Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 27 - Vrindavan Lal Verma
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कालपी खस नगर था। यमुना के किनारे। एक और मज़बूत क़िला। तीन ओर परकोटा, और चौथी ओर यमुना नदी। क़िले के पश्चिम तरफ़ एक मैदान, उसके बाद नगर। नगर से कूच दूर चौरासी गुम्बज का क्षेत्र, छत्रसाल के पीछे कालपी का भूखंड गोविंदपंत के अधिकार में आया। सन १८०६ की संधि के द्वारा अंग्रेजों ने गोविंदपंत के वंशजों से कालपी को पाया। सन १८२५ में इसी वंश के एक नाना पंडित ने कालपी को फिर अपने हाथ में कर लिया, परंतु झाँसी के राजा रामचंद्र राव की सहायता से अंग्रेजों ने कालपी को वापिस ले लिया। सन १८५७ के विप्लव में कालपी की छावनी ने कानपुर से आए हुए विप्लवकारियों का साथ दिया। थोड़े समय उपरांत रावसाहब अपनी सेना ले कर आ गया और कालपी नगर विप्लवकारियों का एक प्रधान अड्डा बन गया।
जब रानी कालपी पहुँची राव साहब नाना का भाई और तात्या वहीं थे।
दूसरे दिन रानी की इन लोगों से भेंट हुई रानी का इन लोगों ने जी खोलकर आदर सत्कार किया।
परंतु रानी आदर की भूखी न थी। वे काम चाहती थी। लेकिन वह कालपी में अस्तव्यस्त था। तात्या सरीखे उत्कृष्ट सेंपती के होते हुए भी सेना का प्रबंध अव्यवस्थित था। कारण तात्या का एक स्वभावगत दोष था - वह था राव साहब को अपने तनमन का सम्पूर्ण स्वामी मानना और अपने सैनिकों के व्यसनों को क्षमा करते रहना। राव साहब का और सैनिकों का, वह अत्यंत स्नेहभाजन था, परंतु इससे सेना। की अनुशासनहीनता की पूर्ति नहीं हो सकती थी।
रानी की सूक्ष्म दृष्टि ने इस बात को शीघ्र देख लिया।
विश्राम करने के बार साध्य समय रानी उन लोगों से मिली।
रानी ने सेना के अनुशासन, क़वायद परेड और युद्ध सामग्री इत्यादि प्रसंगो पर प्रश्न किए। सिवाय युद्ध सामग्री के और सब प्रसंगो पर उनको असंतोषजनक उत्तर मिले।
रानी ने अंत में कहा, “बहुत कसर है रावसाहब।”
राव जल्दी से बोला, “सब ठीक हो जाएगा बाईसाहब, शीघ्र सब ठीक हो जाएगा। इन्ही सिपाहियों और इसी तात्या ने तीन बड़े बड़े जनरलों को हराया और बहुत सों को छकाया।”
“चौथा भी हराया जा सकता था” रानी ने कहा, “परंतु हमारी ओर से एक अनिवार्य गलती हुई।”
तात्या उनके मुँह की ओर देखने लगे।
रानी बोली, “उस दिन मेरे गोलंदाज़ों ने भरपूर गोलबारी न करने की सम्मति दी और मैंने मान ली। एक भय था भी - कहें हमारे क़िले की गोलाबारी से आपकी सेना नष्ट न हो जाए। फिर भी चूक हुई। यह माना पड़ेगा।”
तात्या ने कहा, “उस दिन आपकी सेना को काट के बाहर निकालकर अंग्रेज़ी सेना पर छापा मारना था।”
“टौरियों की ओट पड़ जाने से कालपी की सेना अदृश्य हो गई”, रानी बोली, “मालूम नहीं पड़ता था कि किस ओर से प्रकट होगी। फिर साध्य हो गई और प्रतीत हो गया कि कालपी के सेना लौट गई, और झाँसी अकेली रह गई।”
राव साहब ने कहा, “अब सब ठीक हो जाएगा बाईसाहब। आप कुछ चिंता न करें। नाना साहब लखनऊ की ओर प्रयत्नशील हैं। बानपुर और शाहगढ़ के राजा तथा बाँदा के नवाब ससैन्य शीघ्र शीघ्र कालपी आ रहे हैं। हम लोग यहाँ योजना एयार करके, फिर कानपुर और झाँसी को हस्तगत करेंगे।”
संध्या समय रानी को जूही मिली। वह फूट फूट कर रोई। रन इने शांत किया। समझाया।
“जूही, तपस्या में क्षय पहले है और अक्षय पीछे। यह युद्ध स्वराज्य की अंतिम साधना नहीं है और न हम लोग उसके अंतिम साधक।”
फिर रानी ने अपने स्त्री पुरुष वीरों के बलिदानों की कथा सुनाई।
