Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 25 - Vrindavan Lal Verma
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रानी ने झटपट दलपतियों और गोलंदाज़ों को यथोचित आज्ञाएँ दीं। अंग्रेजों का निश्चय जान पड़ता था कि कहीं से भी परकोटे की दीवार को फोड़े और झाँसी में घुस पड़े और झाँसी वालों का निश्चय था कि जब तक शरीर में रक्त है तब तक दूषन का पैर झाँसी के भीतर न पड़ने देंगे।
झाँसी की गोलाबारी से आकाश में चलते हुए गोलों की आग की चादर तन गई। इस चादर में से अंग्रेज़ी सेना के सिर पर फटे हुए गोलों से गोलोयन, कीले-किर्चें बरसती थी। भूनकर ख़ाक कर डालने वाली हवाइयाँ विस्फोट कर रही थी। दक्षिणी मोर्चे पर, जीवनशाह को टौरिया से लेकर ओरछा फाटक के सामने वाली टेक तक अंग्रेज़ी तोपख़ाने अत्यंत वेग के साथ जवाब दे रहे थे।
अपने तोपख़ानों के रक्षा में अंग्रेज बंदूकची जीवनशाह की टौरिया से ओरछा फाटक की टेकडी के बीच में संतरे बांधकर ओरछा फाटक और सैयर फाटक की ओर बढ़े। परकोटे की बुर्जों और काट की दीवार के छेदों में से बन्दूकों और हल्की तोपों ने यमराज के शापों को उगला। अंग्रेज़ी पलटन बिछने लगी। पैर उखड़े। पीछे भागने को हुई परंतु उस क्रिया में भी उद्धार न पाकर मार्ग के पत्थरों की ओट में छिप गई। लेकिन एक दस्ता ओरछा फाटक की ओर बढ़ गया। अंग्रेज़ी तोपख़ाने ने भीषणतर गोलाबारी आरम्भ की। सैयर फाटक की ओर भी एक दस्ता बढ़ा।
रानी और मोतीबाई ने दूरबीन से देखा। ओरछा फाटक के सामने वाली टेक के पीछे लाल झंडा उठा। ओरछा फाटक के सामने वाली टेक के पीछे लाल झंडा उठा। ओरछा फाटक पर का तोपख़ाना कुछ धीमा पड़ा।
‘सरकार’, मोतीबाई ने अनुनय किया, “मुझको उस ओर जाने दीजिए। सुंदर अकेली है। दुल्हाजु के हाथ पाँव ढीले हो गए हैं।”
“जाओ मोती। हीरा बनकर लौटना’ रानी ने कहा।
मोतीबाई चली गई। खुदाबख्श सैयर फाटक था। उसने मोतीबाई ओ आगे नहीं बढ़ने दिया।
बोला, “ओरछा फाटक पर मत जाओ। यहीं मेरे साथ रहो आज मैं अपने देश, अपनी रानी का नमक अदा करूँगा। मरूँगा। मेरी लाश को ठिकाने लगा देना।”
मोतीबाई का चेहरा कुम्हलाया हुआ था, परंतु उसके सौंदर्य की किरणें छुटकी पड़ रही थी। आँखों में आँसू आ गए।
तोप पर पलीता डालते डालते ख़ुदाबख्श ने चिल्लाकर कहा, “यह वक़्त आंसुओं का है?”
