Jhansi ki Rani - Lakshmibai # 29 - Vrindavan Lal Verma
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राजा के आगरा चले जाने पर रानियाँ नरवर के क़िले में चली गई। पेशवाई सेना ने हर्ष और गर्व के साथ नगर में प्रवेश किया। ग्वालियर की बिखरी हुई फ़ौज एकत्र हो गई, उसने पेशवा को तोपों की सलामी साई और उसकी अधीनता में आ गई। पेशवा बड़े ठाठ से साथ मांगलिक वाद्य बजवाता हुआ, सिंधिया के राजमहल में पहुँचा और वहीं डेरा डाला। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने शिविर नौलखा बाग में रक्खा। पेशवा के साथी सरदार शहर के भिन्न भिन्न महलों में जा उतरे। तात्या के के दस्ते के लिए क़िले वालों ने फाटक खोल दिए। बहुत सी सामग्री हाथ आ गई। क़िले पर पेशवा का झंडा फहराने लगा। सिंधिया का ख़ज़ाना क़ब्ज़े में आ गया। अब पेशवा के बराबर था ही कौन?
पेशवाई सेना के कम्पनी विद्रोही भाग ने रेज़िडेन्सी में आग लगाई और उसका माल असबाब लूट लिया। दीवान दिनकर राव सरदार बलवंत राव और सरदार माहुरकर की हवेलियों को भी, जो अंग्रेजों के पक्षपाती थे, ख़ाक कर दिया। एक बार माँ का बंधेज उठा कि फिर उसमें सीमा की पहिचान न रही - शहर का लूटना भी आरंभ कर दिया।
परंतु पेशवा को ठीक समय पर मालूम हो गया। उसने तात्या को भेजकर यह लूटमार बंद करवा दी।
ग्वालियर के दरबारी पेशवा के अनुकूल थे और जनता का मन उसके साथ था। विजय के हर्ष और गर्व ने उसकी छाती और दिमाग़ को फूला दिया था, इसलिए क़ायदे के साथ सिंहासनरूढ़ होने का निश्चय किया। ज्योतिषियों ने मुहूर्त शोध दिया। पेशवा की स्वराज्य - कामना अपने निज के उत्थान के रूप में पलट गई।
तीसरी जून को फूलबाग में एक विशाल दरबार किया गया।
पेशवा ने राजसी कपड़े पहिने। कानों में मोतियों के चौकडे, गले में मोटी जवाहरों के कंठे। शान के साथ चौबदारों के प्रणाम लेता हुआ, मंगलध्वनि के साथ सिंहासन रूढ़ हो गया। सरदारों ने ताजीम दी। पेशवा ने उनका अभिनंदन किया और खिले बख्शी। अष्ट प्रधान और एक प्रधान मंत्री मुक़र्रर किए। तात्या टोपे को प्रधान सेनापति। अपने फ़ौजियों को बीस लाख रुपया इनाम बाँटा। असंख्य ब्राह्मणों के भोजन का प्रबंध करवाया सहस्रों व्यक्तियों को तो रसोई बन्ने के लिए ही नियुक्त करना पड़ा। भंग बूटी और शकर बादाम की पूरी योजना कार्यान्वित हुई!
आनंद के इस तूफ़ान में यदि कोई नहीं पड़ा तो लक्ष्मीबाई और उनके पाँच नायक - उनकी लालकुर्ती सेना अवश्य इनाम की भागी बनी।
ग्वालियर का गायन - वादन शताब्दियों से प्रसिद्ध रहा है। इसलिए उसका अखंड उपयोग किया जाने लगा। नृत्य और गायन से दिन और रात ओतप्रोत हो गए। ग्वालियर की ऐसी कोई भी नर्तकी और गायिका न थी जिसको अपने कलाकौशल के दिखलाने का काफ़ी अवसर और समय न मिला हो। कवि सम्मेलन और मुशायरे भी हुए जिनमें कवि कल्पना ने शब्दों के पुल बांध बांध कर ज़मीन आसमान एक कर दिए। कोई पेशवा की तुलना रामचंद्र जी के साथ कर रहा था और कोई इंद्र के साथ। दूसरी और भांडों की नक़लें जारी थी, जिनसे परिहास और अट्टहास के फ़व्वारे छूट रहे थे।
रानी किसी उत्सव में शामिल नहीं होती थी। इस वैराग्य वृत्ति के कारण उनको उत्सवों में बुलाया ही नहीं जाता था।
तात्या के मन के कोने में से एक दबी हुई वासना उमड़ पड़ी और वह भी अपने स्वामी पेशवा के साथ नृत्य गान के रस में डूब गया।
नृत्य गान के एक बड़े उत्सव में रानी के सरदारों को हठपूर्वक बुलाया गया। रानी ने अनुमति दे दी। मुंदर नहीं गई। बाक़ी गए।
उत्सव में ग्वालियर की चुनी हुई प्रसिद्ध नर्तकियाँ और गायिकाएँ बुलाई गई। गायन के साथ साथ नृत्य भी हुआ।
पेशवा ने आज्ञा दी, “गायन और नृत्य के साथ पूरा हाव भाव तो दिखलाओ।”
उन्होंने ब्योरे के साथ विविध प्रकार का हाव भाव प्रदर्शन आरम्भ किया।
