Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 24 - Vrindavan Lal Verma

इस कहानी को audio में सुनने के लिए इस पोस्ट के अंत में जाएँ। 



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तात्या टोपे चरखारी को जीतकर कालपी लौटा। उसकी सेना में ग्वालियर का वह यूथ भी था जिसने कानपुर में जनरल विंढम को पराजित करने में हाथ बँटाया था। सिपाही विजयोत्सव माना रहे थे और तात्या कालपी के विशाल शस्त्रागार का निरीक्षण कर रहा था। भाँति भाँति के गोले ढाले जा रहे थे। बंदूक़ें बनाई और बांधी जा रही थी। दो हज़ार माँ बारूद के होते हुए भी और बारूद तेज़ी के साथ तैयार की जा रही थी। अन्य प्रकार के शस्त्र और उनके अंगोपांग बनाए और ख़राद मशीनों पर सम्भाले जा रहे थे। बहुत सी मशीनें नई विलायती थी।

उसी समय दो सवार पहरे वालों के पास उतरे। दोनो सुंदर युवक ज़ुल्फ़ों पर साफ़ा बांधे हुए।

पहरे वालों से कहा, “सरदार साहब से इसी समय मिलना है। झाँसी की रानी साहब की चिट्ठी लाए हैं।

उन लोगों ने झाँसी के युद्ध की गति के विषय में जिज्ञासा की। युवकों ने संक्षेप में बटला दिया। शीघ्र ही दोनो तात्या के सामने पहुँचा दिए गए।

तात्या ने अकेले में ले जाकर कहा, “एक साहब को तो पहिचानता हूँ दूसरे साहब - ?”

जूही ने उत्तर दिया, “आप काशीबाई जी हैं।

तात्या ने अभिवादन किया। दोनो से झाँसी के युद्ध का वृत्तांत जितना उनके सामने हो चुका था और जो उन्होंने मार्ग के बटोहियों से सुना था विस्तारपूर्वक सुना दिया। रानी की चिट्ठी भी पढ़ी।

तात्या बोला, “आज ही झाँसी की ओर कूच करता हूँ। सेना को चरखारी से लौट कर काफ़ी विश्राम मिल चुका है। आप लोग हमारे साथ चलिए। अब अकेले लौटना ठीक नहीं है।

काशीबाई ने कहा, “फाटक बंद हो चुके हैं। चारों ओर अंग्रेजों का कड़ा पहरा है।

तात्या - “आप लोग हमारा साथ सुरक्षित रहेंगे।

काशीबाई - “हम लोग भी लड़ना जानते हैं।

जूही - “जानती हैं।और वह मुस्कुरायी।

तात्या ने हँस कर कहा, “उसी भाषा में बोलिए। मैं सैनिकों का भी संदेह जागृत करना चाहता हूँ।

तात्या ने उसी दिन कूच कर दिया। साथ में बीस सहस्र सेना। बाक़ी सेना और कलपी का प्रबंध राव साहब के हाथ में छोड़ दिया।

तात्या को झाँसी तक पहुँचने में कुछ समय लगा। परंतु उसके पहुँचने की पहले ही रोज़ को पता लग गया कि एक बदी सेना और भारी तोपें लिए हुए तात्या झाँसी की सहायता के लिए रहा है। रोज़ चिंतित हुआ। उसने अपने यूठनायकों और दलनायकों की सम्मति से एक योजना बनाई। प्रत्येक मोर्चे के तोपख़ानों से एक एक तोप ली। केवल ज़रूरी सेना झाँसी के इर्द गिर्द छोड़कर, बाक़ी के कई दस्ते बनाए।कुछ को झाँसी कालपी का मार्ग रुद्ध करने के लिए झाँसी से सात मील दिगार की दुतरफ़ा टौरियों पर भेज कर छिपा दिया। कुछ उत्तर ओर दास मील पर गढ़मऊ की झील की पहाड़ियों पर। कुछ को कामासिन टौरिया और ओरछा के मार्ग के अग़ल बग़ल जमा दिया। 

तात्या ने अपनी सेना का बड़ा भाग अपने पास बेतवा से झाँसी की ओर दो मील पर नदी के किनारे नोहट घाट और तिलैथा घाट के बीच में रक्खा और बड़ी बड़ी तोपें।बाक़ी सेना को तीन भागों में विभक्त करके गढ़मऊ की ओर दोगार की टौरियों के बीच में होकर झाँसी भेजा।इन दस्तों के पास छोटी तोपें थी। साथ में काशी और जूही थी।