जूही ने कहा, “मोतीबाई के साथ में भी घायल होती तो इसी गोद में प्राण जाते।”
“सहज ही प्राण त्याग मार न करो जूही “, रानी बोली, “अभी बहुत काम करने को पड़ा है।”
दूसरे ही दिन पेशवा की सेना को व्यवस्थित करने की योजनाएँ बनाई प्रारम्भ कर दी, कुछ कार्यान्वित हुई। अनेक पेशवा की ढील ढाल में यों ही पड़ी रही।
कालपी की सेना का शिथिल संगठन देखकर रानी का जी दुःख दुःख जाता था।
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अप्रैल के तीसरे सप्ताह में बानपुर, शाहगढ़ और बाँदा की सेनाएँ कालपी में आ गई। झाँसी का कड़ा प्रबंध करके रोज़ ने अप्रैल की पच्चीस तारीख़ को कालपी पर चढ़ाई की आज्ञा दी। इसी समय उसको खबर मिली कि रानी कोच होती हुई झाँसी पर फिर आने वाली हैं। रोज़ का एक दस्ता पूँछ पहाड़ गाँव पर पहुँचा। विद्रोहियों से कर्री मुठभेड़ हुई। अंग्रेज़ी दस्ता सफल हुआ। फिर एक युद्ध सैदनगर कोटर पर हुआ। अंग्रेज़ी दस्ता हारा।
कोच पर अधिकार करने के लिए रोज़ ने लहरी के क़िले को लेने का पहले प्रयत्न किया। कोच में पेशवा की काफ़ी सेना इकट्ठी हो गई। बानपुर और शाहगढ़ के राजा तथा बाँदा के नवाब भी यहीं आ गए। पुनः बीस सहस्र। सैनिक इकट्ठे हो गए। रानी और तात्या सरीखे सेनापति। किस बात की कमी थी? जिस बात की कमी थी उसको रानी जानती थी। इस सेना में बहुत से लुटेरे और बदमाश भी इकट्ठे हो गए थे। उनको स्वराज्य या युद्ध में उतनी रुचि न थी जितनी विजय या पराजय के उपरांत लूट खसोट करने में थी, वे इतने पतित थे कि मौक़ा मिलने पर अपनी ही छावनी को लूट सकते थे। इस सेना में बहुत से तो क़वायद परेड ही नहीं जानते थे और अनुशासन का नाम न सुना था। वे केवल अपने सरदारों का, या जिन्होंने उनको भर्ती किया था उनका, आदेश मानने को तैयार थे। सो भी उतना, जितना उनके मन के अनुकूल होता। रानी का बस चलता तो वे काम से काम आधि संख्या को अपने अपने घर लौटा देती। केवल कल्पना में इस सेना का प्रधान संचालक राव साहब था। वास्तव में अपनी अपनी धपलि अपना अपना राग था। पूर्ण सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में न थी। और युद्ध को सफलता पूर्वक लड़ने के लिए सैन्य संचालन एकाधिपत्य चाहता है, वह इस सेना में न था।
उधर रोज़ लुहारी के क़िले को, कोच का पहला मोर्चा समझ कर ले लेने के प्रयत्न में था, इधर कोच में रात को राव साहब, बानपुर और शाहगढ़ के राजा तथा बाँदा के नवाब की इच्छा नाच देखने की हुई! इन लोगों ने सुना था कि झाँसी की जूही, जो उस समय कोच में रानी के शिविर में थी, बहुत अच्छा नाचती है। इसलिए भंग पीने के उपरांत उसके बुलाने का हठ किया गया।
राव साहब को ग़रूर आ चुका था, परंतु ज़बान ढीली नहीं हुई थी। तात्या को बुलाया। वह भंग नहीं पिए था। न पीता था।
राव साहब ने कहा, “आज दिन में बहुत गर्मी रही। अब ठंडक है। सब लोग मज़े में हैं। युद्ध पर युद्ध होते रहते हैं। बीच बीच में कुछ आनंद भी चाहिए।”
तात्या ने खीझ को दबाकर निवेदन किया, “आज्ञा हो।”
“अरे यार मेरे, बाँदा के नवाब ने कहा, “और आज्ञा होगी ही क्या? किसी को नाचने गाने के लिए बुला लाओ।”
बानपुर का राजा बोला, “सरदार साहब, माफ़ करना आप शंकर की बूटी का सेवन नहीं करते इसलिए इस मज़े को नहीं जानते, परंतु हम लोगों के मन तो बढ़ावे पर, इन्ही कमानों पर आते हैं।”
शाहगढ़ का राजा ज़रा और अग्रसर हुआ, “भाई टोपे साहब, वह जो झाँसी का तोहफ़ा छावनी में है, उसका नृत्यगान कब देखने को मिलेगा?”