जूही मन लगा कर देख रही थी। गायन के तोड़ों को वह सूक्ष्मता से साथ जाँच रही थी। ताल की परनों के साथ उसके पैर की उँगलियाँ घूम जाती थी और सम पर सिर हिल जाता था। एक जगह नर्तकी पखावजी के विलक्षण कौशल के कारण क्षण के एक अंश के पहले ही सम पर घुँघरू ठुमका गई। जूही ने त्योरी बदल कर मुँह बिचकाया। तात्या ध्यान के साथ नर्तकी के सुंदर रूप, कलापूर्ण नृत्य, मनमोही हाव भाव प्रदर्शन पर आँख गड़ाए था। जूही ने तात्या के इस ध्यान को परखा। एक बड़ी ग्लानि उसके मन में उठी।
देशमुख, रघुनाथ सिंह और गुल मुहम्मद पास पास बैठे।
गुल मुहम्मद ने धीरे से कहा, “बाई यह सब बड़ा अजीब है। अमारे यहाँ तो ऐसा कोई नई नाचता।”
देशमुख - “ग्वालियर इन बातों के लिए मशहूर है।”
गुल मुहम्मद - “लेकिन अगर अंग्रेज इस वक्त आ जाय तो।”
देशमुख - “तो सबको भागना पड़ेगा।”
रघुनाथ सिंह - “और बचेगा कोई नहीं।”
गुल मुहम्मद - “बहुत देख लिया। अमारा तो पेट भर गया। अमारा रानी सो गया होगा। छावनी अकेला है च्ल्ल्बी बाई।”
जूही ने सुन लिया। चलने के प्रस्ताव का समर्थन किया।
पेशवा से माफ़ी माँगी। इजाज़त ली। तात्या ने जूही की ओर देखा। उसने एक करारी त्योरी ली और अभिमान के साथ सिर फेर लिया। ये सब वहाँ से अपनी छावनी चले आए।
थोड़े क्षण के लिए उत्सव बंद हो गया। बीच के इस विक्षेप के कारण रसियों को बहुत बुरा लगा।
किसी ने पूछा, “ये लालकुर्ती वाले कौन थे?”
पेशवा ने धीरे से कहा, “कुछ बात नहीं। अपने ही लोग हैं। बुंदेलखंड़ के केंद्र झाँसी के हैं। ज़रा गंवार हैं।”
तात्या को रानी की याद आ गई और वह कांप गया, परंतु उसने कहा कुछ नहीं - कह भी क्या सकता था? उत्सव रात भर होता रहा। सवेरे खूब भंग छानी। डटकर लड्डुओं का और श्रीखंड का भोजन हुआ और फिर दिन भर सोना और रात को नाचरंग। जब ज़रा फ़ुरसत मिली तो पूछताछ हो गई कि ब्राह्मण भोजन यथाविधि चल रहा है और सेना भी खूब आनंद माना रही है या नहीं।
बस यही अबाध क्रम।
लड्डू और श्रीखंड खाते खाते बहुत ब्राह्मण बीमार पद गए। उनमें से एक नारायण शास्त्री था।
छोटी ने उसकी इतनी सेवा सुश्रुषा की कि वह शीघ्र अच्छा हो गया।
गाँठ में थोड़ा सा पैसा कर लेने की इच्छा से छोटी ने भी पेशवा के दरबार में नृत्य करने का निश्चय किया।
नारायण ने माना किया, “मैं अच्छी तरह चलने फिरने योग्य होते ही बहुत धन कम लूँगा। तुम इन सरदारों के उत्सव में नाचने मत जाओ। ये लोग बड़े कुरुचिपूर्ण हैं।”
छोटी ने प्रश्न किया, “मुझ पर आपको क्या भरोसा नहीं है?’
नारायण - “भरोसा तो पूरा है छोटी, परंतु यह काम जघन्य है।”
छोटी - “जब पलटनों में नाचती गाती थी, तब वह काम श्रेष्ठ था!”
नारायण - “उसका मतलब ऊँचा था।”
छोटी - “पास में रुपया पैसा कुछ नहीं था। आप चलने फिरने लायक़ कुछ देर में हो पावेंगे। मैं आज के ही नाच में काफ़ी पैसा ले आऊँगी। मन ऊँचा बना रहे तो कोई काम नीचा नहीं।”
शास्त्री को छोटी का हठ निभाना पड़ा। छोटी सुंदर वेश में पेशवा के उत्सव में पहुँच गई और उसका नाच गाना हुआ।
गाना उसका बहुत साधारण श्रेणी का था। उसकी विशेषता केवल उसका सुरीला और मधुर कंठ थी। नृत्य भी उसका एक बांधे हुए प्रकार का था। ले ज़रूर बहुत द्रुत थी। सुंदर थी, इसलिए उसको टोका नहीं गया।
उसके सीधे सीधे गाने और नाचने पर राव साहब मुग्ध हो गया। अच्छा पुरस्कार दिया। बोला, “तुम क्या यहीं की रहने वाली हो? तुम्हारा नृत्य शास्त्रीय ढंग का न होने पर भी निराला है। तुम बराबर नाचने आया करो।”
छोटी ने उत्तर दिया, “सरकार मैं झाँसी की रहने वाली हूँ। लश्कर में कुछ समय से हूँ।”
तात्या छोटी को बड़ी देर से देख रहा था। पहिचानने की चेष्टा कर रहा था। अब उसको भ्रम न रहा।
तात्या ने राव साहब से कहा, “यह जाती की मेहतरानी है श्रीमंत।”
पेशवा - “मेहतरानी!”
