Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 28 - Vrindavan Lal Verma
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राव साहब के पास रईस और सरदार काफ़ी थे, परंतु सेना बहुत काम थी। तोपें नहीं थी, सामान नहीं बचा था। और व्यवस्था तो कभी भी न थी।
दिन भर लू चली। रात को भी काफ़ी गरम हवा चल रही थी, रारें धूल की पतली चादर से ढके हुए थे। गोपालपुरा के एक बगीचे में राव साहब, तात्या, बाँदा के नवाब इत्यादि आगे की योजना के आकार प्रकार बना बिगाड़ रहे थे। रात अंधेरी थी। पास में कोई उजाला न था। इसलिए किसके चेहरे पर क्या गुजर रही थी, कोई नहीं देख सकता था।
रानी लक्ष्मीबाई अपने शिविर में थी। उस दरबार में न थी।
राव साहब ने कहा, “किसी प्रकार नागपुर की ओर पाहुँच पावें तो शीघ्र सैन्य संग्रह हो। इंदौर की छावनी से भी सहायता मिले।”
बाँदा के नवाब ने अपनी घबराहट प्रकट की, “हैदराबाद के निज़ाम के मारे नागपुर के पड़ौस में ठहर पाना दूभर हो जाएगा। “
तात्या बोला, “निज़ाम का कोई भय नहीं। वहाँ की जनता तुरंत हमारा साथ देगी।”
राव साहब, “वहाँ से महाराष्ट्र सरक जाने में बड़ा सुभीता रहेगा। पहाड़ियाँ, क़िले, घाटियाँ और नदियाँ बारगी और भूबँधी दोनो प्रकार की लड़ाइयों के लिए बहुत उपयोगी है।”
नवाब - “परंतु वहाँ तक पहुँचेंगे कैसे?”
तात्या- “पहुँचाने का ज़िम्मा मैं लेता हूँ।”
नवाब - “जासूसों से जो खबरें मिली हैं, उनसे हर हालत में इस नतीजे पर पहुँचने के लिए विवश हूँ कि हम लोग पिंजड़े में फँस गए हैं।”
राव साहब - “अवध की तरफ़ चलना ज़्यादा अच्छा होगा। अवध पास है। मार्ग सीधा है। वहाँ की जनता अदम्य है। लखनऊ का पतन हो गया तो क्या हुआ। नाना साहब अभी वहाँ हैं। बेगम साहब भी हैं।
तात्या - “अवध में हम लोग बहुत काम कर सकते हैं। एक बाधा अवश्य है।”
राव साहब - “वह क्या?”
तात्या- “उस प्रदेश में क़िले बहुत कम हैं।”
नवाब - “एक बड़ी बाधा और है। अंग्रेजों की बेशुमार पलटनें अवध में फैल गई हैं, और ज़्यादा कलकत्ते से आ रही हैं।”
एक सरदार - “मेरी समझ में तो यह आता है कि छूती छोटी टुकड़ियों में बाँट कर, इधर उधर फैल जाओ और अंग्रेज़ी इलाक़े की लूटमार शुरू कर दो। “
दूसरा सरदार - “और नए नए लोगों को इन टुकड़ियों में भर्ती करते जाओ। एक दिन काफ़ी बड़ी सेना बिना परेशानी के अपने पास हो जावेगी तब हम लोग अंग्रेजों को चित्त कर देंगे।”
तात्या - “इसमें कितने दिन लगेंगे?’
राव साहब - “समय की चिंता क्या है? अंग्रेज़ी सेना में फिर जोई बलवा होगा। तोपें हाथ आ जाएँगी और काम बन जाएगा।”
नवाब - “लेकिन तोपें अब हिंदुस्तानी फ़ौज के हाथ में कभी नहीं आवेगी। तोपख़ानों को अंग्रेज अपने हाथ में रखने लगे हैं।”
एक सरदार - “परंतु जनता के पास तो हथियार हैं।”
नवाब - “जब तक आप फ़ौज इकट्ठी करेंगे तब तक अंग्रेज लोग सारी जनता के हथियार अपने मालखाने में रखवा लेंगे।”
राव साहब - “कहीं कालपी फिर वापिस मिल जाय तो सब दिक़्क़तें दूर हो जाएँ।”
नवाब - “हम तो चाहते हैं कि दिल्ली और लखनऊ भी हाथ में आ जाएँ, मगर चाहने से होता क्या है?”