तात्या सन्नाटे में आ गया।
राव साहब ने कहा, “उसका नाम जूही है। बड़ा सुंदर नाम है। सिपाहीगिरी भी करती हैं और नृत्यगान भी। झाँसी की नाटक शाला में बधिया अभिनय करती थी। बेढ़ब हाव भाव। जब से यहाँ आई, उदास नहीं रही। मातम सा मानती रही। अब उसकी स्वामिनी आ गई हैं, प्रसन्न है। नाचने गाने को नाहीं करने का कोई कारण नहीं। रात भी बहुत नहीं गई है। घंटे आध घंटे के लिए यह दरबार रसीला रंगीला हो जाय। बुला लाओ।”
तात्या ने माथे का पसीना पोंछा।
बोला, “जो आज्ञा, परंतु रानी साहब - “
नवाब - “मयाँ किंतु परंतु क्या?”
राव साहब - “रानी साहब पूजा में होंगी। बुला भी लाओ।”
तात्या गया। उस मंडली का सरूर और बाधा।
तात्या ने जूही को एकांत में बुलाया।
जूही बहुत प्रसन्न थी।
जूही - “सरदार साहब, आपने क्यों कष्ट किया?”
तात्या - “एक बात कहने आया हूँ।”
जूही - “मैं उस बात को सुनने के लिए बरसों से तरस रही हूँ।”
तात्या - “एक प्रार्थना करने के लिए आया हूँ।”
जूही - “मेरे सरदार मुझसे प्रार्थना करे! जिस एक शब्द के सुनने के लिए बरसों तपस्या की, अपने तन और मन की रक्षा की, उस एक शब्द के सुनने कि लिए, आपकी जूही के भाग्य का आज उदय हुआ, परंतु - “
तात्या - “परंतु क्या जूही?”
जूही - “परंतु सरदार साहब, मेरी रानी का स्वराज्य संग्राम पहले सफल हो और मैं आपकी जन्मसंगिनी बनकर रहूँ। बहुत दिनों से इस बात को कहने के लिए संकल्प पर संकल्प किए, परंतु आज लाज संकोच त्याग कर कह पा रही हूँ। आपने अवसर देने की कृपा की।”
पेशवा के प्रधान सेनापति का सिर नीचा पद गया। कुछ क्षण में हिम्मत बांध कर बोला, “मेरी प्रार्थना यह है। मेरी प्रार्थना —“
जूही ने टोककर कहा, “आपके मुँह से प्रार्थना का शब्द नहीं सुहाता। आज्ञा हो, आपकी जूही का सिर चरणों में पहुँचेगा, परंतु जिस शर्त का निवेदन कर चुकी हूँ, वह अटल है।”
तात्या का दिल धड़का। उसने धड़कन दबाई। मुट्ठी बांधी और हिम्मत को कड़ा किया।
तात्या - “अभी तो केवल यह प्रार्थना है कि आप राव साहब के शिविर में चलें, वहाँ बाँदा के नवाब साहब, मदनपुर और बानपूर के राजा साहब बैठे हुए हैं। आपके नृत्यगान का रसास्वादन करना चाहते हैं।”
जूही - “ओह यह बात! यह प्रार्थना! सरदार साहब, माइन आपको माँ ही माँ अपना हृदय भेंट कर चुकी हूँ, परंतु आपको इतना स्मरण रहे कि मैं झाँसी की सिपाही हूँ और किसी राजा या नवाब से अपने को कम नहीं समझती। ये लोग समझते होंगे कि मैं वेश्या पुत्री हूँ। परंतु वेश्या नहीं हूँ, और न नाचने गाने का पेश करती हूँ। मेरा प्रस्ताव उस मंडली में किसने किया, सरदार साहब? और आपके मुँह से यह प्रस्ताव निकला कैसे?”