तात्या - “सरकार।”
पेशवा - “तो भी क्या हुआ? उसके पार विद्या है। नाचती क्या है, जादू डालती है।”
तात्या - “यह नारायण शास्त्री के साथ झाँसी से भागी थी।”
पेशवा - “नारायण शास्त्री के साथ! ब्राह्मण को पतित करके!”
राव साहब का कला प्रेम समाप्त हो गया। क्रुद्ध स्वर में बोला, “तूने यहाँ आने की कैसे हिम्मत की?”
छोटी -“जैसे पलटनों में जाने की, देश का कार्य करने की करती थी।”
पेशवा ने तात्या की ओर देखा।
तात्या ने कहा, “पलटनों में जागृति फैलाने का काम तो इसने ग्वालियर में बहुत किया है।”
पेशवा - “तो क्या हुआ? अब तो जो कुछ कर रही है और जो कुछ इसने झाँसी में किया, वह दंडनीय है।”
छोटी ने अदम्य भाव से कहा, “मुझको दंड और इनाम जो कुछ मिला था, पा चुकी।”
पेशवा - “तू ग्वालियर में नहीं रह सकती। यहाँ मेरा राज्य तुरंत ख़ाली कर।”
छोटी - “कहाँ जाऊँ?”
पेशवा - “चाहे जहां। अंग्रेजों के राज्य में।”
छोटी - “जाती हूँ। परंतु अंग्रेजों के राज्य में नहीं जाऊँगी, क्योंकि वे लोग हमको क्षमा नहीं करेंगे।”
छोटी चली आई। नारायण को पुरस्कार के रुपए दिए और सब हाल सुनाया।
पहले तो उसको बहुत क्षोभ आया बोला, “इन अपवित्र रुपयों को नहीं लूँगा। चलो छोटी, ऐसी जगह चले जहां पेशवा का अत्याचार पीछा न कर सके।”
छोटी ने कहा, “रुपए अपवित्र नहीं है। पसीना बहाकर लाई हूँ। पेशवा का राज्य सारे संसार में नहीं है।”
नारायण - “परंतु जात-पात का राज्य तो है।”
छोटी - “आप कहा करते हैं कि वैष्णव हो जाने पर जात-पात का भूत भाग जाता है।”
नारायण - “मैं ग़लत नहीं कहता हूँ। चलो। यही वेश हमारी रक्षा करेगा।”
वे दोनो चले गए, और फिर पेशवा को उनका पता नहीं लगा।
उधर रोज़ को पहली जून के दिन ही, खबर मिल गई कि ‘बलवाई’ ग्वालियर की ओर बढ़ते जा रहे हैं। कालपी की जीत के उपरांत वह छुट्टी लेकर बम्बई जा रहा है। इस खबर के पाते ही उसने अपनी छुट्टी काट दी और जगह जगह से दलपतियों को ग्वालियर की ओर बढ़ने का आग्रह समाचार भेज दिया। चार जून को उसे समाचार मिला कि ग्वालियर का पतन हो गया और राजा तथा दिनकर राव आगरा भाग गए। सन्नाटे में आ गया। कालपी की इतनी बड़ी और बुरी पराजय के उपरांत भी ग्वालियर हस्तगत करने का विचार और साहस कौन कर सकता था? कौन इतना बड़ा मंसूबा गाँठ सकता था? क़िस्में इतना बड़ा हौसला था?