सरदार - “मेरा कहना मानिए। टुकड़ियों में बंटकर लूटमार शुरू कर दीजिए।”
तात्या - “जनता साथ न देगी।”
राव साहब - “तुम अवध के लड़ाकों को भर्ती करके यहाँ ले आओ।”
तात्या - “जो आज्ञा।”
नवाब - “लेकिन इसमें तो वक्त लगेगा, और, तब तक हम आप क्या करेंगे?”
राव साहब - “तो फिर राजा बखतबली और राजा मर्दन सिंह को बुंदेलखंडी सेना सहित फिर बुलवाओ।”
नवाब - “उनको हमारा साथ देना होता तो गोपालपुरा में आ कभी के आ जाते।”
राव साहब - “तब फिर क्या किया जाय।”
सरदार - “राजपूताने की तरफ़ चलिए। वहाँ की छावनियों ने अभी तक कुछ नहीं किया है।”
तात्या - “वहाँ की छावनियाँ बहुत करके अपना साथ देंगी।”
राव साहब - “मेरा मन दक्षिण भारत के लिए बहुत बोलता है।”
नवाब - “परंतु वहाँ पहुँचा कैसे?”
तात्या - “में पहले ही निवेदन कर चुका हूँ कि पहुँचा मैं दूँगा।”
नवाब - “मैं भी ज़रा पहले अर्ज़ कर चुका हूँ कि झाँसी, सागर सीहौर वग़ैरह में बहुत सी अंग्रेज़ी फ़ौज है और हम यहाँ पिंजड़े में फँस गए हैं।”
सरदार - “तब फिर अंग्रेजों के हाथ अपने को सौंप दिया जाय?”
नवाब - “वह तो मैंने हरगिज़ नहीं कहा।”
राव साहब - “यदि तात्या महाराष्ट्र में जाकर जनता को जाग्रत कर दे तो अंग्रेज़ वहाँ उलझ जाएँगे और तब हम सरपट महाराष्ट्र में पहुँच सकते हैं।”
नवाब - “लेकिन फिर वही सवाल उठता है कि तब तक हम लोग यहाँ क्या करें?”
तात्या- “रानी साहब की राय ली जाय।”
राव साहब - “मैं रानी साहब की राय की बहुत क़दर करता हूँ। वें बहुत अच्छी सैनिक हैं और लड़ाई के मैदान में विजय भी प्राप्त कर सकती हैं, परंतु स्त्री हैं और जितना संसार हम लोगों ने नापा है उतना उन्होंने नहीं।”
नवाब - “इस पर भी उन्होंने दस महीने खूबी के साथ झाँसी का राज्य किया। ऐसा कि प्रजा उन पर कुरबान हो गई।”
राव साहब - “यह सब ठीक है, बिलकुल ठीक है। सलाह लेने में कोई हर्ज नहीं। मानना न मानना अपने हाथ में हैं।”
तात्या - “उनको सबेरे लिवा लाऊँ?”
