Jhansi Ki Rani - Lakshmibai #26 - Vrindavan Lal Verma
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महल के नीचे खंड में मुख्य मुख्य लोगों को इक्कठा किया।
बोली, “आज तक आप लोगों ने अप्रतिम वीरता से झाँसी की रक्षा की। प्राणों की होड़ लगा दी। परंतु अब चिन्ह अच्छे नहीं देख पड़ते अहीन। हमारे लगभग सभी सूरमा और दलपति और गोलंदाज काम आ गए। दीवारों और फाटकों के रक्षक वीर मारे गए। क़िले की चार सहस्र सेना में से उतने सौ भी नहीं बचे हैं। अंग्रेजों ने क़िला घेर लिया है। वे एकाध दिन में ही भीतर आ जावेंगे। आप लोगों में से जो लड़ते लड़ते बचेंगे उनको क़ैद और फाँसी होगी। मैं पकड़ी तो नहीं जा सकती परंतु शव को फिर फ़िरंगी स्पर्श करेंगे। इतने से ही मेरे पुरखों का, मेरे विख्यात ससुर का अपमान हो जाएगा। अब शिवराम भाऊ की बहु के लिए केवल एक साधन शेष है। बारूद की कोठी में सैकड़ों माँ बारूद है। मैं वहाँ जाती हूँ और पिस्तौल के धड़ाके के साथ अपने पुरखों में मिल जाती हूँ। क़िले से बाहर जाने के लिए कई गुप्त मार्ग हैं। आप लोग उनसे निकल जाएँ। अभी संध्या होने में कूच देर है। रात का काफ़ी अंधेरा आप लोगों को मिल जाएगा।”
भाऊ बख्शी घर्राते हुए कंठ से बोला, “मैं भी उसी बारूद के साथ, सरकार की सेवा के लिए यात्रा करूँगा।”
नाना भोपटकर ने तुरंत कहा, “आप आत्मघात करने जा रही हैं। यही ना? कृष्ण का पूरी गीता जिसको कंठाग्र याद है और जो गीता के अठाहरवें अध्याय को अपने जीवन में बर्तती चली आई हैं, और जो प्रत्येक परिस्थिति में स्वराज्य की स्थापना के यज्ञ की वेदी पर संकल्प कर चुकी हैं, वह आत्मघात करेगी! अंग्रेजों से हमारे पुस्तकालय को भस्म करके जो आघात हमारे कृष्ण को नहीं पहुँचा पाया है वह आपका आत्मघात पहुँचावेगा। करिए कृष्ण का, गीता का अपमान। आप रानी है। आपकी आज्ञा का पालन तो सबको करना ही है। परंतु आपके उपरांत देश की जानता आपके लिए क्या कहेगी - जिसकी रक्षा के लिए आपने बीड़ा उठाया था?