मोतीबाई ने बारूद की कालोच वाले हाथों से से आँसू मसल डाले। बोली, “नहीं। अब आँसू नहीं आवेंगे।”
मोतीबाई आँख मिलाकर बोली, “और हमेशा के लिए मैं आपकी।”
खुदाबख्श ने देखा कि रास्ते पर गोरे फाटक की ओर बढ़े चले आ रहे हैं। तोपों और बन्दूकों की बाढ़ हुई।
खुदाबख्श ने मोतीबाई को आदेश दिया, “दाहिने हाथ की पूरी सतर तक बंदूक़ें, पत्थर, काटे हुए पेड़ों के लक्कड़ इन लोगों के सिर पर पटकवाओ। दौड़ो। अंग्रेज वहाँ से सीढ़ी लगाकर चढ़ने का उपाय कर रहे हैं।”
मोतीबाई दौड़ी। सीढ़ी लगाने का उपाय करने वाले सब के सब मारे गए - उनके ऊपर गोलियाँ, पत्थरों के बड़े बड़े धोके और काटे हुए पेड़ों के लक्कड़ जो वहाँ पहले से जमा थे बरसाए गए। शहर और क़िले से ढोल, ताशे और तुरही का कान फोड़ने वाला नाद हुआ। अंग्रेजों ने अपनी पैदल पलटन को वापिस बुलाने का बिगुल बजाया। पलटन गिरते मरते लौट पड़ी।
रोज़ जीवनशाह की टौरिया के पीछे घोड़े पर था और उसके मातहत अफ़सर बग़ल में।
रोज़ ने कहा, “now or never! (या तो अभी या कभी नहीं।)। तार से यह आदेश ओरछा फाटक टेक और जार पहाड़ी के तोपख़ानों को दिया गया। ओरछा फाटक टेक ने इसका जो अर्थ लगाया वह लाल झंडे को और ऊँचा करना था।
इधर रोज़ के चार अफ़सर - चारों लेफ़्टिनेंट- यौवन प्रमत्त - टेकडियों, पत्थरों और पानी तोपों की बाढ़ों की आड़ें लेते हुए सैयर फाटक की दाहिनी बग़ल की टेक की दीवार के नीचे पहुँच गए। उस जगह दीवार थोड़ी देर पहले ही आधि धुस्स हो गयी थी। साथ ही उस जगह वाले झाँसी के सैनिक मारे गए थे। इन अफ़सरों में से दो ने अपनी देह की सीढ़ी बनाई। उन पर से बाक़ी दोनो चढ़ गए। इन दोनों ने अपनी सेना के एक दस्ते को संकेत किया। दस्ता आगे बाधा। इतने में तलवार लिए मोतीबाई टूट पड़ी। लेफ़्टिनेंट ने पिस्तौल चलाई। ख़ाली गई। मोतीबाई ने एक बात में ही उसको खतम कर दिया। दूसरे लेफ़्टिनेंट ने तलवार के हाथ किए, परंतु मोतीबाई ने उसको भी समाप्त किया। नीचे वाले दोनों अफ़सर एक पत्थर की आड़ में छिप गए। इतने में झाँसी के दूसरे सिपाही वाहन आ गए। खुदाबख्श के तोपख़ाने ने आगे बढ़ते हुए दस्ते को नष्ट कर दिया और मोतीबाई के निकट वाले सिपाहियों ने उन दोनो लेफ़्टिनेंट को बंदूक़ से समाप्त कर दिया। यह अंग्रेज़ी सेना की दूसरी हार हुई।
उत्तरी फाटकों पर भी ज़ोर का हमला था, परंतु ठाकुरों, काछियों, कोरियों और तेलियों की चतुरता तथा बहादुरी के कारण वहाँ अंग्रेज कुछ नहीं कर पा रहे थे।
इधर दक्षिणी मोर्चों पर अंग्रेजों ने तीसरा आक्रमण शुरू किया।
रानी ने क़िले पर से देखा कि ओरछा फाटक का तोपख़ाना बहुत मंद गति से काम कर रहा है। उन्होंने रामचंद्र देशमुख को तुरंत भेजा, परंतु देशमुख को वहाँ तक पहुँचने के लिए समय चाहिए था।
मोतीबाई खुदाबख्श के पास पहुँच गई। ओरछा फाटक की टेक के पीछे लाल झंडा और ऊँचा हुआ। खूब हिला कर फिर छिप गया। दुल्हाजु ने केवल बारूद भर भर कर तोप चलाई - उसमें से गोले निकलते ही कैसे?