सरदार - “सवेरे ज़रा बाद। सवेरा होने में बहुत देर भी नहीं है। वे अपने भजन पूजन से निवृत्त हो जाएँगी, तब तक अपन लोग ज़रा नशा पत्ता करेंगे। कई दिन से नहीं छानी है। कहीं से कोई अच्छी सलाह न मिली तो विजय भवानी सिर पर चढ़कर सब कुछ बोल बता देगी।”
रायसाहब - “बड़ा अच्छा है। अभी अंगरे हम लोग लोगों से काफ़ी दूर हैं। हवा पर बैठकर तो आए नहीं जाते। परंतु भाई गहरी न छने नहीं तो रानी साहब कुछ ज़्यादा डाँट फटकार करेंगी।”
इसी तरह रात भर यह विवाद जारी रहा, परंतु ये लोग किसी भी निश्चय पर न पहुँच सके।
प्रातः काल के उपरांत तात्या रणो को लिवा लाया। तात्या ने उनको रात के अधिवेशन का संक्षेप में वृतांत सुना दिया था।
लोग भंग पीकर निवृत हो गए थे, हुक्के गुड़गुड़ा रहे थे कि वे आ गई। लोग उनका अदब करते थे, इसलिए हुक्के हटा दिए गए।
पेशवाई सेना की अधोगति का उनको पता था। तो भी उन्होंने अपने क्षोभ को दबाकर परिस्थिति को भली भाँति समझने के लिए प्रश्न किए जो उत्तर मिले उनका निचोड़ वही था जो रात कि बैठक में वादा के नवाब ने बतलाया था - “हम लोग पिंजड़े में फँस गए हैं।”
रानी ने कहा, “अब तक हम लोग जहां जहां अंग्रेजों से जम कर लड़ पाए, वहाँ वहाँ किलों का आश्रय लेकर। फिर किसी मज़बूत क़िले को हाथ में करना चाहिए। तोपें सहज ही ढल जाएगी। काम चालू हो जाएगा।”
राव साहब - “परंतु झाँसी और कालपी के क़िले तो फिर नहीं मिल सकते - कम से कम अभी हाल हाथ नहीं आ सकते।”
रानी - “इनको कुछ दिन विचार से अलग रखिए।”
तात्या - “नरवर का क़िला बहुत अच्छा है। निकट सिंध नहि है। आसपास पहाड़ जंगल है।”
नवाब - “करेरा का क़िला भी अच्छा है।”
रानी - “न”
राव साहब- “तब फिर कौन सा क़िला?”
रानी - “ग्वालियर का। वही यहाँ से अत्यंत निकट है।”
राव साहब - “ग्वालियर का क़िला!”
नवाब - “ग्वालियर का!”
रानी - "हाँ “ग्वालियर का। ग्वालियर की वस्तुस्थिति का पुनः अनुसंधान करके तुरंत ग्वालियर पर आक्रमण कर देना चाहिए। राजा और वहाँ के दो तीन सरदार अंग्रेज कम्पनी के पक्षपाती हैं। परंतु सेना और जनता नहीं है। सेना यदि हमारा पक्ष प्रबलता के साथ न भी पकड़ेगी तो ढुलमुल अवश्य रहेगी। ग्वालियर में बनी बनाई, साजी सजाई, बधिया तोपें, गोले, गोली, सैंकड़ों मन बारूद और अन्य प्रकार की युद्ध सामग्री तथा अटूट कोश है।”
नवाब - “लेकिन “
राव साहब - “हाँ परंतु “
रानी - “किंतु, परंतु, कुछ नहीं। बिना क़िले के कोई भी प्रयास आत्मवध के सामान होगा, और सिवाय ग्वालियर के क़िले के हमारे लिए सब क़िले इस समय स्वप्न हैं।”
राव साहब - “बात तो ठीक कह रही हैं बाई साहब, आप भी सोचिए नवाब साहब। क्यों तात्या?”