पहली अप्रैल का प्रातः काल हुआ। झाँसी पर बंदूकचियों के हमले तो बिलकुल नहीं हुए, परंतु गोलाबारी भयानक हुई। गोलों के ठीक निशाने नहीं पड़ रहे थे। साफ़ था कि अंग्रेज़ी तोपख़ाने अपना बरकाव कर रहे हैं और झाँसी वालों को केवल व्यस्त रखना उनका उद्देश्य है। परंतु जवाहर सिंह ने इसका अर्थ लगाया कि अंग्रेजों के निपुण तोपची मारे गए हैं और अब कच्चे आदमी काम कर रहे हैं। रानी सहमत नहीं हुई।

उन्होंने कहा, “अंग्रेजों के सामने कोई नई दुविधा गई है। सेना और तोपख़ानों को बाँट दिया गया है, और कोई बात नहीं।

रानी ने बड़ी दूरबीन उठाई। झाँसी की ओर आने वाले तात्या के दस्तों को दूरी पर देखा। मुस्कुराकर दूरबीन जवाहर सिंह के हाथ में दी। बोली, “अब झाँसी का उद्धार निकट है।

जवाहर सिंह दूरबीन से देखकर उच्छल पड़ा। झाँसी भर में समाचार फैल गया कि झाँसी की सहायता के लिए पेशवा की सेना गई। 

झाँसी से दिन भर गोलाबारी बहुत हल्की रही। 

लालता ने सम्मति दी, “हमारे गोले कहीं पेशवा की सेना पर पड़े।

और गोलंदाज़ों का भी यही मत था। पूर्व और उत्तर के तोपख़ाने क़रीब क़रीब बैंड रहे। केवल पश्चिम और दक्षिण के तोपख़ाने कच्छ काम करते रहे। 

झाँसी की दिन भर की आशा संध्या समय निराशा में परिवर्तित होने को थी।

टौरियों के बीचोंबीच आते ही तात्या के दस्तों पर अंग्रेज़ी तोपख़ानों के गोले बरसाए। ठोस और पोले भी जो फटकार तात्या के घुड़सवारों का सर्वनाश कर रहे थे। दस्ते तीतर बितर होने लगे। एक ओर काशीबाई पद गई, दूसरी ओर जूही को जाना पड़ा। 

काशीबाई वाला बचा खुचा दस्ता अंग्रेज़ घुड़सवारों के बीच में फँस गया। पहले पिस्तौलें चली, फिर तलवार खिची।

काशीबाई नेहर हर महादेवकहा और पिल पड़ी।उसका सवार कोयल का सा था। अंग्रेज घुड़सवार समझ गए कि पुरुष वेश में स्त्री है।

उनको भ्रम हुआ।

एक बोला, “रानी है।

दूसरे के कहा, “झाँसी की रानी। उसको ज़िंदा पकड़ो।

परंतु काशीबाई की तलवार ने यह मंसूबा असंभव कर दिया। ऐसी चलाई कि दो सवार तो अश्व समेत काट गए। कई घायल हो गए परंतु एक सवार की तलवार से उसका घोड़ा मारा गया। काशीबाई पैदल लड़ी। उस स्थिति में भी उसने कई सवारों को घायल किया। अंत में - काशीबाई के सिर पर एक तलवार पड़ी। लोहे की टोपी के कारण सिर बच गया, परंतु कंधा काट गया। तो भी काशीबाई शिथिल नहीं हुई। फिर दूसरी तलवार। काशीबाई का अंत हो गया - उस समय उसके मुँह से निकला - ‘हर हर महा………”

गोरे प्रसन्न थे। उठा कर रोज़ के पास ले गए।

यह बहुत लड़ी हुज़ूर। औरत के शरीर में शैतान है।

रोज़ ने काशी के शव को पहिचनवाया। पहिचानने वाले ने सिर हिलकर आश्वासन दिया,”यह रानी नहीं है। रानी की बहन हो या सहेली हो या तात्या की कोई नातेदार।

रोज़ ने काशी का शव सुरक्षित रक्खा, और तात्या के सेना की ओर ध्यान दिया। पेशवा के दस्तों के पैर उखाड़ चुके थे। वे भागे। जूही भी भागकर तात्या के पास पहुँची।