रानी ने सिर नीचा कर लिया।
वृद्ध भोपटकर कहता गया, “आप राजमाता हैं। आपके नन्हा सा दामोदर राव पुत्र है। वह आपके पुरखों का प्रतीक, झाँसी की आशा है। कालपी में अभी पेशवा की सेना मौजूद है। दिल्ली, लखनऊ, कानपुर इत्यादि के पतन हो जाने पर भी जनता का पतन नहीं हुआ है। विंध्य्खंड, महाराष्ट्र और अवध अक्षय हैं। क़िले के भीतर वाले एर क़िले से बाहर दूर दूर वाले पठान देश के लिए काट मारने को कटिबद्ध हैं। आप क़िले के बाहर होईए अंग्रेजों की सेना को चीरते हुए निकल जाइटे और कालपी पहुँच कर पुनश्च हरीओम् कीजिए।”
रानी सोचने लगी। भोपटकर ने मुंदर को दामोदर राव के लिव लाने के लिए इशारा किया। वह उसके लेने के लिए चली गई।
रानी की आँखों के सामने एक दृश्य घूम गया - “कुरुक्षेत्र का मैदान है। कौरव पांडवों की सेनाएँ एक दूसरे के सामने डटी हुई हैं। अर्जुन ने कृष्ण से कहा, भगवान मेरा साहस डिग गया है। मेरा सामर्थ्य हिल गया है। मैं असमर्थ हूँ लड़ना नहीं चाहता। भगवान कृष्ण ने उद्धोधन किया। अर्जुन ने फिर गांडीव धनुष हाथ में ले लिया।”
आँखोंके भीतर ही रानी को एक चमत्कार की अभिव्यक्ति हुई।
इतने में दामोदर राव वहाँ आ गया। दौड़कर रानी की गोद में बैठ गया।
गुल मुहम्मद ने कहा,”सरकार अमारा सारा क़ौम मुलक वास्ते कट मरेगा।”
रानी उठी। उन्होंने नाना भोपटकर ने पैर छुए। कहा, “एक दिन मैंने आपकी राजनीति पर आक्षेप किया था। मुझको क्षमा करना नाना साहब” फिर एक क्षण के बाद बोली, “भाइयों, मेरी इस क्षणिक दुर्बलता को भूल जाना। मैं लदूँगी। आज सबके सामने प्रण करती हूँ कि यदि समस्त अंग्रेजों का मुझको अकेले सामना करना पड़े, तो करूँगी।”
उस अत्यंत हीं परिस्थिति में भी क़िले के भीतर वाले नर नारियों के उमंग का उजाला भार गया।
रानी ने कहा, “थोड़ा सा खा पी लो। जो लोग शस्त्र ग्रहण नहीं कर सकते वे गुप्त मार्ग से निकल जाएँ शेष मेरे साथ उत्तरी द्वार से भांडेरी फाटक होते हुए, कालपी की ओर चले। भांडेरी फाटक का प्रबंध कौन करेगा?”
भाऊ बख्शी ने ज़िम्मा लिया। उसका मकान कोरियों के मुहल्ले के निकट था। और वन उन लोगों को अच्छी तरह जानता था। बख्शी गुप्त मार्ग से क़िले के बाहर चला गया। रानी ने अपने पुराने सेवक सेविकाओं को पुरस्कार देकर विदा किया। वे पैर छू छू कर, रो रोकर वहाँ से चले गए। नाना भोपटकर भी चला गया।
जवाहर सिंह को रानी ने आज्ञा दी, “आप अपने इलाक़े में जाकर सैन्य संग्रह करिए और कालपी आ जाइए।”
जवाहर सिंह ने प्रार्थना की, “मैं आपको सुरक्षित स्थान में पहुँचा कर लौटूँगा अन्यथा नहीं। केवल इस आज्ञा का जीवन में उल्लंघन किया है। इस अपराध के लिए क्षमा चाहता हूँ।
रानी ने स्वीकार किया।
थोड़े समय उपरांत रानी और मुंदर महादेव के मंदिर में गई। वंदना की, ध्यान किया।