नवाब - “मैं रानी साहब की राय को मांने के लिए तैयार हूँ। लेकिन ग्वालियर की सेना या कुछ सरदारों को, चढ़ाई के फले मिला लेना चाहिए।”
तात्या - “वहाँ का हाल मुझको मालूम है। माहूरकर, बलवंतराव और दिनकर राव दीवान के सिवाय और सब सरदार स्वराज्य स्थापना के पक्ष में हैं। सेना का काफ़ी अंश हमारा साथ देगा।”
रानी - “एक बार फिर जाओ। शीघ्र जाऊँ और पूरा पता लगा कर शीघ्र आओ।”
राव साहब - “शीघ्रता के लिए तो तात्या शेरों का शेर है।”
आज्ञा पाकर तात्या तुरंत ग्वालियर की ओर रवाना हुआ।
83
संध्या होते ही रानी देर के लिए ध्यान मगन हुई। ध्यान के उपरांत वे शिविर के बाहर निकली थी कि रामचंद्र, देशमुख, रघुनाथ सिंह और गुल मुहम्मद आ गए।
रानी के पास उस समय लालकुर्ती वाले केवल दो सौ सवार रह गए थे। हिंदू और मुसलमान। इस रिसाले के प्रधान सेनाध्यक्ष रानी थी और उनके आधीन यूथपति ये तीन पुरुष और वे दो स्त्रियाँ जिनमें मुंदर तो रानी के साथ छाया की तरह रहती थी। यह छोटी सी सेना उनकी परम भक्त थी और संयम निष्ठ।
रघुनाथ सिंह ने कहा, “सरकार दीवान जवाहर सिंह अपने इलाक़े के बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। उन्होंने “कुछ सेना इकट्ठी की थी। कम्पनी के दस्ते उनको पछिया रहे हैं। वे अब इस ओर शायद ही आ सकें।”
गुल मुहम्मद बोला, “सरकार अम अपने मुलक पहुँच पाए तो इतना पठान लाए कि दुश्मनों को कच्चा चबा जाय।”
देशमुख ने कहा, “सिपाही आगे के हुकुम की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
रानी बोली - “परधान सेंपती राव साहब पेशवा हैं। मैं इस समय कुछ नहीं बटला सकतीं। परंतु शीघ्र कुछ नहीं होगा, यह कह सकती हूँ।”
देशमुख - “अपना रिसाला लड़ने के लिए उकता रहा है।”
रानी - “यह सैनिक का एक दोष है, गुण नहीं। उकताना नहीं चाहिए। उनको समय पर भोजन, आराम, वेतन मिलता जा रहा है?”
उन तीनों ने हाँ में उत्तर दिया।
रानी ने कहा, “किसी समय भी, तनिक सी भी कमी जान पड़े, मुझसे तुरंत कहना। मेरे पास अभी बहुत से हीरे जवाहर हैं। तुम लोगों को और तुम्हारे रिसाले को किसी प्रकार का कष्ट न हो, मैं यही चाहती हूँ।”
“कभी नहीं हो सकता”, कह कर लोग चले गए। भोजन करने के उपरांत रानी ने शयन किया। मुंदर पैर दबाने लगी।
रानी ने पैर खींच कर कहा, “तेरी यह आदत न जाने क्यों नहीं जाती। मेरा शरीर नहीं दुःख रहा है। उस दिन नहीं दुख जब झाँसी से कालपी आई थी। आज तो कोई परिश्रम ही नहीं किया है।”
“हाँ, नहीं जाती”, मुंदर ने हठपूर्वक और इठला कर कहा, “चाहे जैसी पीड़ा सिर पर आ जाय कभी कहती थोड़े ही हैं।”
मुंदर पैर दबाने लगी।
“तो तू क्या जन्म भर मेरे पैर दाबा करेगी?”
“जी हाँ, जन्म भर।”
“रिसाले की कर्नल होकर।”
“जी हाँ, जब एक दिन जनरल हो जाऊँगी, तब भी इन पैरों का दाबना नहीं छोड़ूँगी।”
“पैरों के दबाने वाले जनरल का नाम सुनकर लोग क्या कहेंगे?”
“जिन लोगों को यह न मालूम होगा कि इन चरणों की धूल में जनरल बनाने का गुण है वे भले ही कुछ कहें।”
“कदाचित ऐसा हो, परंतु मेरी वाणी में यह गुण नहीं है। इन लोगों को सम्मति देती हूं। हाँ हाँ कर देते हैं, परंतु करते मनमानी हैं। कालपी का युद्ध क्या हारने योग्य था?”