तात्या - “मैंने नहीं किया जूही। आप मेरा विश्वास करो। मैं राव साहब की आज्ञा को देवता की आज्ञा के समान समझता हूँ। उन्ही के कहने से आपके पास आने का साहस किया।”
जूही - “आप आप कहकर मेरा अपमान मत कीजिए। मैं आपके लिए तुम हूँ, उन लोगों से कह दीजिए कि मैं उनके लिए उस रानी की कर्नल हूं, जो जनरल रोज़ के परदादों को कबर में हिला डालने की हिम्मत और तरकीब रखती हैं।”
तात्या चला गया। जब तक वह पेशवा के सामने पहुँचा तब तक भंग ने अपना गहरा रंग चढ़ा दिया था। वे लोग अपनी अपनी धुन को इस बीच में भूल गए थे और किसी दूसरी धुन को पकड़ लिया था। इसलिए तात्या को बात बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
जूही रानी के शिविर में लौट आई। रानी गीता के पारायण से उसी समय फ़ारिग हुए थी।
रानी ने साधारण प्रश्न किया, “कहाँ हो आई जूही?”
जूही ने भर्राए हुए सवार में उसाँस लेकर उत्तर दिया, “सरदार साहब आए थे।”
रानी - “कौन सरदार साहब? यहाँ तो मुझको सब सरदार ही दिखते हैं। संसार की किसी भी सेना की ऐसी अस्त व्यस्त स्थिति न होगी जो मुझको इस सेना की दिखलाई पड़ रही है। कोई भी एक ऐसा नहीं नहीं जिसकी सब कोई माने।”
जूही - “सरदार तात्या साहब आए थे।”
रानी - “क्या कहते थे?”
जूही - “कहते थे कि श्रीमंत राव साहब पेशवा नृत्यगान के लिए बुला रहे हैं। महफ़िल बाँदा, बानपुर और शाहगढ़ के रईसों की है।”
रानी - “हाँ! यह मौज! तूने क्या उत्तर दिया?”
जूही - “मैंने कह दिया सरदार कि मैं रानी साहब की कर्नल हूँ, नाचने गाने वाली नहीं।”
रानी - “जूही तूने अपने योग्य ही उत्तर दिया। दो एक दिन में ही कोच में लड़ाई होने वाली है। और इन लोगों का यह हाल है! जी चाहता है कि इसी समय इनको कुछ खरी खोटी सुनाऊँ, परंतु अवसर उपयुक्त नहीं है। किसी समय कहना अवश्य पड़ेगा। और कुछ…. दंड”
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दूसरे दिन समाचार मिला कि लुहारी के क़िले का पतन हो ज्ञ और रोज़ कोच के ग्रसने के लिए आ रहा है।
पेशवा इत्यादि की सेना को अपने अग्रभाग का सुदृढ़ और सुसंगठित प्रबंध करके लड़ने का अभ्यास सा पड़ गया था। रोज़ जानता था कि इनकी सेना का पृष्ठ भाग उतना व्यवस्थित नहीं रहता। इसलिए उसने विरोधी सेना पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना के तीन भाग किए। दो को कोच की सेना के पीछे दाएँ बाएँ भेज दिया और एक को सामने ले चला।
पेशवा की सेना को उसके केवल सामने वाले दस्ते का पता लगा और उसी से तात्या को भिड़ा दिया। लक्ष्मीबाई को पीछे की ओर रक्खा। दोनो ओर से विकट युद्ध हुआ।
बँधे इशारे पर रोज़ के पीछे वाले दस्तों ने धावा किया और उनकी तोपों के प्रहार से कोच की सेना बुरी मार खाकर भागी। तात्या और लक्ष्मीबाई ने अपने कौशल से उसको रोज़ के व्यूह से बचा निकाला।रोज़ ने कोच को ले लिया। आठ तोपें हाथ आई और बहुत सी युद्ध सामग्री। रोज़ को बहुत आश्चर्य इस बात पर था कि सबके सरदार और बाक़ी सेना तथा सामान किस हिकमत से और कौन निकाल ले गया। उसका संदेह बार बार झाँसी की रानी और तात्या टोपे पर जाता था।