सुंदर उसके पश्चिम की ओर ज़रा हट कर ऊँची बुर्ज पर से तोप चला रही थी। उसके साथी गोलंदाज मारे जा चुके थे। केवल उसकी तोप कुछ काम कर रही थी। उसने दुल्हाजु का व्यापार देख लिया।
सामने की टेक के पीछे से गोरी पलटनें टिड्डी दल की तरह उबर पड़ी और ‘हुर्रा’ घोष करती हुई भरोसे के साथ ओरछा फाटक पर दौड़ी। दुल्हाजु लोहे का एक छड़ हाथ में लेकर बुर्ज से नीचे तुरंत उतरा। सुंदर को समझने में एक जन की भी देर नहीं लगी। उसने भी तोप छोड़ दी। केवल तलवार उसके पास थी। तलवार खींच कर अपनी बुर्ज से नीचे उतरी। वहाँ से ओरछा फाटक ज़रा दूर पड़ता था।
सुंदर के नीचे उतर पाने के पहले ही दुल्हाजु फाटक के पास पहुँच चुका था। फाटक पर मोटी साँकलों और कुंडों में मोटी झर वाले ताले पड़े हुए थे। कुंजियाँ क़िले में थी, परंतु दुल्हाजु के हाथ में लोहे की मोटी छड़ी तो थी। उसने ज़रा भी विलम्ब नहीं किया।
उच्छल कर ताले में छड़ डाली। तड़ाक से ताला टूट गया। दूसरे और तीसरे में डाली। सब टूट गए। सो साँकलों को भी तोड़ दिया और तीसरी साँकल खोल दी। फाटक केवल भिड़े रह गए। दुल्हाजु फाटकों को खोल नहीं पाया था कि नंगी तलवार लिए सुंदर आ पहुँची।
“देशद्रोही, नरक के कीड़े’ सुंदर ने कड़ककर कहा, तू अंग्रेजों से कुछ नहीं पावेगा।” सुंदर दुल्हाजु पर पिल पड़ी।
उसकी तलवार का वार दुल्हाजु ने लोहे की छड़ पर झेला। तलवार झन्ना कर बीच में टूट गई। तलवार का जो टुकड़ा, सुंदर की मुट्ठी में बचा था उसी को तानकर सुंदर दुल्हाजु पर उछली। दुल्हाजु ने छड़ का सीधा हूला दिया। वह ठप से बाएँ वक्ष पर लगा। साथ ही बाहर तुमुल ‘हुर्रा’ घोष हुआ।
चोट की परवाह न करके सुंदर ने फिर वार किया। दुल्हाजु पीछे हटा। परंतु उसने सुंदर के पेट पर छड़ अदा दी। उधर गोरों ने धक्के से फाटक खोल लिया। सुंदर के मुँह से ‘हर हर महादेव’ निकला था कि एक गोरे की गोली ने सौंदर्यमयी सुंदर को अमर कर दिया। गोली उसके सिर पर पड़ी थी।
दुल्हाजु ने छड़ पृथ्वी पर टेक दी। दुल्हाजु पर भी गोरों की बंदूक़ें सीढ़ी हुई परंतु उनके अफ़सर ब्रिगेडियर ने तुरंत निवारण किया, “our man”।
गोरों ने बंदूक़ें नीची कर ली। टिड्डी दल की तरह भीतर घुस पड़े।
अफ़सर ने कहा, “यह रानी है?”
दुल्हाजु ने उत्तर दिया, “नहीं साहब महज़ नौकरानी।”
अफ़सर ने अपने साथियों से कहा, “But a soldier. She will have a soldier’s honor.”
स्वर्गवासिनी सुंदर की दृढ़ मुट्ठी अभी ढीली नहीं हुई थी। तलवार का छोटा सा टुकड़ा अब भी उसकी मुट्ठी में था। दो गोरे उसके शरीर को बाहर ले गए और पत्थरों से दाब दिया। जहां उनके और नत्थेखां के भी अनेक सिपाही दबे हुए थे। उसके उपरांत वे लोग सब दिशाओं में, शहर में घुसने लगे।
टेक के पीछे से रोज़ के पास तार द्वारा नगर विजय का संवाद पहुँचा।
रोज़ ने अफ़सरों से कहा,”उस आदमी को जागीर में गाँव पक्के हुए।” दुल्हाजु के उस कृत्य का समाचार बहुत शीघ्र चारों ओर फैल गया।
फिर रोज़ ने तुरंत आदेश दिया कि सैयर फाटक को तोड़ो शहर में बढ़ो और सब बाग़ियों का नाश करो।
खुदाबख्श के फाटक पर क़हर पर क़हर बरसने लगे। इसी समय रामचंद्र देशमुख घोड़े पर आया। उसी समय एक गोली खुदाबख्श को लगी। सैयर फाटक का तोपख़ाना बैंड हुआ। एक अंग्रेज दीवार पर चढ़ा। मोतीबाई ने तलवार से उसका सिर कलम कर दिया और खुदाबख्श की लाश को टांग कर नीचे उतर आई। रामचंद्र ने मोतीबाई को अपने पीछे घोड़े पर बिठलाया और लाश को सामने लाद कर क़िले पर चढ़ आया। उसके क़िले में आते ही क़िले का फाटक बैंड कर लिया गया। लाश को महल के पास रख कर धाक दिया गया। मोतीबाई की आँख से आँसू नहीं निकला।
रानी आ गई।
“मोतीबाई”, रानी ने कहा, “तुम लोगों का अक्षय करम मैंने अपनी आँखों देखा है।”
“सरकार” , मोतीबाई ने भर्राए हुए स्वर में कहा, “काम देखिए। अपने पास क़िला अब भी है और आप हैं। मैंने इनका प्रबंध करती हूँ।”
“महल के बिलकुल निकट ही” , रानी कंठ को संयत कर के बोली, “कुंवर साहब को दफ़नाया जावे।”
देशमुख ने पूछा,”सुंदर?”