समाप्ति पर रानी ने मुंदर से कहा, वह पलाश अब भी फूल रहा है। सिंदूरोत्सव मनाएगी। झाँसी का सिंदूर अमर हो।”
उन दोनो ने उस पलाश से भेंट की।
मुंदर बोली, “फूल की मालाएँ सूख गयी हैं।
रानी ने कहा, “उनकी आत्मा तो हरी भारी है। ये उनके चढ़ाए फूल हैं को इस युद्ध में बलिदान हो गई हैं।”
इसके बाद वे दोनो महल पर आ गई।
मोरोपंत ताम्बे ने बहुत सा द्रव्य और जवाहर इक्कठे किए। क़िले के उत्तरी भाग में नीचे कि ओर द्वार में एक हवेली, हाथीखाना और घुड़सार थी। लड़ाई के दिनों में जवाहर सिंह और रघुनाथ सिंह इसी हवेली में रहते थे। मोरोपंत ने एक हाथी पर जवाहर और अशर्फ़ियाँ लादी। और लोगों ने कमर में अशर्फ़ियाँ बांधी। रानी और मुंदर पुरुष वेश में घोड़ों पर सवार हुईं।
उस समय रात बहुत नहीं गई थी। पूर्व दिशा में बड़ा तारा ऊपर चढ़ आया था। गाना अंधेरा केवल शहर की आगों से फट फट जा रहा था। अंधेरे के ऊपर बड़े छोटे तारे डैम दमा रहे थे। नीचे शहर के अंधेरे पर उन आड़ों के बड़े बड़े लाल पीले छपके से पड़ पड़ जाते थे।
रानी ने एक चादर से दामोदर राव को पीठ पर कसा और अपने तेजस्वी सफ़ेद घोड़े को क़िले के उत्तरी भाग से निकाल कर आगे किया। पीछे पीछे पठान, मुंदर, जवाहर सिंह, रघुनाथ सिंह इत्यादि। द्वार से निकलते ही उन्होंने क़िले को नमस्कार किया, झाँसी को नमस्कार किया। कंठ में कूच अवरोध सा अवगत किया। इस भय से कि कहीं आँख में आँसू न आ जाय उन्होंने उत्तर दिशा की ओर मुँह मोड़ा और क़िले के उतार के नीचे आ गईं। क़िला बिलकुल सूना छोड़ा।
मोरोपंत का हाथी बीच में था। सवार अधिक न थे। उनकी रक्षा के हेतु बाक़ी सैनिक पैदल थे। नंगी तलवारें लिए हुए।
यह टोली टकसाल के पश्चिम वाले मार्ग से भांडेरी फाटक की ओर अग्रसर हुई। जैसे ही कोतवाली की बराबरी पर आई अंग्रेज़ी सेना से भिड़ा भिड़ी हो गई। रानी ‘हर हर महादेव’ उच्चार करती हुईं उनको चीरती फाड़ती मुंदर सहित निकल गई। पठान शत्रुओं से बे तरह लड़े। बहुत से मारे गए बाक़ी आगे बढ़े।
जगह जगह जलते हुए मकानों से उजाला हो रहा था। रानी और अनेक संगी द्रुत गति से भांडेरी फाटक के निकर पहुँच गए। वहाँ बख्शी कोरियों को लिए हुए अंग्रेज़ी फ़ौज की एक टुकड़ी को तलवार के युद्ध में उलझाए हुए थे। इधर से रानी की टुकड़ी पहुँची। जलते हुए मकानों के प्रकाश में थोड़ी देर के लिए विकट युद्ध हुआ। बख्शी ने फाटक खोल दिया और फिर अपनी कोरी सैनिकों को लेकर अंग्रेज टुकड़ी पर टूट पड़ा। जान पड़ता था कि उसको जीवन का मोह अहीन। वैसे ही निर्मोही पठान थे। बख्शी फाटक के बग़ल में मारा गया। उसने मारने के पहले रानी को देख लिया था। मारने के पहले उसने ‘हर हर महादेव’ और ‘झाँसी की रानी की जय’ का घोष किया था। उसके शरीर पात को रानी ने देखा, परंतु इतना समय भी न था कि मुँह से ‘धन्य’ भी कह पाती।