रोज़ ने सोचा, “झाँसी की रानी के सिवाय और कोई नहीं हो सकता। जब तक रानी को नहीं पकड़ा या मारा तब तक हिंदुस्तान में हमारे राज्य की ख़ैरियत नहीं।”
दृढ़ता के साथ रोज़ अपने काम में जुट गया।
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इन उत्सवों का प्रतिरोध करने के लिए रानी ने पेशवा से भेंट करने का प्रयत्न किया, परंतु वहाँ नाच से छूती मिली तो भंग और निद्रा, और भंग निद्रा से निस्तार पाया तो नाचरंग। तात्या इस नाचरंग में डूब तो गया ही, उसको यह घमंड भी हो गया कि कोई भी अंग्रेज जनरल उसका मुक़ाबिला नहीं कर सकता।
निदान एक दिन तीसरे पहल रानी को ऐश्वर्य प्रमत्त पेशवा से थोड़ी देर की भेंट प्राप्त हो गई। रानी उदास थी और क्षुब्ध। पेशवा सोकर उठा था। रात की खुमारी और सवेरे की भंग की छाय अब भी शेष थी। आखें लाल थी और शरीर अंगडाइयां। चाहता था। अभिवादन के बाद उसने रानी से कहा, “बड़ी गर्मी पड़ रही है। न दिन चैन है, न रात।”
“कभी कभी बदली हो जाती है दस, पाँच दिन में वर्षा हो उठेगी।”
“अभी तो नक्षत्र तप रहे हैं।”
“परंतु इन्ही दिनों में छत्रपति और पंत प्रधान सबसे अधिक पराक्रम दिखलाया करते थे।”
“आपने भी तो इन्ही दिनों वह कर दिखलाया जो ग्वालियर के महाराज और अंग्रेज कभी न भूलेंगे।”
“अर इन्ही दिनों हमारे आपके ऊपर विपद के बादल उठ रहे हैं, जो थोड़े दिनों में कष्टों की मूसलाधार बरसावेंगे।”
“हमारी सेना डटकर लड़ेगी। तब तक पानी बरस पड़ेगा। नदी नाले ऐसे चढ़ेंगे कि दुश्मन हमारा कुछ भी न कर सकेंगे।”
“ये ही नदी नाले हम लोगों को भी निरुपाय और असमर्थ कर डालेंगे। सेना में वैसे ही काफ़ी अव्यवस्था है। फिर तो वह अकर्मण्य होकर निस्तेज ही हो जाएगी।”
“अपने पास इतना बड़ा क़िला तो है, बाईसाहब।”
“और यदि क़िला छिन गया तो?”
“तब निस्संदेह हम लोग सब व्यर्थ हो जाएँगे।”
“अंग्रेजों की पलटनें सब दिशाओं से अपने ऊपर टूटने के लिए आ रही हैं। थोड़ा सा ही समय रह गया है। अपनी सेना को छावनी बंद कीजिए। क़ायदा बरतिए। क़िले में बंद होकर लड़ने की बात मत सोचिए। अंग्रेज़ी फ़ौज का आगे बढ़कर सामना कीजिए और सबसे प्रथम सिंधिया की इस सेना को अपने सरदारों में बाँटकर कड़ा अनुशासन जारी कर दीजिए।”
“हो जाएगा बाईसाहब, सब हो जाएगा। इस समय भी कुछ आवश्यक काम ही हो रहा है। धर्म की नींव पर ही सब कुछ टिकता है। धर्म ही विजय का कारण होता है। इसलिए धर्म कराया जा रहा है। ब्राह्मण भोजन से विजय का आशीर्वाद मिलेगा। दूर दूर के ब्राह्मण भोजन और दक्षिण के लिए उमड़े चले आ रहे हैं। इनका आशीर्वाद क्या विफल जाएगा?”
“मैं नहीं कहती कि भोजन मत करवाइए, परंतु सेना के सुप्रबंध और आगे बढ़कर अंग्रेजों से मोर्चे ले लेने के संगठन को उतना ही महत्व तो दीजिए।”
“आप हैं। तात्या है। बाँदा के नवाब साहब है। आप लोगों के रहते अंग्रेज हमारा क्या बिगाड़ सकते हैं?”
“अंग्रेज अत्यंत चालाक और उद्योगशील हैं। जो समय आप नाच रंग को देते हैं, उस समय को वे लोग अपनी योजनाओं के सृजन में व्यस्त करते हैं।”
“अपनी योजनाएँ तो बनी बनायी रक्खी हैं। और क्या करना है? एक बात शेष थी, वह हो गई। जनता और फ़ौज राजा के सिवाय और किसी का नायकत्व ग्रहण नहीं करती, सो मैंने पेशवाई स्वीकार कर ली है। जब तक ऐसा न करता तब तक जन सामान्य मुझको एक साधारण जन समझता और हम लोगों के नायकत्व को मानता ही नहीं।”
“आप में ये बड़े परिवर्तन देखकर मुझको अचंभा होता है।”
“कौन से परिवर्तन?”
“भंग, नाच रंग, दिन में दीर्घ निद्रा।”
“बाईसाहब, पेशवाई स्वीकार करने के बाद उत्सवों का, दरबारों का करना अनिवार्य हो गया। अन्यथा लोग काटे थे, ये कैसे राजाओं के राजा जो चुपचाप सिंहासन पर बैठकर, चुपचाप महल में जा बैठे। यहाँ के सरदार नृत्यगान के लालची हैं। उनका मन भरना आवश्यक था। करना पड़ा। इन सरदारों की सहानुभूति के बिना काम नहीं बनता।”
“कितने दिन और चलेगा यह सब?”
“बस थोड़े दिन, बहुत थोड़े दिन। परंतु ब्राह्मण भोजन दान पुण्य निरंतर जारी रहेगा। धर्म के आशीर्वाद से जो स्वराज्य स्थापित होगा वह अक्षय होगा। छत्रपति भी कर्मकांड को बहुत मानते थे, सो आप भी जानती हैं, और धर्म के विषय में आपसे बात करने का में अधिकारी ही क्या हूँ?”