बोली, “काशीबाई कहीं फँस गई है। मारी गई होगी।

उसी समय रोज़ के गोले तात्या के बेतवा तटवर्ती सेना पर गिरे। तात्या ने जवाब दिया। परंतु रोज़ के दूसरे अनेक दस्तों ने छोटी हल्की तोपों से उस पर कई पार्शवों के आक्रमण किया तात्या को अपनी सेना बेतवा पार ले जानी पड़ी।रोज़ ने पीछा नहीं छोड़। तात्या की बड़ी बड़ी तोपें अपने बोझ के कारण बेतवा की रेत में धँस गयीं। खिंच सकी। तात्या को छोड़नी पड़ी। हार खाकर भागना पड़ा। रोज़ के दस्तों ने लगभग सोलह मील तक उसका पीछा किया। अंग्रेजों के हाथ बहुत सामान और तोपख़ाने लगे। संध्या तक मैदान साफ़ हो गया। तात्या के पंद्रह सौ सैनिक मारे गए। वह मुश्किल से एरच घाट होकर कोच होता हुआ, कई दिन बाद कालपी पहुँच पाया। जूही झाँसी नहीं लौट सकी। उसको तात्या की टूटी फूटी सेना के साथ कालपी जाना पड़ा। 

दूरबीन की सहायता और तोपों की दूर से हट हट कर सुनाई पड़ने वाली आवाज़ों से झाँसी वालों विश्वास हो गया कि तात्या की सेना हार गई। झाँसी में गहरी निराशा के काले बादल छा गए। 

रोज़ की सेना के हर्ष का पार रहा। एक दिन पहले रोज़ की सेना जब तब कर उठी थी। इस रात विजयशरी मुट्ठी के भीतर दिखलाई पड़ने लगी। थके माँदे सिपाहियों को विश्राम दिया गया। संध्या के समय काशीबाई का शव फिर पहिचनवाया गया। ओर्छे की सेना की कुछ लोग रानी को अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने आश्वासन दिया, यह रानी नहीं है।

काशी का शव जला दिया गया। रात में थोड़ी बहुत गोलाबारी जारी रही, परंतु अधिक समय मोर्चों पर तोपों को यथावत जमाने में गया। 

जवाहर सिंह ने रानी को शहर की वार्ता सुनाई। रानी ने अपने सरदारों को इकट्ठा किया, उनसे मुस्कुराकर कहा, “पेशवा की सेना आज लौट गई, तो कल फिर वापिस सकती है। तात्या असाधारण ससेंपती हैं और पेशवा के अधिकार में असंख्य सेना और तोपें हैं। आप लोगों को घबराना नहीं चाहिए। माँ लो कि पेशवा की सेना आती तो क्या हम लोग हथियार डाल कर झाँसी के मुँह पर कालिख पोतते? अपने पुरखों का स्मरण करो। स्वराज्य की स्थापना में कितने खप गए! यह आवश्यक नहीं है कि स्वराज्य की स्थापना हम अपने जीवन काल में ही देख लें। सीधी के डंडे पर पैर रखते ही हम छत पर नहीं पहुँच जाते। एक ही त्याग एक ही मरण, एक ही जन्म से स्वराज्य नहीं मिलता है। स्मरण रक्खो - हमको केवल करम करने का अधिकार है, फल पर नहीं। दृढ़ उद्देश्य और निरंतर करम हमारा केवल ध्येय यह है। जीवन कर्तव्य पालन का नाम है - कर्तव्यपालन करते हुए मरण जीवन का ही दूसरा नाम है। जो लोग अंग्रेजों से डरते हो, मौत से डरते हो वे हथियार रखकर आराम के साथ अपने घर चले जाए। जो लोग स्वराज्य के लिए प्राण विसर्जन करना चाहते हो, वे मेरे पास बने रहे।

रानी फिर मुस्कराई। सब लोगों की ओर देखा। किसी नेहथियार रखकर आराम के साथ घर जानेकी बात नहीं कही। सबने लड़ मारने का रानी को आश्वासन दिया।

श्रीमंत सरकार आज रात से ही, अभी से, अपनी घनगरज का काम देखें। ग़ुलाम गौस ने कहा। 

भाऊ बख्शी बोला, “ सरकार को सपने में जो देवी दिखलाई दी थी वही मेरी तोप पर काम करेगी। कड़क बिजली में कामासिन पहाड़ी तक को छार छार कर दिया तो बात काहे की।

सरकार”, खुदाबख्श ने कहा, “सैयर फाटक पर से अब जो कुछ होगा, उस पर आप को बहुत हर्ष होगा।