तात्या कोच से निकल कर कालपी नहीं गया। वह अपने पिता के पास चला आया। उसने उस समय, पेशवा की भी कदाचित केवल उस समय अनसुनी कर दी।
पेशवा ने अपनी सेना के साथ कलपी में आकर दम लिया। शायद उस रात भंग नहीं छानी! दूसरे दिन पेशवा ने आगे की योजना बनाने के लिए सरदारों का दरबार किया। रानी भी दरबार में थी।
राव साहब ने कोच की हार का किसी पर भी दोषारोपण नहीं किया और बच कर निकल आने के चातुर्य पर प्रशंसा बरसाई। इसके उपरांत आगे की योजना की बात छिड़ी।
रानी अपने आसन से उठी। कमर से तलवार निकाल कर पेशवा के सामने मूठ की ओर से रख दी और आसन पर बैठ कर बोली, “आप ने पूर्वजों ने यह तलवार हम लोगों को दी थी। भगवान की दया से मेरे पूर्वजों ने और मैंने भी उसका उचित उपयोग किया। परंतु अब आप की कृपा से यह तलवार वंचित हो गए है इसलिए इसे वापस लीजिए।”
दरबार में उपस्थित सब सरदार स्तंभित रह गए।
राव साहब ने कहा, “आपके पुरखों ने और अपने स्वराज्य की स्थापना के लिए को कुछ किया है वह चिरस्मरणीय है। आपने झाँसी में अंग्रेजों का जैसा करारा मुक़ाबला किया वह अवर्णनीय है। कोच से हमारी सेना और युद्ध सामग्री को बचकर ले आने में आपका बहुत बड़ा हिस्सा है। आप सरीखा निपुण सेनापति शायद ही कोई हो। आप जो यजन हमें बतलावें हम लोग शिरोधार्य करेंगे। आप इन सब रणशूर रईसों को अपना सहयोग देने की कृपा कीजिए और अपने स्वराज्य के प्रण का स्मरण करिए।”
रानी बोली, “लॉक की लड़ाई में आपका प्रबंध बहुत रद्दी था। सेना में कोई व्यवस्था नहीं है। अंग्रेज़ी सेना अपनी अच्छी व्यवस्था के कारण ही विजय प्राप्त करती है। हमारे सैनिक शूरवीरी और पराक्रम में अंग्रेजों से बढ़े चढ़े हैं, परंतु व्यवस्था और दूरदर्शी योजना की कमी के कारण उनका ड़=शौर्य विफल हो जाता है। झाँसी की सहायता के लिए आपकी इतनी बड़ी सेना आई, परंतु अव्यवस्था के कारण हार खाकर लौट गई। जब तक आप अपनी सेना का अच्छा प्रबंध नहीं करेंगे और संयम से काम न लेंगे, युद्ध में यश प्राप्त न होगा। अव्यवस्था का कारण है एक व्यक्ति को मुख्याधिकारी न मानना और अपनी अपनी मनचाही योजना को काम में लाना तथा समय को व्यर्थ बातों में नष्ट करना।”
राव साहब तलवार को लेकर उठा। रानी के सामने विनम्र भाव से खड़ा हुआ।
“आप कृपापूर्वक तलवार ग्रहण करें”, राव साहब ने कहा, “आपकी सम्मति किलकुल उचित है और मानी जाएगी।”
रानी ने तलवार ले ली और म्यान में डाल ली।
उपस्थित सरदारों ने राव साहब को प्रधान सेनापति नियुक्त किया। उसने स्वीकृत कर लिया। सरदारों ने रानी को प्रधान सेनापति न बनकर इतिहास में अपनी पराजय पेशगी लिख दी। परंतु योजना बनाने के लिए रानी से अनुरोध किया। रानी ने योजना बतलाई। उसके अनुसार मोर्चे बनाए गए। तोपें रक्खी गई।गोलंदाज नियुक्त और सरदार विभक्त किए गए। रानी को लालकुर्ती वाले ढाई सौ सवार दिए गए और वाम पार्श्व की रक्षा का भार।
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रानी ने निर्देशन किया था : “जो सरदार जिस मोर्चे को बांधे हो वही डट कर लड़े, किसी प्रलोभन या उत्तेजना में आकर अपने स्थान को छोड़कर अंग्रेज़ी सेना के ऊपर न झपटे। जब रिसाले या पैदल पलटन को आदेश हो तभी वह बतलाई हुई दिशा में हमला करे।”