थोड़े से लोगों के साथ रानी बाहर हो गई। मरने से बचे हुए अंग्रेज सैनिक भाग गए। कोरियों ने भांडेरी फाटक फिर बंद कर लिया। और भाऊ बख्शी को एक जलते हुए मकान के अंगारों में डालकर उसकी अंत्येष्टि कर दी।
रानी और उनके साथियों को कोट ने बाहर की भूमि का राई रत्ती पता था। अंधेरे में वह सहज ही बढ़ती चली गई। बातचीत बिलकुल धीरे धीरे होती थी। अंजनी की टौरिया के पास ओर्छे की सेना का पहर था और एक अंग्रेज़ी छावनी का। यहाँ रोक टोक हुई। लड़ाई भी। यहाँ से रानी के साथ केवल दस बारह सवार रह गए और मुंदर।
आने निर्मम मार्ग। अगाध अंधेरा। झींगुर झंकार रहे थे। उनके ऊपर घोड़ों की तापों की आवाज़ हो रही थी। सब ओर सन्नाटा छाया हुआ था। पीछे झाँसी में आगें जल रही थी और आवाज़ें आ रही थी। आगे अंधकार से जंगल और गढ़मऊ का पहाड़ लिपटे हुए, दबे हुए से दिखलाई पड़ रहे थे। चिड़िया पेड़ों पर से भड़भड़ा कर उड़ती और घोड़ों को चौंका देती। घोड़े जल्दी चलाए जाने के कारण ठोकर ले ले पड़ते थे। आगे का मार्क अंधकार पूर्ण और भविष्य तिमिराछन्न। ज्यों त्यों करके आरी नामक ग्राम के पास से यह टोली आगे गई। पहुज नदी मिली। लोगों ने चुल्लुओं से पानी पिया और फिर आगे बढ़े। कभी धीमी गति से कभी तेज़ी के साथ। जब दस बारह मील निकल आए तब ये लोग कुछ क्षण के लिए ठहरे।
रानी ने जवाहर सिंह और रघुनाथ सिंह से कहा, “अब आप लोग लौट जाओ और सेना एकत्र करके मुझे कालपी में आ कर मिलो।”
रघुनाथ सिंह ने तुरंत कहा, “यह कार्य दीवान जवाहर सिंह अच्छा कर सकते हैं। में तो साथ चलूँगा।”
रानी माँ गई। जवाहर सिंह ने उनके पैर छुए और कँटीली की ओर चला गया।
रानी की टोली आगे बधी। इसमें गुल मुहम्मद और उसके कुछ पठान भी थे।
जनरल रोज़ को रानी के निकल जाने का पता बहुत शीघ्र लग गया। उसने तुरंत लेफ़्टिनेंट बोकर नामक अफ़सर को कुछ गोरों और निज़ाम हैदराबाद के एक दस्ते के साथ रानी का पीछा करने के लिए भेजा।
मोरोपंत भांडेरी फाटक से निकल कर अंजनी की टौरिया तक आया, परंतु जैसे ही यहाँ लड़ाई छिड़ी, उसने समझ लिया कि हाथी महान संकट का कारण होगा। उसने दतिया की दिशा में हाथी को मोड़ दिया और जितनी तेज़ी सम्भव थी उतनी तेज़ी के साथ भागा। कुछ अंग्रेज सवारों ने पीछा किया। उसकी जाँघ में किसी घुड़सवार की तलवार का घाव भी लगा, परंतु वह निकल गया और सवेरे दतिया पहुँच गया। एक तंबोली के यहाँ ठहरा। परंतु छिपाए छिप नहीं सकता था। राज्य अधिकारियों को मालूम हो गया। राज्य ने हीरे जवाहर सब ज़ब्त कर लिए और मोरोपंत को पकड़ कर तुरंत झाँसी भेज दिया।
रोज़ ने दिन के दो बजे जलते हुए महल और भस्मीभूत पुस्तकालय ने बीचों बीच मोरोपंत को फाँसी दे दी!