“इनमें कोई रण पंडित है ही नहीं।”
“एक है - तात्या टोपे, परंतु उसकी चलती नहीं और वह आवश्यकता से अधिक आज्ञानुवर्ती है। प्रतिवाद करना जानता ही नहीं।”
“वे कालपी के युद्ध में नहीं थे। घर चले गए थे।”
“उस समय उनको क्षोभ हो गया था। कारण को उघाड़ना व्यर्थ है! तू जानती है, यदि इन असंख्य सेनापतियों में गाँठ की कोई बुद्धि होती तो इनके व्यसन न खटकते, परंतु व्यसनी हैं और मूर्ख है।”
“यही बात तो जूही कहती है। अपने अन्य सरदार भी कहते हैं।”
“गुल मुहम्मद बात करने में जैसा लट्ठ जान पड़ता है वैसा वास्तव में नहीं है। वह चतुर और वीर दलनायक हैं। वैसे ही देशमुख और रघुनाथ सिंह हैं।”
“हाँ सरकार।”
“एक बात बटला मुंदर।”
“आज्ञा सरकार।”
“तू संसार में सबसे अधिक किसको चाहती है। सच सच कहना।”
“सच कहती हूँ। भगवान जानते हैं - मैं आपको सबसे अधिक चाहती हूँ।”
“मेरे उपरांत किसको?”
मुंदर ने उनको पैर पकड़ लिए। सिर नीचा कर लिया।”
“और कौन है सरकार?”
“नाम बतलाऊँ?”
“नहीं।”
“मुंदर तू विवाह करना।”
“जब सरकार स्वराज्य स्थापित कर चुकेगी तब।”
“स्वराज्य तो देर सेवर स्थापित होगा ही। तू विवाह के लिए क्यों रुके?”
“वह जीवन का मुख्य कार्य नहीं है।”
“यह तेरी इच्छा पर निर्भर है, परंतु मेरी अनुमति है।”
“असम्भव सरकार। मेरा पप्रण है।”
“जूही ने भी प्रण किया है। उस पर मुझको दया आती है।”
“उसने मरणपर्यंत कौमार्य व्रत का प्रण लिया है।”
“असम्भव नहीं है।”
“मैं सरकार से एक बात पूछना चाहती हूँ।”
“पूछ।”
“जितनी निर्भय आप हैं, क्या कोई और भी हो सकता है?”
“अवश्य कुछ कठिन नहीं।”
“सो कैसे?”
“सहज ही। काफ़ी शारीरिक श्रम कर, सहज ही ध्यान और विश्वास से सहज हो जाएगा।”
मदर गदगद हो गई। कुछ क्षण चुप रहने के बाद यकायक बोली, “बाई साहब, मैं आपके समक्ष मार जाऊँ, तो मुझे बड़ा सुख होगा। मोतीबाई की साई मृत्यु की आराधना करती हूं।”
“जो बात मैंने बतलाई वह इससे कहीं बढ़कर है।”
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सन १८४४ में अंग्रेजों ने सिंधिया की सेना को, जो होलकर सिंधिया के परस्पर युद्धों के कारण पहले ही क्षीण हो चुकी है, पराजित किया था। तब से ग्वालियर को केवल दस सहस्र सिपाही रखने का अधिकार रह गया था और तब से लगातार अंग्रेज रेज़िडेंट ग्वालियर का शासन सूत्र अपने हाथ में रक्खे रहा था। सन १८५३ में जयाजीराव को शासनाधिकार मिल गए, परंतु सूत्र रेज़िडेंट के हाथ में रहा। बची खुची सलाह सम्मति के लिए आगरा में लेफ़्टिनेंट गवर्नर था ही!