राव साहब ने समर्थन करते हुए कहा था, “ऐसा ही होगा; ऐसा ही हो। सब लोग गाँठ बाँध लेना।”
राव साहब सहज संतोषी और परम महत्वाकांक्षी था। यदि नाना साहब लखनऊ के जाय पराजय के क्रमावर्त में न फँसा होता और कालपी में होता तो वह, लक्ष्मीबाई और तात्या, रोज़ सरीखे अत्यंत योग्य और रणकुशल सेनापति के लिए भी काफ़ी से अधिक प्रबल बैठते। परंतु राव साहब की लोकप्रियता, उसकी उदारता, शिथिलता और सहजवर्ती स्वभाव के कारण थी, न की योग्यता के कारण। वह प्रधान सेनापति की आज्ञाओं का विधिवत पालन कर ही नहीं सकता था। इस कार्य के लिए तो रानी का सा तेजस्वी और तपस्वी व्यक्तित्व ही ठीक बैठ सकता था।
रोज़ को इस मोर्चाबंदी का पता आसानी से लग गया। उसने अवगत कर लिया कि जहां मोर्चादारों से उनका ठिया छूटवाया कि गड़बड़ फैल जाएगी।
कोच की मार और रानी की भर्त्सना के कारण पेशवाई सेना अंग्रेजों को मार मिटाने के लिए दांत पीस रही थी, अपनी वासना को सहायता पहुँचाने के लिए सेना ने भंग भी खूब पी। रानी का निषेध न चला।
रोज़ का एक छोटा सा दस्ता हल्का तोपख़ाना लिए आगे आया। कालपी की सेना ने समझा कि रोज़ की सम्पूर्ण सेना आ गई। ठिया छोड़ छोड़कर उस पर दौड़ पड़े। गोलाबारी हुई। असमय मार काट शुरू हो गई। रानी ने माना करवाया, परंतु राव नियंत्रण न कर सका। रोज़ ने मौक़ा ताककर इर्द गिर्द वाले अपने दस्तों द्वारा गोलाबारी शुरू कर दी और कालपी की सेना का ठिए छोड़ देने के करान अविलम्ब सर्वनाश होने लगे रईस सेनापतियों ने भागने का विचार किया। रानी ने डाँटना फटकारना व्यर्थ समझकर उनको धैर्य धराया, कहा, “अब जहां हो वहीं बने रहो, भगदड़ मत मचाओ में इनके तोपख़ानों को बैंड करती हूँ। जिस समय तोपख़ाने बंद हो जाएँ, दो पार्शवों से घुड़सवार और बीच में पैदल बंदूकची भेजना।”
रानी को केवल ढाईसौ सवार दिए गए थे। ये सवार अपने नेता को पहिचन गए। थी और उन लोगों की उनके प्रेती अपार भक्ति थी। रानी ने इन लोगों के पाँच भाग किए और एक एक को देखमुख, गुल मुहम्मद, रघुनाथ सिंह, जूही और अपने आधीन रक्खा। मुंदर उनके साथ उनकी नायबी में रही। रानी ने यमुना के एक टीले की ओर से दूरबीन लगाकर रण क्षेत्र का निरीक्षण, कुछ क्षण किया। वे रोज़ के कमजोर बाजू को ताड़ गई।
रानी ने अपने पाँचो दस्तों को रोज़ के दाहिनी पार्श्व की ओर कुछ दूर जाकर घुमाया, और फिर टूट पड़ी। जैसे चिड़ियों के ऊपर बाज? यह आक्रमण अंग्रेजों को तूफ़ान की तरह लगा और वे एक दम पीछे हटे। अंग्रेज अफ़सर और सिपाही कट कट कर गिरने लगे। रानी ने ऐसे शौर्य, ऐसे विवेक और ऐसे कौशल के साथ युद्ध किया कि अंग्रेजों का तोपख़ाना थोड़ी देर के लिए बिलकुल बंद हो गया। गोलंदाज उस तूफ़ानी हमले से स्तब्ध रह गए। रानी तोप के मुहानों पर बीस फ़ीट के फ़ासले तक मारती काटती पहुँच गई!! अब कालपी की सेना आगे बधी। परंतु सैनिक इतनी भंग पिए हुए थे कि आज्ञाओं का ठीक ठीक पालन ही नहीं कर सकते थे। केवल रानी का एक अद्भुत पराक्रम इन सैनिकों