“धर्म की गति को तो महात्मा लोग ही जानते हैं। मैं तो केवल यह कह सकती हूँ कि ब्राह्मण भोजन दान पुण्य इत्यादि के साथ सेना का तुरंत अच्छा प्रबंध करिए। उन्हें कुछ काम दीजिए और उत्सव। इत्यादि तुरंत बंद कर दीजिए।”
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रानी के समझाने पर भी राव साहब न माने। भंग और नाचरंग का वही क्रम जारी रहा। लड्डुओं और श्रीखंड के लिए इतनी शक्कर खर्च होने लगी कि सिपाहियों को भंग के लिए उसका मिलना दुर्लभ हो गया। श्रीखंड के लिए दही की इतनी माँग हो गई कि मट्ठा अप्राप्य हो गया।
ब्राह्मण भोजन और दानपुण्य की आड़ में बेहिसाब भिखमंगी बढ़ गई। कोई प्रतिबंध या प्रबंध न था, इसलिए अनेक सिपाही भी इस मुफ़्तख़ोरी में सन गए।
रानी लक्ष्मीबाई ने देखा कि जब वे अपने क़िले में घिर गई थी तब स्वतंत्र थी, और ग्वालियर में स्वछंद होते हुए भी उनकी दशा एक क़ैदी की सी है।
रानी का स्वभाव था कि वे जहां जाती थी, उसके चौगिर्द का बारीकी से साथ निरीक्षण करती थी। इस निरीक्षण से उनको युद्ध के लिए मोर्चे बनाने में बड़ी सुविधा होती थी। उनकी रणनीति में इस क्रिया का विशेष स्थान था।
उन्होंने देखा कि ग्वालियर का क़िला और पश्चिम दक्षिण की पहनियाँ ग्वालियर की बस्ती और लश्कर के नगर की अच्छी रक्षा कर सकती हैं। पूर्व की ओर पहाड़ियों का सिलसिला लश्कर से लगभग दो मील पड़ता था - यह भी रक्षा का साधन हो सकता था, परंतु उत्तर पूर्व में मुरार की ओर दिशा खुली पड़ी थी। उसको ढकने के लिए सोनरेखा नाम का केवल एक नाला था, जो लश्कर को तीन ओर से घेर कर कतराता हुआ मुरार कि ओर चला गया था। परंतु यह कोई बड़ा साधन न था, उल्टे कुछ अड़चन डाल सकता था। इसके सिवाय दक्षिणवर्ती पहाड़ियों का क्रम, जिसके अगले भाग पर दुर्गा का मंदिर था, शत्रुओं के लिए भी लाभदायक हो सकता था, और, पूर्व की ओर की पहाड़ियाँ यदि शत्रु की तोपों के लिए मिल जाएँ तो लश्कर का नगर और ग्वालियर तथा मुरार की बस्तियाँ पूरे संकट में आ जाएँ। उनकी इच्छा थी कि यदि पेशवा की सेना के दस्ते सब ओर से बढ़ती हुई आने वाली अंग्रेज़ी सेनाओं का का आगे जाकर मुक़ाबिल न करे तो कम से कम इन पहाड़ियों पर यथास्थान तोपख़ाने तो लगा लाइन। परंतु वहाँ भंग की तरंग और श्रीखंड की अखंडता में उनकी सुनता ही कौन था?
इस निरीक्षण के सिलसिले में उनको एक बाबा गंगादास का पता चला। इनकी कुटी सोन रेखा नाले से उत्तर की ओर कुछ दूरी पर हटकर थी - क़िले के दक्षिणी छोर से पूर्व की दिशा में। बाबा गंगादास की कुटी फूस और लकड़ी छान छप्पर की थी। निरीक्षण करते करते रानी को प्यास लगी। बाबा ने पानी पिलाया। उस समय उनो मालूम हुआ कि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हैं। उन्होंने बाबा की आँखों में शांति का एक अद्भुत आकर्षण देखा।
पेशवा के अनसुनी कर देने के दिन से उनका माँ खिन्न सा रहने लगा था। निरीक्षण करती थी, लड़ाई के नक़्शे बनाती थी, अपने सिपाहियों को क़वायद परेड करती थी, और समय पर पूजन ध्यान करती थी, परंतु मन का अनमनापन नहीं जाता था।
संध्या होने में विलम्ब था। लू तेज चल रही थी। रानी मुंदर के साथ स्त्री वेश में बाबा गंगदास की कुटी पर पहुँची। घोड़े एक पेड़ से बांध दिए गए। बाबा के सामने पहुँच कर नमस्कार किया। बाबा ने आसन दिया। ठंडा पानी पिलाया।
रानी ने कहा, “मैं आपसे कुछ पूछने आई हूँ। मेरा मन अशांत है। आपके उत्तर से शांति मिलने की आशा है।”
बाबा बोले, “मैं रामभजन के सिवाय और कुछ जानता ही नहीं हूँ।”
रानी - “आप ब्राह्मण भोजन में गए?”