77
जैसे ही झलकारी को मालूम हुआ कि रानी भांडेरी फाटक से बाहर निकल गई, उसने चैन की साँस ली। घर के एक कोने में थोड़ी देर पड़ी रही। पूरन बाहर आया।
बोला, “अब इतै से भगने पर है।”
झलकारी -“तुम चल एजाओ। मैं घरै हो। गोरा लुगाइयन से नई बोल है।”
पूरन - “मैं क़हत इतै से चल। ज़िद्द जिन कर। तय मारी जैय और मैं मारो जैओ।”
झलकारी - “देखौ मोसै हठ न करौ। कऊँ जा दुकौ। मैं घर न छोड़ हो, न छोड़ हो, बालाजी की सौगंध।”
पूरन उसके हठीले स्वभाव को जानता था। वह एक लोटा पानी लेकर एक खंडहल में जा छिपा।
थोड़ी देर में झलकारी को अपने दरवाज़े के सामने घोड़े की ताप का शब्द सुनाहु पड़ा। झाँक कर देखा। बिना सवार का बधिया घोड़ा जीन लगाम समेत। जीन से जान पड़ता था कि झाँसी की सेना का है। झलकारी समझ गई कि सवार मारा गया और घोड़ा भाग खड़ा हुआ है।
झलकारी ने किवाड़ खोले। घोड़े को पकड़ा। और घर के पास वाले पेड़ से बांध दिया। फिर भीतर चली गई।
उसने एक योजना सोची और उसको कार्यान्वित करने का निश्चय किया। जब उसने निश्चय किया तब वह सीधी तनकर खड़ी हो गई थी। झलकारी ने अपना शृंगार किया। बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहने ठीक उसी तरह जैसे लक्ष्मीबाई करती थी। गले के लिए हार न था, परंतु काँच के गरियों का कंठा था। उसको गले में डाल लिया। प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगी।
प्रातःकाल के पहिले ही हाथ मुँह धोकर तैयार हो गई।
पौ फटते ही घोड़े पर बैठी और ऐंठ के साथ अंग्रेज़ी छावनी की ओर चल ड़ी। साथ में कोई हथियार न लिया। चोली में केवल एक छुरी रख ली।
थोड़ी ही दूर पर गोरों का पहरा मिला। टोकी गई।
झलकारी को अपने भीतर भाषा और शब्दों की कमी पहले पहल जान पड़ी। परंतु वह जानती थी कि गोरों के साथ चाहे जैसा भी बोलने में कोई हानि न होगी।
झलकारी ने टोकने के उत्तर में कहा, “हम तुम्हारे जँडेल के पास जाउता हैं।”
यदि कोई हिंदुस्तानी इस भाषा को सुनता तो उसकी हँसी बिना आए न रहती।
एक गोरा हिंदी के कूच शब्द जानता था। बोला, ‘कौन?”
“रानी - झाँसी की रानी, लक्ष्मीबाई”, झलकारी ने बड़ी हेकड़ी के साथ जवाब दिया।
गोरों ने उसको घेर लिया।
उन लोगों ने आपस में तुरंत सलाह की।
“जनरल रोज़ के पास अविलम्ब ले चलना चाहिए।”
उसको घेरकर गोरे अपनी छावनी की ओर बढ़े।
शहर भर के गोरों में हल्ला फैल गया कि झाँसी की रानी पकड़ ली गई। गोरे सिपाही ख़ुशी में पागल हो गए। उनसे बढ़कर पागल झलकारी थी।
उसको विश्वास था कि मेटी जँच पड़ताल और हत्या में जब तक अंग्रेज उलझेंगे तब तक रानी को इतना समय मिल जावेगा कि काफ़ी दूर निकल जावेगी और बच जावेगी।
झलकारी रोज़ के सामने पहुँचाई गई। वह घोड़े से नहीं उतरी। रानियों की सी शान, वैसा ही अभिमान, वही हेकड़ी। रोज़ भी कुछ देर के लिए धोखे में आ गया।
शकल सूरत वैसी ही सुंदर केवल रंग वह नहीं था।
रोज़ ने स्टूअर्ट से कहाँ, “how handsome, though dark and terrible.”