“ओरछा फाटक पर मारी गई”, मोतीबाई ने उत्तर दिया, “दुल्हाजु ने देश द्रोह करके फाटक खोल दिया।”
रानी ने होंठ सटाए।
धीरे से बोली, “जीवन में यही बड़ा भारी धोखा खाया।”
फिर उन्होंने ज़रा ज़ोर से कहा, “बरहामुद्दीन ने ठीक कहा था उसके साथ अन्याय हुआ। कहाँ है, कुछ जानते हो देशमुख?”
“नहीं सरकार”, देशमुख ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
रानी ने अंगरखे की जेब में हाथ डाला।
बरहामुद्दीन का इस्तीफ़ा जेब में था। उसको उन्होंने वहीं पड़ा रहने दिया।
मोतीबाई ने महल के पास ही कबर के लिए मिट्टी खुदवानी आरम्भ कर दी और बहुत शीघ्र एक बाद गड्ढा खुदवा लिया।
रानी दूरबीन लेकर ऊपर के बुर्ज पर चढ़ गई।
रोज़ नगर की बुर्ज पर बुर्ज अपने अधिकार में करता चला जा रहा था। गोरे शहर भर में फैलते चले जा रहे थे। झाँसी की सेना मारती - कटती जा रही थी। आगें लगाई जा रही थी। झाँसी में हाहाकार हो रहा था और उसके साथ तुमुल ‘हुर्रा’ घोष। रानी ने देखा कि शहर वाले महल, नाटकशाला और महल के सामने वाले विशाल पुस्तकालय को, गोरे घेरने का प्रयास कर रहे हैं और इन स्थानों के भीतर बंद झाँसी के सैनिक लड़ रहे हैं।
तब वे बुर्ज से नीचे उतर आई।
एक पेड़ के नीचे पत्तर पर बैठकर सोचने लगी, “झाँसी का सर्वनाश होने को है। स्वराज्य की स्थापना अभी दूर है। परंतु कारण करने मात्र का अधिकार है, फल से हमको क्या?”
