ लोग कहते हैं कि अंग्रेजों ने ऐसा जोर बाँध दिया है कि कोई सिर ही नहीं उठा सकता।’ 

बाजीराव विषयांतर करना चाहते थे। बोले, ‘झाँसी में बाग-बगीचे कितने हैं?’ 

तात्या दीक्षित—‘बहुत हैं। राजा के बगीचे हैं। सरदारों और सेठ-साहूकारों के हैं! नगर के भीतर ही अनेक हैं।’ 

मनू—‘सेना बड़ी है?’ 

दीक्षित—‘खासी है।’ 

मनू—‘घोड़े अच्छे हैं?’ 

रावसाहब—‘हाथी?’ 

दीक्षित—‘बहुत से हैं।’ 

मनू—‘कितने?’ 

इतने में वहाँ सुगठित शरीर का एक युवक आया। बाजीराव ने पूछा, ‘क्या है, तात्या?’ 

अपने नाम के एक और मनुष्य को संबोधित होते देखकर दीक्षित चौंका। 

मनू ने बेधड़क कहा, ‘यह हमारे गुरु के अखाड़े के प्रधान हैं, आपके नामधारी।’ 

तात्या दीक्षित ने मन में चाहा कि लड़की और अधिक बात करे। 

युवक तात्या ने पेशवा से विनय की, ‘महाराज, गुरुजी ने कहलवाया है कि झाँसी से जो आचार्य आए हैं वे हमारे अखाड़े को देखने की कृपा करें।’ 

दीक्षित ने हामी भरी। तीसरे पहर सब लोग बाला गुरु के अखाड़े पर गए। मलखंब और मल्लयुद्ध का प्रदर्शन हुआ। 



Part #2


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