स्टूअर्ट बोला, “लेफ़्टिनेंट बोकर को सदल व्यर्थ ही भेजा।”
परंतु छावनी में राव दुल्हाजु था। वह खबर पाकर तुरंत एक आड़ में आया। उसने बारीकी के साथ देखा।
रोज़ के पास आकार दुल्हाजु बोला, “यह रानी नहीं है जनरल साहब। झलकारी कोरिन है। रानी इस प्रकार सामने नहीं आ सकती।”
झलकारी ने दुल्हाजु को पहचान लिया। उसको क्रोध आ गया और वह अपना अभिनय नितांत भूल गई।
क्रुद्ध स्वर में बोली, “अरे पापी, ठाकुर हौकै तैने जौ का करौ।”
दुल्हाजु ज़मीन में गड़ सा गया।
रोज़ को झलकारी की वास्तविकता समझाई गई।
रोज़ के मुँह से निकला, “यह औरत पागल हो गई है।”
रोज़ ने झलकारी को घोड़े पर से उतरवाया।
रोज़ - “तुम रानी नहीं हो। झलकारी कोरिन हो। तुमको गोली मारी जाएगी।”
झलकारी ने निर्भय होकर कहा, “मार डाई, मैं का मरबे खो डरात हो? जैसे इत्तै सिपाही मारे तैसै एक मैं सई।”
रोज़ ने झलकारी के पागलपने का कारण तलाश किया।
मालूम होने पर दंग रह गया।
स्टूअर्ट बोला, “she is mad”
रोज़ ने सिर हिलाकर कहा, “no Stuart if one percent of indian women become so mad as this girl is, we will have to leave all that we have in this country.”
स्टूअर्ट को समझ में आया।
रोज़ ने समझाया,”यह स्त्री हम लोगों को अपने धोखे में उलझाकर रानी के भाग निकलने का समय पाने के लिए यह प्रपंच रचकर आई है, परंतु बोकर पीछे पीछे गया है। आशा है कि वह इस धोखे से बच गया होगा।”
जनरल रोज़ ने झलकारी को तंग नहीं किया। केवल क़ैद में डाल दिया और एक सप्ताह उपरांत छोड़ दिया।
78
सवेरा होते होते रानी भांडेर के नीचे बहने वाली पहुज नदी के किनारे पहुँच गई। तुरंत नहाया धोया, दामोदर राव को कलेवा करवाया। उनके साथियों ने भी थोड़ा सा जलपान लिया। रानी के केवल कुछ अंजलि पानी पिया। झाँसी की दुर्दशा और पाने स्नेहपात्रों के मारे जाने के कारण, उनका कलेजा इतना भरा हुआ था कि कलेवा के नाम से उनको अरुचि हुई।
अंतिम अंजलि का पानी मुँह में डाला था कि झाँसी कि ओर से धूल उड़ती हुई दिखायी पड़ी। रानी ने समझ लिया कि पीछा करने वाले लोग आ रहे हैं।
गुल मुहम्मद ने दूरबीन से देखा। बोला, “ये अंग्रेज लो अमारा इधर वी पिच्छा करता है। हुज़ूर आगे बढ़ें। अम लोग देखता है।”
“नहीं”, रानी ने कहा, और झटपट दामोदर राव को पीठ पर कसा, घोड़े पर सवार होकर बोली।
“इस तरह हम लोग बीन बीन कर मारे जाएँगे। यहाँ आसपास छोटी छोटी टौरियाँ हैं। इनके पीछे खड़े हो। जैसे ही बैरी का दासत निकर आवे पिस्तौलें दागो। दस्ता बंदूक़ या पिस्तौल से जवाब देगा, जवाब चुकने पर तुरंत तलवार से आक्रमण करो।”
गुल मुहम्मद ने समझ लिया - “थोड़े से आदमियों को लेकर रानी कितने बड़े दस्ते का मुक़ाबला कर सकती हैं।”
रानी की टोली ने उसी आदेश के अनुसार काम किया।