उठ खड़ी हुई।
जवाहर सिंह, रघुनाथ सिंह, ग़ुलाम गौसखां, भाऊ बख्शी, गुल मुहम्मद, भोपटकर इत्यादि सरदारों को बुलवाया। उन लोगों को अपना निश्चय सुनाया -
“बाहर निकल कर लड़ो, गोरों को शहर से निकालो और झाँसी की रक्षा करो।
सलाह सम्मति का न तो समय था और न मौक़ा।
गुल मुहम्मद ने कहा, “हुज़ूर को शुक्रिया। फ़ौरन चले। गोरों को शहर से निकालें।
रानी ने आदेश दिया, “गोलंदाज अपने अपने ठियों पर काम करते रहें।”
भाऊ बख्शी ने आगे बढ़कर रानी के पैर पकड़ लिए।
प्रार्थना की, “सरकार मुझको बाहर साथ जाते की आज्ञा दी जाय। मेरी तोप पर किसी और को कर दिया जाय।
“अच्छा, गोलंदाज़ों में से केवल तुम”, रानी ने कहा, “जल्दी करो। विलम्ब का काम नहीं है।”
बख्शी साथ हो गया।
भोपटकर की अच्छा न थी कि रानी बाहर जाकर लड़ें, परंतु वह स्तब्ध रह गया। रानी फुर्ती के साथ तैयार होकर क़िले के बाहर हो गई। साथ में पठान, बुंदेलखंसी इत्यादि पंद्रह सौ सैनिक। पीछे भोपटकर भी गया। दक्षिण की ओर से आ आ कर गोरे महल के पश्चिम की ओर बाढ़ रहे थे।
रानी झंजावात की तरह पहले दक्षिण की ओर झपटी, जहां से अंग्रेज़ी सेना घुसी चली आ रही थी। रानी का छापा इतना प्रचंड था कि अंग्रेज़ी सेना घुसी चली आ रही थी। रानी का छापा इतना प्रचंड था कि अंग्रेज़ी सेना भागी। पूर्व की ओर के मकानों की आड़ से बंदूक़ें चलाने लगी। तलवारों की मार के सामने वह बिलकुल न ठहर सकी।
रानी ने चिल्लाकर कहा, “आज प्रमाणित कर दो कि हिंदुस्तानी सिपाही की तलवार की सामने संसार का कोई योद्धा नहीं टिक सकता।”
उनके दस्ते ने ऐसी तलवार चलाई कि गोरी पलटन बिखर कर हट गई, परंतु मकानों की आड़ से गोलियाँ चलाने लगी। पाँच सौ पठान दक्षिण और पूर्व दिशाओं में फैलकर फिर भी गोरों को पीछे हटाते रहे - और मरते रहे। रानी के महल और हाथीखाने के आसपास टकसाल तक गोरी सेना फैली हुई थी और उसके लिए मकानों की आड़ थी। उसका जवाब देने के लिए रानी के सेना उसी प्रकार और उसी दिशा में फैली। गोरी सेना के कुछ सिपाही दबाव पड़ने के पारण पश्चिमी दिशा की ओर खंडेराव फाटक की ओर बढ़े।वहाँ उनको अटकना पड़ा।
रानी उसी ओर बध रही थी कि उन्होहने देखा एक इपहि किसी मकान में से निकल पड़ा और अकेले उन कई गोरों से भिड़ गया। उसने ऐसी तलवार चलाई कि कई गोरे हताहत हुए। कुछ और गोरे आ गए। वह सिपाही घी गया। तो भी वह अकेला उनको पछेलता गया। रानी ने अपने घोड़े को तेज किया। पीछे पीछे उनके सिपाही दौड़े। रानी के पहुँचते पहुँचते वह सिपाही और गोरे पंचकुइयों से नीचे की तरफ़ पहुँच गए। उस अकेले सिपाही ने फिर कई गोरों को तलवार से घात उतारा, परंतु यकायक उस पर कई वार पड़े और वह गिर गया। इतने में रानी सैनिकों सहित आ पहुँची। गोरे भाग गए।
रानी ने पास जाकर देखा - “बरहामुद्दीन था। उसके मरने में कुछ क्षण बाक़ी थे। बेचैन था। रानी घोड़े पर से उतरी। बरहाम के सिर पर हाथ फेरा। बरहाम ने पहिचान लिया। उसने आँखें फाड़ी, पूरा बल लगाया। लेकिन कठिनाई से बोल पाया, “हुज़ूर माफ़ी।”
मुश्किल से रानी के मुँह से निकला, “तुम सच्चे सिपाही हो। माफ़ किया।”
फिर ज़ोर लगाकर बरहाम ने कहा, “सरकार जान नहीं निकलती। मेरी चि…. ट…. ठी।”
रानी ने जेब से उसके इस्तीफ़े का काग़ज़ निकाला। “यह लो” रानी बोली।
“नहीं स.. र.. का…. र “, बड़ी मुश्किल से बरहाम ने कहा, “फाड़ ड़ा.. लि…. ये तब जान नि.. क… ले.. गी।”
रानी ने तुरंत चिट्ठी की चिंदी चिंदी कर डाली।
बरहामुद्दीन के मुखमंडल पर उस घोर पीड़ा में आनंद की छप लग गई। उसके अंतिम शब्द थे ज… ल… बा…. अल्ला…. ह।”
भाऊ ने आकाश की ओर दृष्टि करके कहा, “आहा कैसा मीठा मरण है यह। भगवान मेरी भी ऐसी ही सदगती हो।”
बरहामुद्दीन का प्राणांत हो गया।
रानी ने हुकुम दिया। इसी स्थान पर इसकी कबर बनाई जाय।
पास के रहने वालों को कबर का प्रबंध देकर रानी और इनके सैनिक गोरों पर झपटे। वे भागे। अब पश्चिम से पूर्व होती हुई दक्षिण तक रानी के सैनिकों की एक पाट साई बन गई। पीठ पर क़िला था।
यकायक वृद्ध नाना भोपटकर रानी के सामने आ गया।
बोला, “पहले इस बूढ़े ब्राह्मण का वध करिए तब आप गोली खाइए।”
रानी - “नाना साहब - यह क्या?”