बाबा - “नहीं गया। यही बहुत खाने को मिल जाता है।”
रानी - “इसीलिए आपके पास आई। आप ताल नहीं सकेंगे। बतलाना होगा। आपने अकेले अपने मन को शांत कर लिया तो क्या हुआ? हम लोगों को भी शांति दीजिए।”
बाबा - “पूछो बेटी। यदि समझ में आ जाएगा तो बटला दूँगा।”
रानी - “यहाँ थोड़े दिनों में युद्ध होने वाला है। आपकी कुटी का स्थान रक्षित नहीं है। किसी सुरक्षित स्थान में चले जाइए।”
बाबा - “सयरक्षित है। बात पूछो।”
रानी - “इस देश को स्वराज्य कैसे प्राप्त होगा?”
बाबा - “इस प्रश्न का उत्तर तो राजा लोग दे सकते हैं।”
रानी - “नहीं दे सकते, तभी आपसे पूछने आयी हूँ।”
बाबा - “जैसे प्राप्त होता आया है, वैसे ही होगा।”
रानी - “कैसे बाबा जी।”
बाबा - “सेवा, तपस्या, बलिदान से।”
रानी - “हम लोग कैसे स्वराज्य स्थापित कर पावेंगे?”
बाबा - “गड्ढे कैसे भरे जाते हैं? नींव कैसे पूरी जाती है? एक पत्थर गिरता है, फिर दूसरा, फिर तीसरा और चौथा, इसी प्रकार और। तब उसके ऊपर भवन खड़ा होता है उन्ही के भरोसे - जो नींव में गड़े हुए हैं। वह गड्ढा या नींव एक पत्थर से नहीं भरी जाती। और, न एक दिन में। अनवरत प्रयत्न, निरंतर बलिदान आवश्यक है।”
रानी - “हम लोगों के जीवनकाल में स्वराज्य स्थापित हो जाएगा?”
बाबा - “यह मोह क्यों? तुमने आरम्भ किए हुए कार्य को आगे बाधा दिया है। अन्य लोग आएँगे। वे इसको बढ़ाते जाएँगे। अभी कसर है। स्वराज्य सस्थापना के आदर्शवादी अपने अपने छोटे छोटे राज्य बनकर बैठ जाते हैं। जनता और उनके बीच का अंतर नहीं मिटता - घटता ही बहुत कम है। जनता त्रस्त बनी रहती हैं। जब जनता का पूरा सहयोग राज्य को प्राप्त हो जाय और राजा टीमटाम तथा विलासिता का दासत्व छोड़कर प्रजा जा सेवक बाँ जाय तब जानो स्वराज्य की नींव भर गई और भवन बनना आरम्भ हो गया। शाश्वत धर्म का रूप बिगाड़ गया है। इसके सुधार की बिना वह भवन खड़ा न हो पाएगा।”
रानी - “हम लोग प्रयातन करते रहे?”
बाबा - “अवश्य। तुम तो भगवान कृष्ण और गीता की भक्त हो।”
रानी - “आपने कैसे जाना?”
बाबा मुस्कुराए। बोले, “सब कहते हैं।”
रानी - “मैं पाठ करती हूँ, परंतु समझते तो आप महात्मा लोग ही हैं।”
बाबा - “गृहस्थ से बढ़कर और कोई साधु नहीं। मुझसे कुछ और नहीं हो सका, इसलिए कुटी बना ली।”
सूर्यास्त होने को आया। रानी को संध्या ध्यान का स्मरण हुआ। कहा, “बाबाजी, फिर कभी दर्शन करूँगी। आपकी इतनी बात से चित्त जो बहुत शांति मिली।” और नमस्कार करके चली गई।
मार्ग में मुंदर ने कहा, “सरकार भी इन्ही बातों को बतलाया करती हैं।”
“परंतु” रानी बोली, “बाबा की समान होने में बहुत देर है।”
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राव साहब पेशवा का ऐश आराम और ब्राह्मण भोजन जारी रहा। जनरल रोज़ ने उद्योग ने पहले की अपेक्षा और अधिक सबलता पकड़ी।
रोज़ ने अपनी सेना के कई भाग करके अनुभवी अफ़सरों के सुपुर्द किया। ब्रिगेडियर स्मिथ को ग्वालियर के पूर्व की ओर पाँच मील पर कोटे की सराय भेजा। एक अफ़सर की ग्वालियर और आगरे के मार्ग पर स्वयं वक प्रबल दल लेकर कालपी से ग्वालियर की ओर ६ जून को बढ़ा।मार्ग में उसको ब्रिगेडियर ससैन्य मिल गया। १६ जून को जनरल रोज़ बहादुरपुर ग्राम पर आ गया, जहां जियाजी राव की हार हुई थी। जनरल रोज़ के साथ मध्य भारत और ग्वालियर के पोलिटिकल एजेंट भी थे। इन्होंने इस बीच में एक चाल खेली - जियाजी राव और दिनकर राव को आगरे से बुलवा लिया।
मुरार में पेशवा की सेना काफ़ी थी, बाक़ी इधर उधर बिखरी हुई पड़ी थी। इनमें से अधिकांश सैनिक सिंधिया की सेना के ही नौकर थे। यदि ये बारह तेरह दिन नष्ट न किए गए होते और यदि इन सैनिकों को विभक्त करके अपने विश्वसनीय दलपतियों की अधीनता में, शुरू से ही उनका अनुशासन मय संसर्ग स्थापित कर दिया गया होता, तो बात न बिगड़ती।
जनरल रोज़ ने दो घंटे की कड़ी लड़ाई में पेशवा की मुरार वाली सेना को हारा दिया और मुरार को क़ब्ज़े में कर लिया। पेशवा की यह पराजित सेना भाग कर ग्वालियर फ़ौज के थे, माफ़ी का आश्वासन दिलवाया और यह लिखित घोषणा प्रकाशित करवाई कि अंग्रेज ग्वालियर के राजा को पुनः गद्दी दिलवाने के लिए ही लड़ने आए हैं। सरदारों और सैनिकों में फूट पड़ गई। उनके मन फिर गए। उत्सवों की रिश्वत बेकार गई।
पेशवा, बाँदा के नवाब क़िंकर्तव्यविमूढ हो गए। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें।
तब झाँसी की रानी की याद आई, परंतु उनके पास जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी - कैसे मुँह दिखलाएँ?”