लेफ़्टिनेंट बोकर का दस्ता घुड़सवारों का था। ठोस पाते में वे लोग घोड़े दौड़ाते हुए चले आ रहे थे। जैसे ही पिस्तौल की मार में आए रानी की टोली ने आड़ से पिस्तौलों की बाढ़ दागी। बाढ़ का भयंकर प्रभाव हुआ। बोकर के दल के पास पिस्तौलें और बंदूक़ें भी थी, परंतु बंदूके आबरों में पड़ी हुई थी। उन्होंने घबराकर पिस्तौलें ख़ाली कर दी। रानी ने तुरंत तलवार से हमला किया। अंग्रेज दस्ते के दो दो तीन तीन सवार रानी के साथियों के पल्ले पड़े। एक सवार को तो रानी ने कमाल की सवारी करके घोड़े समेत चीर दिया। बोकर रानी के ऊपर घोड़े को ज़ोर की एड लगाकर लपका। रानी ने विलक्षण चतुरता के साथ अपने घोड़े को पीछे हटकर बोकर के सपाटे हो व्यर्थ कर दिया। फिर वह उस पर झपटी और तलवार का वार किया।
बोकर घायल होकर गिरा। शेष दस्ता अपने प्राण लेकर भाग। रानी पर भागते हुए सवारों में से एक ने गोली चली। रानी बच गई, गोली घोड़े का पिछला हिस्सा छीलती हुई चली गई।
रानी की गाँठ में अब केवल मुंदर, गुल मुहम्मद, देशमुख और रघुनाथ सिंह बचे- बाक़ी सब मारे गए। परंतु इन बहादुरों ने बोकर के दस्ते हो कुंठित कर दिया, लौटा दिया। बोकर को उसके संगी झाँसी उठा ले गए। उसके लौटने पर रोज़ को झलकारी के कृत्य का पूरा मर्म और अच्छी तरह समझ में आ गया।
रानी पहुजा पार करके कालपी की ओर तेज़ी के साथ चल पड़ी।
मार्ग में उनका प्यार घोड़ा यकायक रुका। उसके घाव से बहुत खून निकल चुका था, और उसको दिल तोड़ परिश्रम करना पड़ा था। मार गया। एक गाँव वाले ने उनको अपना अच्छा घोड़ा दे दिया। रानी केवल पानी पीती हुई आधि रात के लगभग कालपी पहुँची। एक सौ दो मील का मार्ग तय करके। दिन भर कूच भी न खाकर उस तेज धूप में इस पर भी पहुँचते ही उन्होंने काशीबाई और जूही के समबंध में तात्या से प्रश्न किया।
तात्या ने उत्तर दिया, “काशीबाई झाँसी के संग्राम में मारी गई। जूही बच गई। इस समय वह शिविर में राव साहब के रनवास के साथ है। आज्ञा हो तो बुलवाऊँ?”
“नहीं” रानी ने निषेध किया, “कल संध्या समय मिलूँगी।”
इसके उपरांत तात्या ने सविस्तार अपनी झाँसी वाली लड़ाई का वृतांत थोड़े ही समय में सुना दिया। उन्होंने धैर्य के साथ सुना।
फिर उन्होंने स्नान किया। कपड़े बदले और केवल शरबत पीकर सो गयी।
उस दिन झाँसी में जो कुछ हुआ वह एक अत्यंत वीभत्स कांड है। इंग्लैंड के माथे का अमिट कलंक। झाँसी उसको कभी न भूली।
क़िले पर अधिकार करने के बाद असंख्य मकान जलाए गए। बालक, युवा, वृद्ध गोलियों से उड़ाए गए। बेहद लूटमार की गई। लाशों के ढेर लग गए। गायें और बछड़े अनाथ होकर भटकने और जलने लगे। सात दिन तक लाशें सड़ती रहीं। लगभग तीन सहस्र निरपराध व्यक्तियों का वध किया गया।
महालक्ष्मी का मंदिर लूट गया।
अंग्रेज़ी सेना के नायकों और ऊँचे अफ़सरों तक ने एक अत्यंत बर्बर कृत्य में भाग लिया। शेक्सपियर, मिल्टन, स्कॉट और बर्क के देश के शिक्षित तथा विज्ञान विदग्ध अफ़सरों ने, मंदिरों की मूर्तियाँ, सिंहासनों पर से उठाई, झोली में रक्खी और अपने शराबखानों को सजाने के लिए सदा के के लिए ले गए और इस कुकृत्य को अंग्रेज इतिहास लेखक ने इस प्रकार प्रकट किया, “मूर्तियों का चुराना ‘लूट’ नहीं थी, यह तो कुतूहल जनित जिज्ञासा की पूर्ति मात्र थी?”