नाना -“ आप देखती नहीं हैं, गोरे मकानों की आड़ से गोली चला रहे हैं और अप्पके सैनिक हताहत हो रहे हैं। आप पर एक गोली पड़ी कि समग्र झाँसी रसातल को गई। अभी अपने हाथ में क़िला है। लड़ाई जारी रक्खी जा सकती हैं। लौटिए या मेरा वध करिए।
रानी को समझ में आ गया।
गुल मुहम्मद पास आ गया था। उसने भी कहा, “सरकार, बुद्धा ठीक बोलता है। अंदर चलें।”
उत्तरी फाटक से रानी क़िले में भाऊ और नाना भोपटकर के साथ चली गई। गुल मुहम्मद के साथ तीन सौ पठान ही भीतर जा सके। बाक़ी सब बाहर लड़ाई में मारे गाए। बुंदेलखंडी सैनिक लगभग सब कर मरे। क़िले के फाटक बंद कर लिए गए।
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गोरों ने सहर के सब फाटकों पर अपना प्रबंध कर लिया, उनको अपने उन निस्शस्त्र पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के खून का बदला लेना था, जिनको बख़्शीशअली इत्यादि
बहुत थोड़े से हिंदुस्तानियों ने मारा था। पाँच वर्ष की आयु से अस्सी वर्ष तक के जितने पुरुष मिले उनका क़त्ल शुरू कर दिया। हलवाईपुरा में आग लगा दी। कुछ स्त्रियाँ अपने सतीत्व के नष्ट होने के भय से कुओं में गिरकर मर गई। रोज़ का आदेश था कि स्त्रियों को न मारा जाय, उनको जान बूझ कर गोरों ने नहीं मारा। लेकिन अपने पति की रक्षा के लिए को स्त्रियाँ उनकी आड़ बन्ने के लिए आ गई वे गोलियों से मारी। झाँसी के कवि और गायक भी लड़े थे, वे मारे गए या घायल हुए। गवैयों में केवल मुग़लखाँ बचा और नर्तकी में दुर्गा और एक और।
गोरों ने घर घर में घुसना और सोना चाँदी इत्यादि सामान लूटना शुरू किया।
शहर वाले राज महल के चारों ओर अंग्रेज़ी सेना का सबसे अधिक उपद्रव हुआ। नतक्षाल के सामने दक्षिण की ओर रानी का अस्तबल था। उस अस्तबल को रानी के बुंदेलखंडी सिपाहियों ने क़िले की लड़ाई में परिवर्तित कर दिया। थे लगभग कुल पचास ही। परंतु जब तक एक भी ज़िंदा रहा, अंग्रेजों ने अस्तबल पर क़ब्ज़ा नहीं कर पाया।एक एक दीवार, एक एक कोठरी, एक एक ईंट पर क़ब्ज़ा करने में अंग्रेजों को न जाने कितने सिपाही बलिदान करने पड़े।
इसके बाद महल की एक एक इंच भूमि के लिए युद्ध हुआ। जब महल के सब सिपाही खतम हो गए उस पर भी क़ब्ज़ा हो गया। सब सामान लूटा। एक बक्स में से यूनीयन जैक झंडा मिला, जिसे लॉर्ड विलियम बैटिक ने रामचंद्रराव को दिया था महल के सिरे पर वह झंडा लगा दिया गया। महल के केवल उस भाग को छोड़कर, जिस पर यूनीयन जैक फहरा रहा था, बाक़ी महल में आग लगा दी गई। नाटकशाला भी न बची। सुंदर पर्दे, जिनकी सहायता से शकुंतला, रत्नावली, और हरीशचंद्र नाटक खेले जाते थे, ख़ाक कर दिए गए।
और इसके बाद जो कूच हुआ उससे उन बर्बरों की पाश्विकता इतिहास में अमित अक्षरों में लिख ली गई - महल के सामने वाले विशाल पुस्तकालय में आग लगा दी गई! थोड़ी देर में कलाओं का वह भंडार अग्नि की गगनभेदी लौ फेंकने लगा। कभी रोम, सिकंदरिया और राज गृह में भी ऐसा हु आ था, परंतु वह बर्बर युग था! और यह विज्ञान का सभ्य युग!!