के नशे को और उनके सरदारों की मूर्खता को धाक रहा था - रानी ने अपने घोड़े की लगाम मुँह में दाबी और दोनों हाथों से तलवारों के वज्रपात करने लगी। पेशवा - सेना बहादुरी के साथ लड़ने लगी। को अंग्रेज गोलंदाज रानी और उनके दस्तों द्वारा काटने से बचे, वे मैदान छोड़कर भागे। ब्रिगेडियर स्टूअर्ट ने देखा कि बाज़ी खिसकी। तुरंत वह हल्के तोपख़ाने लिए पीछे से आगे आया। गोलाबारी की भागते हुए गोलंदाओं को उत्साहित किया। रोज़ एक जगह ऊँट तोपख़ाना लिए डटा था।
अपनी सेना की भगदड़ का समाचार पाते ही वह इस तोपख़ाने को लेकर दौड़ा आया और छोटे गोलों की बौछार पर बौछार की। कालपी की सेना तितर बितर होने लगी अपने दस्तों को लेकर रानी ने रोज़ के निरोध का प्रयत्न किया, परंतु भंगेडी सिपाहियों को भंग ने भागने की सुझाई। उनके पैर उखड़ गए। विवश होकर, रानी को अपने दस्ते रणभूमि से हटाने पड़े। अपेक्षाकृत उनके सैनिक काम हताहत हुए। जो बचे उनको लेकर रानी पेशवा की छावनी में लौट आयी।
दो दिन और मार काट हुई, परंतु उसको लड़ाई नहीं कह सकते। पेशवा की सेना के काफ़ी सिपाही अंतिम विजय से निराश होकर अपने अपने गावों को भाग गए।
दो दिन पेशवा ने लश्टम पष्टम गोलाबारी अंग्रेजों से बदली। इस सेना में अधिकतर लुटेरे और बदमाश रह गए थे। जैसे ही उन्होंने देखा की पेशवा हारे, कालपी की लूट शुरू कर दी और शकर की दुकानों की पहले घात लगाई।
पेशवा ने कालपी छोड़ी। थोड़ी सी सेना उनके साथ लग गई। रानी अपने पाँच दलपतियों तथा अपनी बची बचाई छोटी लालकुर्ती सेना सहित निकल गई। यह हारा थका दल गोपालपुरा में, जो ग्वालियर ने नैऋत्य में ४६ मील की दूरी पर था, जा टिका। कोच की पराजय के उपरांत तात्या अपने पिता के पास जालौन चला आया था। कालपी के पराभव का वृतांत सुनकर उसको ग्लानि हुई और वह पेशवा के पास गोपालपुरा पहुँच गया। बाँदा का नवाब भी इधर उधर भटकता हुआ गोपालपुरा आ गया। राजा मर्दन सिंह और राजा बखतबली इसके उपरांत लड़ाई के नक़्शे में फिर नहीं आते। कूच समय बाद राजा बखतबली को अंग्रेजों ने क़ैद करके लाहौर भेज दिया। मर्दन सिंह भी क़ैद हो गया।
रोज़ को कालपी में पेशवा की बहुत बहुमूल्य युद्ध सामग्री मिली। पंद्रह तोपें, सात सौ माँ बारूद, असंख्य बंदूक़ और तलवारें और नए तर्ज़ के हथियार ढालने बनाने की विलायती मशीनें हाथ लगी। रोज़ को यह विजय चौबीस मई के दिन मिली। यही दिवस विक्टोरिया के जन्म का था। इसल्लिए अंग्रेजों ने धूमधाम के साथ कालपी पर अपना झंडा चढ़ाया और क़त्ल तथा लूट से पाई हुई शकर के प्रसाद से जश्न मनाए। और तीन दिन कालपी को मुस्तैदी के साथ लूटा।
जनरल रोज़ ने नर्मदा के उत्तर भाग को कालपी तक अपने आधीन कर लिया। नर्मदा के उत्तरपूर्वीय भाग को दबाता हुआ करबी, महोबा, बाँदा इत्यादि को लूटता कुचलता विट्लाक रूज से कालपी में आ मिला। राजपूताने की ओर से कर्नल स्मिथ अपनी सेना लिए हुए आगरा, ग्वालियर की दिशा में आ रहा था। ‘बलवाइयों’ के पकड़े जाने के लिए गाँव गाँव में इनामी इश्तहार बाँटे जा रहे थे।
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