ग्वालियर में सिंधिया की दस सहस्र सेना के अतिरिक्त, पोषिक एक अंग्रेज़ी सेना भी थी। इस पोष्य (subsidiary) सेना ने भी सन ५७ के विद्रोह में भाग लिया। तात्या यहाँ आया जाया करता ही था।। यह सेना तात्या के साथ कानपुर पहुँच गई, परंतु इस सेना ने जयाजीराव और दीवान दिनकर राव के कौशल के कारण ग्वालियर स्थित अंग्रेजों का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया और वे सुरक्षित आगरा पहुँचा दिए गए, जयाजीराव ने किसी प्रकार अपनी सेना को शांत रक्खा। यदि ग्वालियर राज्य अंग्रेजों के विरुद्ध हो जाता, तो निज़ाम और सिक्ख राजाओं के कम्पनी भक्त रहते हुए भी, अंग्रेज़ी राज्य हिंदुस्तान में किसी प्रकार भी नहीं टिक सकता था। ग्वालियर कोई बड़ा प्रबल राज्य नहीं था, परंतु ग्वालियर के विरुद्ध होते ही, अंग्रेज़ी राज्य के ख़िलाफ़ स्वराज्य का सक्रामक गुण इतनी प्रचण्डता और वेग के साथ आसपास के राज्यों, विंध्य खंड और दक्षिण भारत में फैलता कि अंग्रेज़ी राज्य उससे बच ही नहीं सकता था।
जब तात्या ग्वालियर पहुँचा तब उसने वहाँ की सेना के एक बड़े अंग और अधिकतर सरदारों को रानी तथा पेशवा के बहुत कुछ अनुकूल पाया। सिंधिया सरकार को पेशवाई सेना के गोपालपुर में आ जमने की सूचना मिल गई थी। गवर्नर जनरल को तुरंत समाचार दिया गया और अपनी दृढ़ तथा प्रबल राजभक्ति का पक्का आश्वासन।
गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने इंग्लैंड को तार दिया, “यदि सिंधिया बलवाइयों में शामिल हो जाय तो मुझको कल ही बांधना बोरिया बांधकर यहाँ से चल देना पड़ेगा।”
तात्या ने राव साहब इत्यादि को ग्वालियर का हाल दूसरे दिन लौटकर सुनाया। रानी ने तुरंत आक्रमण कर देने की सलाह दी।
राव साहब ने सिंधिया सरकार को एक पत्र लिखा जिसका तात्पर्य यह था कि हम दक्षिण की ओर स्वरजय स्थापना के प्रयत्न में जा रहे हैं। आप हमारे पुराने नाते जा स्मरण करिए और हमें सहायता दीजिए।
दिनकर राव ने जो उत्तर दिया, वह गोल मटोल था। न उसमें हामी थी और न इनकार। दिनकर राव ने रेज़िडेंट को सूचना भेज दी।
पेशवा की सेना कालपी के युद्ध के चार दिन बाद ग्वालियर राज्य में धँस गई। सिंधिया सरकार का एक अफ़सर चार सौ पैदल और डेढ़ सौ घुड़ सवार लेकर रोकने के लिए पहुँच गया। वह ज़रा सी दांत फटकार में ही पीछे हट आया। दो दिन बाद राव साहब की सेना ग्वालियर से नाउ मील की दूरी पर एक गाँव के पास ठहर गई। राव साहब ने सिंधिया को एक पत्र फिर सहायता के लिए लिखा। इस पर ग्वालियर की राजसभा में विवाद हुआ। राजा का इरादा था ‘बलवाइयों’ पर तुरंत हल्ला बोल देने का। दीवान की नीति थी ह्यू रोज़ के आने तक ‘बलवाइयों’ को किसी बहाने अटकाए रहना। और अपनी सेना को किसी प्रकार क़ाबू में रखना। राजा ने नहीं माना और पहली जून को मुरार के पूर्व बहादुरपुर गाँव के निकट पेशवा का मुक़ाबला करने के लिए छः हज़ार पैदल, बारह सौ भड़कीले सवार और आठ आधुनिक बड़ी तोपें लेकर मोर्चा जा पकड़ा। प्रातः काल होते ही सिंधिया ने पेशवा की ओर गोले फेंकने शुरू कर दिए। जब तक सिर पर गोले नहीं पड़े, राव साहब और तात्या ने भी समझा की ग्वालियर की तोपें पेशवा को अगवानी के लिए सलामी दाग रही है! उस क्षण पेशवा की सेना में लड़ाई की कोई तैयारी न थी। रानी की आज्ञा पर रघुनाथ सिंह ने तुरंत तैयार हो जाने का बिगुल भी बजाया, परंतु उस नक्कारखाने में इस तूती की आवाज़ को कौन सुनता था? जब सिंधिया के गोलंदाज़ों ने पेशवा की छावनी पर ताक ताक कर गोलाबारी की, तब भगदड़ मच गई।
परंतु रानी, उसके दलपति और सवार पहले से कमर कसे तैयार थे। तात्या टोपे को छावनी का बरकाव करने के लिए कहकर रानी लक्ष्मीबाई सिंधिया सरकार की सेना पर केवल दो सौ सवार लेकर टूट पड़ी। कुछ गोलंदाज मारे गए, कुछ तोपें छोड़ कर भागे। तात्या ने तुरंत अपनी छावनी के दो भाग करके उसको गतिवान किया और उसे एक ओर से हटा ले गया - वह इस विध्या में अत्यंत निपुण था। लक्ष्मीबाई के पराक्रम को, और तात्या की दोनो टुकड़ियों को दूसरी दिशा से आता हुआ देखकर, सिंधिया के वे छः हज़ार पैदल मैदान ख़ाली कर गए, परंतु बारह सौ भड़कीले सवारों का सपाट पड़ा। थोड़ी देर तक तलवार चली और खूब चली, परंतु वे रानी के सवारों की टक्कत को न झेल सके; कटने और भागने लगे। जयाजी राव को तुरंत मैदान छोड़कर भागना पड़ा। पहले राजमहल का रास्ता पकड़ा, फिर वह और दिनकर राव, दो एक विश्वसनीय सरदारों को लेकर धौलपुर होते हुए आगरा पहुँचे। वहाँ क़िले में उन लोगों को शरण मिली।
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राजा के आगरा चले जाने पर रानियाँ नरवर के क़िले में चली गई। पेशवाई सेना ने हर्ष और गर्व के साथ नगर में प्रवेश किया। ग्वालियर की बिखरी हुई फ़ौज एकत्र हो गई, उसने पेशवा को तोपों की सलामी साई और उसकी अधीनता में आ गई। पेशवा बड़े ठाठ से साथ मांगलिक वाद्य बजवाता हुआ, सिंधिया के राजमहल में पहुँचा और वहीं डेरा डाला। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने शिविर नौलखा बाग में रक्खा। पेशवा के साथी सरदार शहर के भिन्न भिन्न महलों में जा उतरे। तात्या के के दस्ते के लिए क़िले वालों ने फाटक खोल दिए। बहुत सी सामग्री हाथ आ गई। क़िले पर पेशवा का झंडा फहराने लगा। सिंधिया का ख़ज़ाना क़ब्ज़े में आ गया। अब पेशवा के बराबर था ही कौन?