रानी ने क़िले पर से देखा। उनके हाथ में दूरबीन न होती तो भी दिखलाई पड़ सकता था। पर दूरबीन ने सब कूच स्पष्ट दृष्टिगोचर कर दिया।
अस्तबल मीता - फिर बन सकता था। राजमहल जला - उसके बनाने वाले फिर उत्पन्न हो जाएँगे। लेकिन पुस्तकालय? वेद शास्त्र, पूरन, काव्य, इतिहास इत्यादि संस्कृति के और आपबी फ़ारसी के अनेक हस्तलिखित ग्रंथ जिनकी प्रतिलिपि करने के लिए दूर दूर के विद्याव्यसनी आते थे, फिर कौन पैदा करेगा? रानी का माथा घूमने लगा। जिसको किसी कष्ट किसी समस्या, किसी विपत्ति ने कभी नहीं हिला पाया था, वह जलते हुए पुस्तकालय को देखकर मूर्छित होने को हुई। मुंदर साथ थी। उसने सम्भाल लिया। रानी ने प्रबल प्रयत्न करके मूरचहा को दूर किया। पानी मँगवाया, पिता। इतने में हलवाईपुरा और कोरियों के मुहल्ले की आग की लपटें दिखलाई दी। क्रंदन, पकर और चीत्कार की समग्र ध्वनियाँ यकायक सुनाई पड़ी। जैन-वध, कटले आम लोक संहार का प्रत्याख प्रमाण। रन इक हृदय धँसने लगा।
“मुंदर, मुंदर मेरी प्यारी झाँसी की यह कुगति, यह दुर्गति ! और मेरे जीते जी! मेरी आँखों के सामने!” रानी ने भरे गले से कहा। गला फट सा गया। मुंदर उनको खींचकर नीचे ले आई।
महल की चौखट पर बैठ कर वह रोई। लक्ष्मीबाई रोई! वह जिसकी आँखों ने आंसुओं से कभी परिचय भी न किया था! वह जिसका वक्षस्थल वज्र का और हाथ फ़ौलाद के थे! वह जिसके कोश में निराशा का शब्द न था! वह जो भारतीय नारीत्व का गौरव और शान थी! मानो उस दिन हिंदुओं की दुर्गा रोई।
मुश्किल से आंसुओं की अविरल धारा टूटी थी कि रामचंद्र देशमुख ने कर्तव्य वश समाचार दिया, “सरकार कुंवर ग़ुलाम गौस खां दुश्मन की गोली से मारे गए।”
रानी सिंहनी की तरह उछाल कर खड़ी हो गई। अंगरखे के छोर से आँसू पोंछ डाले। गला साफ़ किया।
आज्ञा दी,”भाऊ को उनकी जगह भेजो और लाश को महल के पास।”
आज्ञा पालन के लिए देशमुख चला गया। रानी मुंदर को साथ लेकर दक्षिणी बुर्ज के नीचे, जहां खुदाबख्श के शव के लिए कबर तैयार हो चुकी थी, आईं। मोतीबाई वहाँ थी।
पश्चिमी बुर्ज से भाऊ बख्शी अंग्रेज़ी शिविर पर धड़ाधड गोलाबारी कर रहा था। केंद्रीय बुर्ज से रघुनाथ सिंह। दक्षिणी बुर्ज शांत थी।
“मोतीबाई”, रानी ने कहा, “मैं दफ़नाने का प्रबंध करती हूँ, तुम तब तक इस बुर्ज के तोपख़ाने को जगा दो।”
खुदाबख्श के शव के मोह में मोतीबाई ज़रा ठमठमाई।
रानी बोली,”अभी विलम्ब है। कुंवर ग़ुलाम गौस खां का भी शव यहीं आ रहा है।”
विस्फारित लोचन मोतीबाई ने विस्मय के साथ कहा, “क्या उस्ताद मारे गाए?”