तात्या को भेजा।
तात्या कलेजा साधकर उनके सामने गया। उस समय उनके पास जूही और मुंदर थी, तात्या ने नमस्कार के उपरांत हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
“क्या बात है, सरदार साहब?” रानी ने व्यंग्य किया, “ये तोपें कहाँ चल रही थी?”
तात्या ने विनीत भाव से कहा, “अब क्षमा प्रार्थना तक का समय नहीं है बाईसाहब।”
रानी बोली, “क्या भंग छनने का भी समय नहीं? एक तान भी सुनने के लिए समय नहीं?”
तात्या उनके पैरों पर गिरने को हुआ, “रक्षा करो देवी।”
रानी ने उसको बीच में ही पकड़ लिया।
जूही बोली, “सरकार क्षमा कर दीजिए।”
रानी मुस्कराई।
“तात्या” , उन्होंने कहा, “तुम से मुझको बड़ी बड़ी आशाएँ थी। अब भी बहुत कुछ कर सकोगे, परंतु दृढ़ हो जाओ तो।”
तात्या बोला, “जो जो आज्ञा होगी उसका टन मन से पालन करूँगा। आपको कभी उलाहने का अवसर न दूँगा।”
रानी ने उठती हुई साँस को दबा कर कहा, “मेरा कदाचित यह अंतिम युद्ध होगा। क्यों मुंदर, स्मरण है बाबा गंगादास ने क्या कहा था?”
जूही बोली, “कदापि नहीं सरकार।”
रानी ने गम्भीर सवार में कहा, “स्वराज्य के भवन की नींव एक दो पत्थरों से नहीं भरेगी।”
तात्या अधीर होकर कातरता के साथ मुँह ताकने लगा।
रानी फिर मुस्कुराई। तात्या को आश्वासन दिया, “घबराओ नहीं। पेशवा से कहो कि धैर्य से काम ले। जो योजना बतलाती हूँ, उसके अनुसार काम करे। कदाचित विजय प्राप्त हो जाय। न भी हो तो युद्ध सामग्री और सेना को दक्षिण की ओर से चलने का प्रबंध रखना। तुम इस क्रिया के आचार्य हो।”
रानी ने तात्या को थोड़े समय में भी अपनी योजना, विस्तार पूर्वक समझा दी और फिर अपने पाँचो सरदारों की बुद्धि में बिठला दी।
ग्वालियर की पूर्वीय ओर की रक्षा का भार रानी ने स्वयं लिया। पूर्वीय पहाड़ियों पर जहां तक अंग्रेजों का अधिकार नहीं हो पाया था, तोपख़ाने, पीछे पैदल और रिसाले का यत्र तत्र क्रमिक मोर्चा रक्खा गया। सबसे आगे और बीच बीच में अपनी लाल कुर्ती से सवार। अग़ल बग़ल की पहाड़ियों पर तोपें दक्षिण दिशा तक। उत्तर का भार तात्या के ज़िम्मे किया गया। उसने रुहेली और अवधि सेना के भग्नावेश पर अपना दस्ता बनाया था। इस दस्ते को तोपों सहित तात्या ने जमाया।पश्चिम का भार राव साहब के ऊपर रक्खा गया। इसके साथ अधिकांश सिंधिया वाली फ़ौज थी। शहर के भीतर बाहर की रक्षा के लिए ज़्यादा चिंता में नहीं पड़ना पड़ा। तोपें गोलंदाज और कुछ सिपाही काफ़ी समझ गए, क्यों की बिना किसी बड़े और विशेष कारण के क़िले में बंद होकर लड़ना मराठी युद्ध प्रणाली के विरुद्ध था।
रानी ने अपने सवारों की क़वायद ली, और उनको काम की सब बात समझा दी।
१७ जून को सवेरे ब्रिगेडियर स्मिथ ने लड़ाई का बिगुल बजाय। लड़ाई आरम्भ हो गई। ब्रिगेडियर स्मिथ का आक्रमण कोटा की सराय से शहर पर होना था, पूर्व दिशा से, जहां लक्ष्मीबाई का मोर्चा था। जैसे ही अंग्रेज़ी सेना रानी की तोपों की मार के भीतर आई, रानी ने गोलंदाज़ों को संकेत दिया। रानी के लाल कुर्ती सवारों ने तुरंत छापा मारा। स्मिथ ने एक चतुर चाल खेली - उसने अपनी उस टुकड़ी को और अधिक पीछे खींचा और रानी के सवारों को आगे बढ़ने