मोतीबाई बोली, “सरकार, मुझको और मेरी संगिनो से अलग मोर्चे दिए जाएँ और फिर देखा जाय कि स्वराज्य की लड़ाई के लिए झाँसी की स्त्रियाँ अकेले क्या क्या कर सकती हैं।

बाहर से आए हुए पठानों के सरदार गुल मुहम्मद ने कहा, “अलहमदुलिल्लाह, हुज़ूर अम बहुत समझता है और बहुत सुनता है। सिर्फ़ इतना अर्ज़ हे कि अम लोग झाँसी की मिट्टी में मिलेगा और बहिश्त। सोराज जी आप जानो।

रानी ने सरदारों को जी खोल कर पुरस्कार बाटे और उनके सिपाहियों के लिए भी इनाम दिए। मुख्य मुख्य लोगों को रणकंकण अपने हाथ से बांधे और पीठ पर हाथ फेरा। पुरस्कृत केवल तीन व्यक्ति नहीं हुए - वे उस समय क़िले में थे भी नहीं - दुल्हाजु, पीर अली और बरहामुद्दीन। 

निराशा के वातावरण का कुहरा छँट गया। उत्साह का तीव्ररवि चढ़ आया। रात भर विकट, तीक्ष्ण, भीषण गोलाबारी क़िले और बाहर की बुर्जों पर से हुई। रोज़ की सेना ने बहुत हल्का जवाब दिया। सैनिक रक्षा के स्थानों में पड़े पड़े विश्राम करते रहे। यदि उस रात झाँसी की सेना फाटक खोलकर टूट पड़ती, तो रोज़ की सारी सेना नष्टभ्रष्ट हो जाती। झाँसी का गोलाबारी का शोरगुल अत्यंत तीव्र हुआ, परंतु उससे अंग्रेज़ी सेना को सापेक्ष में हानि बहुत कम पहुँची। रोज़ को आश्चर्य था - झाँसी में इतनी युद्ध सामग्री कहाँ से रही है।

रानी का वही क्रम जारी था - एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे पर पहुँचन, निरीक्षण करना और उत्साह प्रदान करना। एक स्थल पर जवाहर सिंह से भेंट हो गई। 

रानी ने पूछा, “उस मामले की जाँच पड़ताल की?”

जवाहर सिंह ने उत्तर दिया, “जी हाँ सरकार पीर अली बुरी क़सम खाता है। कहता है कि दीवान दुल्हाजु को रक्षा के लिए साथ के गया था। रात में जो जासूसी उसने की उससे और कुछ पता तो नहीं लगा, क्योंकि रोज़ ने अपनी योजना केवल अपने मातहत जनरलों की बतलाई थी, परंतु यह अवश्य मालूम हो गया है कि अंग्रेजों को अभी तक दो लाख रुपए की तो बारूद ही खर्च करनी पड़ी है। उनके पास बारूद की कमी हो गई है और गोले भी बहुत नहीं हैं। शायद कलकत्ते से कुमुक मँगवायी है।

रानी ने कहा, “मुझे भासता है अंग्रेज लोग कल विकट युद्ध करेंगे। तात्या का जो सामान उन लोगों के हाथ पड़ा होगा उससे उनको बहुत सहायता मिलेगी। जाने बिचारी काशी और जूही कहाँ होगी।

जवाहर सिंह उत्तर ही क्या दे सकता था?

रानी ने एक क्षण सोचकर कहा, “दीवान दुल्हाजु मिले? उनसे पूछा?”

नहीं मिले, जवाहर सिंह ने उत्तर दिया, कुमुक बदल गई है। सुंदर बाई ओरछा फाटक पर है। दीवान साहब कहीं चले गए हैं।

बरहामुद्दीन?” रानी के प्रश्न किया।

जवाहर सिंह ने जवाब दिया, सागर खिड़की पर था। मैंने उसको सावधान रहने के लिए झिड़क दिया है।

इसी समय क़िले के महल पर ज़ोर का धड़ाका हुआ। रानी क़िले के तरफ़ चली। जवाहर सिंह भी। रानी ने निवारण किया, आप शहर के मोर्चों को एक बार फिर देखकर थोड़ा विश्राम कर लो। मैं देखती हूँ यह क्या है।