पेशवाई सेना के कम्पनी विद्रोही भाग ने रेज़िडेन्सी में आग लगाई और उसका माल असबाब लूट लिया। दीवान दिनकर राव सरदार बलवंत राव और सरदार माहुरकर की हवेलियों को भी, जो अंग्रेजों के पक्षपाती थे, ख़ाक कर दिया। एक बार माँ का बंधेज उठा कि फिर उसमें सीमा की पहिचान न रही - शहर का लूटना भी आरंभ कर दिया।
परंतु पेशवा को ठीक समय पर मालूम हो गया। उसने तात्या को भेजकर यह लूटमार बैंड करवा दी।
ग्वालियर के दरबारी पेशवा के अनुकूल थे और जनता का मन उसके साथ था। विजय के हर्ष और गर्व ने उसकी छाती और दिमाग़ को फूला दिया था, इसलिए क़ायदे के साथ सिंहासनरूढ़ होने का निश्चय किया। ज्योतिषियों ने मुहूर्त शोध दिया। पेशवा की स्वराज्य - कामना अपने निज के उत्थान के रूप में पलट गई।
तीसरी जून को फूलबाग में एक विशाल दरबार किया गया।
पेशवा ने राजसी कपड़े पहिने। कानों में मोतियों के चौकडे, गले में मोटी जवाहरों के कंठे। शान के साथ चौबदारों के प्रणाम लेता हुआ, मंगलध्वनि के साथ सिंहासन रूढ़ हो गया। सरदारों ने ताजीम दी। पेशवा ने उनका अभिनंदन किया और खिले बख्शी। अष्ट प्रधान और एक प्रधान मंत्री मुक़र्रर किए। तात्या टोपे को प्रधान सेनापति। अपने फ़ौजियों को बीस लाख रुपया इनाम बाँटा। असंख्य ब्राह्मणों के भोजन का प्रबंध करवाया सहस्रों व्यक्तियों को तो रसोई बन्ने के लिए ही नियुक्त करना पड़ा। भंग बूटी और शकर बादाम की पूरी योजना कार्यान्वित हुई!
आनंद के इस तूफ़ान में यदि कोई नहीं पड़ा तो लक्ष्मीबाई और उनके पाँच नायक - उनकी लालकुर्ती सेना अवश्य इनाम की भागी बनी।
ग्वालियर का गायन - वादन शताब्दियों से प्रसिद्ध रहा है। इसलिए उसका अखंड उपयोग किया जाने लगा। नृत्य और गायन से दिन और रात ओतप्रोत हो गए। ग्वालियर की ऐसी कोई भी नर्तकी और गायिका न थी जिसको अपने कलाकौशल के दिखलाने का काफ़ी अवसर और समय न मिला हो। कवि सम्मेलन और मुशायरे भी हुए जिनमें कवि कल्पना ने शब्दों के पुल बांध बांध कर ज़मीन आसमान एक कर दिए। कोई पेशवा की तुलना रामचंद्र जी के साथ कर रहा था और कोई इंद्र के साथ। दूसरी और भांडों की नक़लें जारी थी, जिनसे परिहास और अट्टहास के फ़व्वारे छूट रहे थे।
रानी किसी उत्सव में शामिल नहीं होती थी। इस वैराग्य वृत्ति के कारण उनको उत्सवों में बुलाया ही नहीं जाता था।
तात्या के मन के कोने में से एक दबी हुई वासना उमड़ पड़ी और वह भी अपने स्वामी पेशवा के साथ नृत्य गान के रस में डूब गया।
नृत्य गान के एक बड़े उत्सव में रानी के सरदारों को हठपूर्वक बुलाया गया। रानी ने अनुमति दे दी। मुंदर नहीं गई। बाक़ी गए।
उत्सव में ग्वालियर की चुनी हुई प्रसिद्ध नर्तकियाँ और गायिकाएँ बुलाई गई। गायन के साथ साथ नृत्य भी हुआ।
पेशवा ने आज्ञा दी, “गायन और नृत्य के साथ पूरा हाव भाव तो दिखलाओ।”
उन्होंने ब्योरे के साथ विविध प्रकार का हाव भाव प्रदर्शन आरम्भ किया।
जूही मन लगा कर देख रही थी। गायन के तोड़ों को वह सूक्ष्मता से साथ जाँच रही थी। ताल की परनों के साथ उसके पैर की उँगलियाँ घूम जाती थी और सम पर सिर हिल जाता था। एक जगह नर्तकी पखावजी के विलक्षण कौशल के कारण क्षण के एक अंश के पहले ही सम पर घुँघरू ठुमका गई। जूही ने त्योरी बदल कर मुँह बिचकाया। तात्या ध्यान के साथ नर्तकी के सुंदर रूप, कलापूर्ण नृत्य, मनमोही हाव भाव प्रदर्शन पर आँख गड़ाए था। जूही ने तात्या के इस ध्यान को परखा। एक बड़ी ग्लानि उसके मन में उठी।
Part #27 ; Part #29
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