“हाँ मोती”, रानी ने उत्तर दिया। मोतीबाई तोप पर चली गई। पहली बाढ़ दागी थी कि उस पर नज़दीक से गोलियों की बौछार हुई। अंग्रेज क़िले के सदर फाटक के पास आ गए थे और उनको पास से निशाना लेने का सुअवसर था। बुर्जों की मुँडेरें उस दिन के युद्ध में टूट गई थी और उनकी मरम्मत न हो पाई थी। अन्य गोलियाँ तो माओतिबई के आस पास से निकल गई, परंतु एक ने अंधा नीचे से फोड़ दिया। हृदय उसका बच गया, मृत्यु अवश्यम्भावी थी।
उधर से ग़ुलाम गौस की लाश आई। इधर से एक सैनिक मोतीबाई को उठा लाया। उसको पानी पिलाया गया। रुधिर बहुतायत से जारी था, परंतु वह अचेत न थी।
मुंदर ने रानी से दक्षिणी बुर्ज के तोपख़ाने को सम्भालने की अनुमति चाही।
रानी ने दृढ़तापूर्वक इनकार किया, “नहीं। यहीं ठहर। तुझको अब सहज ही नहीं खोऊँगी।”
मोतीबाई का सिर रानी ने अपनी गोद में रख लिया।
मोतीबाई की आँखों में आँसू भर आए। बोली, “इस गोदी में सिर रक्खे हुए मरना किसी और के भाग्य में नहीं बाईसाहब।”
रानी ने सिर पर हाथ फिरते हुए कहा, “मेरी मोती तू आज हीरा हुई।”
“सरकार”, मोतीबाई ने व्याकुल सवार में कहा, “मैं कुछ भी हूँ परंतु शुद्ध हूँ।”
“नहीं तू शुद्ध ही नहीं”, रानी बोली, “तू पवित्र है।देख, हीरा एक दिन सबको मरना है, परंतु सत्कार्य में प्राण देना, भगवान का ध्यान करते करते मरना, यह जन्म भर की अच्छी कमाई से ही प्राप्त होता है।”
मोतीबाई ने आँख मींची। उसका चेहरा पीला पड़ गया।
रानी ने कहा, “आत्मा अमर है। शरीर का चाहे को कुछ हो, वही एक प्रक्ष शेष रहता है।”
मोतीबाई अचेत हो गई।
रानी ने दो क़ब्रें और तैयार करने के लिए आज्ञा दी। क़ब्रें तुरंत तैयार हो गई।
रानी की गोद मोतीबाई के खून से तार हो गई। मोतीबाई का पीला मुरझाया चेहरा एकदम प्रदीप्त हुआ। आँखें अधमुँदी हुई। हाथ फड़के उसके मुँह से निकला - “रानी…. उजाला….ला “ और वह मुरझाया हुआ फूल अनंत विकास पाकर बिखर गया।
मुंदर ने कहा, “सरकार इनको और कुंवार खुदाबख्श को एक ही कबर में रक्खा जावे।”
रानी बोली। “ऐसा नहीं होता और फिर यह कुमारी थी।”
तीनों को अलग अलग क़ब्रों में, परंतु पास पास दफ़ना दिया गया। अंत्येष्टि क्रिया गुलमुहम्मद ने की। रघुनाथ सिंह ने उन तीनों वीरों को तोप की सलामी दी।
संध्या आने को हो रही थी। इसलिए जल्दी जल्दी में चबूतरा इन तीनों का पका और एक ही बांध दिया गया। चबूतरे के ऊपर निशान इन तीनों के अलग अलग बना दिए गए।
इसके उपरांत रानी ने नहाया धोया। कपड़े बदले, वेश वही पुरुष सैनिक का।
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