रानी ने क़िले में जाकर देखा। गोला महल पर पड़ा था। महल के दो खंड नष्ट हो गए। पानी भरने वाले ब्राह्मण और मंदिरों के पुजारी महल के बीचोंबीच नीचे वाले खंड में छिपे हुए थे। रानी ने उनको दिलासा दी। खुद महल के बाहर टहलने लगी। दो बज गए थे। ग़ुलाम गौस पश्चिमी तोपख़ाने पर मोतीबाई, पूर्वीय पर भाऊ बक्शी और केंद्रीय पर मुंदर। इन लोगों को महल का हाल बतलाया। उन्होंने निशाने साधे। अनुभव से दुश्मन के ठीक स्थलों की सही जानकारी हो गई थी। गोलाबारी से अंग्रेज़ी तोपख़ाने बंद हो गए। महल में छिपे हुए ब्राह्मण इत्यादि पसीने में तार बाहर निकल आए और सुखपूर्वक सो गए।

सवेरे एक चिट्ठी बरहामुद्दीन ने रानी के हाथ में दी। वह उसका इस्तीफ़ा था। उसमें लिखा था

मेरा विश्वास नहीं किया गया। मुझको उल्टा डाँटा फटकार गया। मेरा मन काम में नहीं लगता है। मैं नौकरी छोड़ता हूँ। हथियार पीर अली को दे दिए हैं। पीर अली और दुल्हाजु से होशियार रहिएगा।

रानी को क्रोध आने को हुआ, परंतु उन्होंने संयम कर लिया।

बोली, “ऐन समय पर तुम जैसे लोग ही काम छोड़ते हैं। जाओ हटो।और चिट्ठी उन्होंने अपने अंगरखे की जेब में रख ली।


74

दूसरे दिन जैसा युद्ध हुआ उससे रोज़ की सेना के छक्के छूट गए। बहुत उपाय करने पर भी रोज़ उस दिन एक अंगुल बराबर भी सफलता प्राप्त कर सका। नित्य कि वही कहानी - दिवारों में छेद हुए, बुर्जों की मुंडेरें जगह जगह पर टूटी, शहर में मकान ध्वस्त हुए, आगें लगी, कूच लोग मारे, दीवारों और बुर्जों की मरम्मत तुरंत कर ली गई, आगें बुझा ले गई, लोगों के मरने से जीवितों में और अधिक हिंसा जागी और दृढ़ता बधी। रात को भी वही क्रम। युद्ध की भयंकरता ने स्थिरता पकड़ ली। वह झाँसी वालों के जीवन में एक नित्य की बात हो गई। 

रानी ओरछा फाटक पर पहुँची। दुल्हाजु अभी ठिए से हटा था। सुंदर भी मौजूद थी।

रानी ने यकायक पूछा, “दुल्हाजु, तुम पीर अली के साथ अंग्रेज छावनी में कभी गए?”

अंग्रेज छावनी में मैं…..मैं” , रुँधे गले से दुल्हाजु ने जवाब दिया, “मैं सरकार कब?”

रानी - “कभी सही। गए या नहीं?”

दुल्हाजु - मैं! मैं    तो, कभी……कहाँ…..गया!”

रानी - “नहीं गए?”

दुल्हाजु - “नहीं सरकार।

 रानी - “पीर अली कहता है कि तुम उसके साथ गए थे।

दुल्हाजु - “वह झूठ बोलता है सरकार।

रानी - “सम्भव है। और यह लाल झंडा क्या है?”

दुल्हाजु - “लाल झंडा! लाल कैसा? झंडा क्या सरकार?”

रानी - “घबराओ मत, मैं लाल झंडे की सब बात जानती हूँ।

दुल्हाजु - “मैं थक गया हूँ सरकार। दिमाग़ काम नहीं कर रहा है। कुछ समझ में नहीं रहा है। लाल झंडा! पीर अली बड़ा बेईमान और झूठा है।

सुंदर - “आज इनसे तोप ठीक नहीं चली।

ये मुझ से व्यर्थ रुष्ट हैं। इनको बराबर प्रसन्न रखने का प्रयत्न करता हूँ।

रानी - “कोई बात नहीं। कल ठीक ठीक काम करना। सुंदर साथ है। वह सहायता करेगी।

रानी को बरहामुद्दीन याद गया। वह और अधिक इस्तीफ़े नहीं चाहती थी।

सुंदर बोली।इनको क़िले में रख लीजिए। मैं आज रात और कल दिन भर तोपख़ाना सम्भाले रहूँगी।

रानी ने कहा, “आज रात आराम के साथ काम कर लो, कल दिन में अवकाश नहीं मिलेगा। कल रात इस मोर्चे का ऐसा प्रबंध करूँगी जिसमें तुम दोनो को काफ़ी विश्राम मिल जाय।

रानी सागर खिड़की पर पहुँची। उस समय पीर अली कार्यभार अपने स्थानापन्न को सौंप रहा था। 

उनको देखते ही हड़बड़ा गया। 

रानी ने कहा, “दुल्हाजु कहते हैं कि कल तुम्हारे साथ कभी बाहर नहीं गए। तुमने दीवान जवाहर सिंह से कहा कि तुम्हारे साथ गए थे?” 