मुरलीमनोहर के मंदिर की मूर्ती बचा दी तो बुद्धे पुजारी को मंदिर के भीतर ही मार डाला। उसके जवान लड़के को पकड़ कर मंदिर के बाहर लाए। एक गोली चली। फिर उसकी बुद्धि माँ को कभी पता नहीं चला कि लड़का कहाँ गया?
पहले दिन अंग्रेजों ने लूटमार की। दूसरे सिन मद्रासी दस्ते को अवसर दिया गया। तीसरे दिन निज़ाम हैदराबाद की पलटन की बारी आई। अनाज, बर्तन, कपड़े तक न छोड़े गए।
केवल एक स्थान वध से बचा। वह था बिहारीलाल जी का मंदिर। कदाचित इस कारण कि वह एक कोने में था और उस पर कोई शिखर न था।
आरम्भ के क़त्ल के बाद कुछ लोग माधवराव भिढ़े के बाग में आ छिपे।एक अंग्रेज अफ़सर के हृदय के किसी कोने में कुछ मानवता बाक़ी थी। उसने इन लोगों का वध नहीं होने दिया। इस बाग की चौड़ी दीवारें पोली थी। पूना के पास का एक शास्त्री ऊँ दिनों अपने दुर्भाग्य से झाँसी में आ फँसा था। वह दिवार की एक खोल में रात भर ठूँस रहा। पीठ से पीठ सटा कर वही एक स्त्री भी प्राणों की ख़ैर मनाती रही। समय पाकर शास्त्री किसी प्रकार अपने निवास स्थान पर पहुँचा। तमाखू खाने की आदत थी, पर लुटेरे घर में से उसे भी गत दिवस की लूट में उठा ले गए थे। उसी समय कुछ मद्रासी दस्ते वाले फिर घुस आए। उन्होंने बचे खुचे बर्तन भी खसोटे। शास्त्री ने भी अपनी एक ज़रूरत पूरी की।
लुटेरों से कहा, “थोड़ी खाने की तमाखू हो तो दिए जाओ।”
बर्तनों के बदले में थोड़ी दी तमाखू मिल गई। विदेशी होते तो शायद खाने को संगीन मिलती।
रोज़ का एक दस्ता घूमता भटकता, टक्करें लेता देता मऊरानीपुर होकर निकला। झाँसी के पतन का समाचार पाने पर भी काशीनाथ भैया और आनंदराय इस दस्ते से भिड़ गए।
मऊ की गढ़ी छोटी साई थी। तोपें गाँठ में न थी। इसलिए ये लोग अपना छोटा सा बंदूकची दल लेकर मऊ के बाहर की टौरिया की आड़ में पहुँचे और मुक़ाबिल किया। खूब डटकर लड़े और सब मारे गए। आनंद राय का लड़का भी साथ था। मरने के पहले आनंद राय ने लड़के से कहा, “यदि कभी रानी साहब के दर्शन हो, तो कहना कि मऊ झाँसी से पीछे नहीं रही।
लड़का कुछ महीने बाद गिरफ़्तार हो गया। परंतु उन्ही दिनों विक्टोरिया की क्षमा घोषणा हुई और वह फाँसी से बच गया। इस प्रकार की घटनाएँ झाँसी ज़िले के उन सब गावों में हुई जहां एक छोटी मोटी भी गढ़ी थी, और जनता को हथियार पकड़ने की साँस मिली थी।
आठवें दिन झाँसी में रोज़ का ऐलान हुआ, “खलक ख़ुदा का, मुलक बादशाह का, अमल कम्पनी सरकार का।”
परंतु इन सात दिनों हवा में जो स्तब्ध घोषणा घूमी थी यह थी, “खलक शैतान का, मुल्क शैतान का, अमल शैतान का।”
रोज़ को झाँसी ज़िले में ‘कम्पनी सरकार का अमल’ क़ायम करने में क़रीब एक महीना लग गया।
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