दिया। इन सवारों के ज़्यादा आगे निकल जाने से उनका स्थान ख़ाली हो गया। स्मिथ ने कई दिशाओं से रानी के मोर्चों पर आक्रमण किया। घमासान युद्ध हुआ। तलवार चली। लोहे ने लोहे से चिंगारियाँ छुटकाई। स्मिथ ने रानी के पार्श्व पर अपनी दो पलटनें और फेंकी जो अभी तक चुपचाप खड़ी थी, रानी के सवारों को पीछे हटना पड़ा। ब्रिगेडियर स्मिथ ने अपने सामने की पाटों को फोड़कर रिसाले समेत बढ़ने का संकल्प किया। उद्देश्य था फूल बाग पर अधिकार करने का।
सपने सवारों को पीछे हटाता देखकर रानी घोड़े को तेज करके तुरंत उनके समीप पहुँची। गुलमुहम्मद दिखलाई दिया। उसके पास घोड़ा दौड़ा कर बढ़ते हुए अंग्रेजों की ओर तलवार की नोक करके बोली, “खां, आज हाथ ढीला क्यों पड़ रहा?”
गुल मुहम्मद चिल्लाकर बोला, “हुज़ूर अमारा हाथ अब मुलाहिज़ा करे।”
पठान सरदार चिल्लाता हुआ, रेल पेल करना हुआ, लाल कुरतियों को बढ़ावा देता हुआ, आगे फिंका। रानी साथ में।
गुल मुहम्मद ने प्रखर सवार में रानी से प्रार्थना की, हुज़ूर जूही सरदार का तोपख़ाना ठीक करे।”
रानी लौट पड़ी। एक टौरिया के पीछे जूही तोपख़ाना की मार को जारी किए थी, परंतु लाल कुर्ती को पीछे हटा देख कर हड़बड़ा गई थी। गोरा रिसाला उसकी ओर बध रहा था।
“जूही”, रानी ने आदेश दिया, “तोप का मुहर एक अंगुल नीचा कर।”
“जो आज्ञा” उसने उत्साहित होकर कहा, और अपने साथियों की सहायता से तुरंत वैसा ही किया।
“मार” , रानी ने दूसरा आदेश दिया। तोप ने धायं किया। गोरे सवार बिछ गए।लौट पड़े।
रानी दूसरे स्थल पर पहुँची। वे जहां पहुँचती वहीं अपने सिपाहियों पर तेज छिटक देती।
यद्दपि उनके योद्धाओं की संख्या कम थी, परंतु वे उनके प्रति अटल विश्वास रखते थे। फिर बढ़े। उनको रानी उनके साथ। दोनों हाथों एक सामान कौशल और शक्ति के साथ तलवार चलाने वाली।
अंग्रेज वीरता के साथ लड़े और बहुत मरे। रानी के उन थोड़े दे लाल कुर्ती सवारों ने तो कमाल ही कर दिया। यथावत आज्ञा का पालन करते हुए उन लोगों ने अंग्रेजों के छक्के छूटा दिए। ब्रिगेडियर स्मिथ को रानी ने उस दिन की चालों में और शूरवीरी में मात दी। स्मिथ उनके व्यूह को न भेद सका। उनको लक्ष्मी के मुक़ाबिले में हार कर लौटना पड़ा। अंग्रेजों ने उस दिन का युद्ध बंद करके दम ली।
रानी ने उस दिन निरंतर परिश्रम किया था और उनके सरदारों ने भी। इस पर भी उन्होंने रात को काटो समय तक अथक परिश्रम किया - योजनाएँ सुधारी, परिवर्तित की, सलाह सम्मति दी, उनके जिन योद्धाओं ने उस दिन ने युद्ध में कोई विशेष कार्य किया था, उनको शाबाशी दी, और पुरस्कार दिए। और गुल मुहम्मद को कुंवर की उपाधि प्रदान की।
ग्वालियर की सेना पर जयाजी राव की उस घोषणा के कारण प्रभाव पड़ चुका था, परंतु उस दिन सेना ने कोई औंस स्पष्ट काम नहीं किया जिससे उस पर तात्या या पेशवा को अविश्वास होता परंतु रानी को संदेह था। तात्या और रावसाहब ने निवारण किया। अविश्वास करने से अब होता भी क्या था? लाचार होकर दूसरे दिन के युद्ध में वे ही साधन काम में लाने पड़े जो उनको उपलब्ध थे।
Part #28 ; Part #30
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