पीर अली ने हिम्मत बांधी। बोला, “वे मेरे साथ ज़रूर गए सरकार। डर के मारे उन्होंने सच्ची बात नहीं कही। व्यर्थ झूठ बोले। मैं उनके मुँह पर कह सकता हूँ। दिशा मैदान के बाद हाज़िर हो जाऊँगा।

रानी ने कहा, कोई जल्दी नहीं थोड़ी देर में क़िले पर आऊँ।

बहुत अच्छा हुज़ूर”, पीर अली ने मुक्ति की साँस लेकर कहा। 

रानी पूर्व और उत्तरी फाटकों पर होती हुई उन्नाव फाटक पर आई। यहाँ पूरन कोरी अन्य कोरियों के साथ तोप पर था। कोरियों को शाबाशी दी। 

पूरन से पूछा, “झलकारी कहाँ है? अच्छी तरह तो है?”

सरकार”, पूरन ने कहा, “घरै है। अबई बुलाउत, दिन भर इतै काम करात रई, अबई थोड़ी देर भई जब गई।

नहीं बुलाओ मत।रानी बोली, “वैसे ही पूछा।

वे आगे बढ़ गई।

सब फाटकों से घूमती हुई हलवाईपुरे में आई। बाज़ार का चौधरी मिला। लखपतियों में से था। यह सवेरे इतने पानी से हाथ मुँह धोया करता था कि पानी सौ सवा सौ गज तक बह जाता था।

रानी ने मुस्कुरा कर कहा, अब भी उतने ही पानी से हाथ धोते हो?”

सरकार”, चौधरी  ने उत्तर दिया, “आज कल सब व्योपार बंद है।मुँह हाथ धोते धोते इतने व्योपारियों से बात करनी पड़ती थी कि पानी बहाने का ध्यान ही ना रहता था।

रानी ने कहा, “अब व्योपार के साथ पानी बहाना भी बंद है।

उस महा कठिन परिस्थिति में भी रानी की इस बात पर बाज़ार वाले हंसे, हंसते रहे और विपत्ति में धैर्य और साहस पाते रहे।

जो मिला, उससे कोई कोई मीठी बात कह कर, ढाढ़स बँधाती हुई रानी क़िले पर पाउट आई। गोलाबारी का वही क्रम जारी था।

रात समाप्त हुई। 

रानी ने सवेरा होते ही सिपाहियों और उनके सरदारों में समाचार भेजा - आज मैं स्वयं अपने लोगों के लिए कलेवा तैयार करूँगी। खूब खाओ और डट कर लड़ो।

सुनते ही थके माँदे और मृत सिपाहियों तक की छातियाँ फूल उठी।

ब्राह्मणों ने आता रांधा। रानी ने उसमें हाथ लगाया। ब्राह्मणों ने ही पूड़ियाँ सेंकी। रानी ने उसमें भी सहयोग दिया। क़िले के भीतर वाले सरदारों को उन्होंने अपने हाथ से उनके ठियों पर जा जाकर कलेवा वितरित किया।

हर्ष और अभिमान के मारे वे सब से सब उन्मत्त हो गए। रानी की छुई हुई पूड़ी तक के एक एक टुकड़े को पगड़ी के, अंगरखे के छोर में कस के बांध लिया। और कसकर बांधे - प्राणों की गाँठ में प्रण।

रानी को पीर अली का स्मरण आया - भूलती तो वे कभी कूच थी ही नहीं। बुलवाया। मालूम हुआ कि दिशा मैदान के लिए जाने के बाद फिर नहीं दिखलाई पड़ा; यह भी पता लगा कि दिशा निस्तार के लिए मुहरी के रास्ते से गया था।

रानी एक क्षण के लिए असमंजस में पड़ी।

उनको विश्वास हो गया कि पीर अली, झूठ बोलता है, और कदाचित दुल्हाजु सच, परंतु बरहामुद्दीन ने लिखकर दिया था - पीर अली और दुल्हाजु से होशियार रहिएगा। किसी निश्चय पर पहुँच चुकी थी कि चारों दिशाओं से अंग्रेजों ने गोलाबारी शुरू कर दी।



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