Jhansi ki Rani - Lakshmibai # 23 - Vrindavan Lal Verma
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सुंदर को उस रात दुल्हाजु की कुमुक सौंपी गई। उसने दुल्हाजु से गोलंदाजी सीखी थी, इसलिए वह उसका आदर करती थी। संध्या के उपरांत सुंदर ओरछा फाटक के ऊपर दुल्हाजु के पास पहुँच गई।
दुल्हाजु ने दिन में खूब तोप चलाई थी। वह प्रसन्न था और सुंदर उस दिन के काम पर संतुष्ट थी, केवल बख्शीं के देहांत पर कभी कभी मन कसक उठता था।
दुल्हाजु ने सुंदर से कहा, “आज तो बाई मैं बहुत थक गया हूँ। सारा शरीर दुःख रहा है।”
“आप विश्राम करिए। में तो रात भर सावधान रहूँगी।”
“दिन भर फिर वही सब करना पड़ेगा।”
“मैं तो दिन में भी आपकी जगह काम करती रहूँगी।
“और कल रात?”
“रात को भी काम कर दूँगी। तब तक आप सस्ता लेंगे। परसों दिन में आप तोपख़ाना सम्भाल लेना। मैं सो लूँगी। रात का काम फिर पकड़ लूँगी।
“सुंदर तुम बहुत प्रबल हो।”
“आपकी कृपा”
“और अत्यंत सुंदर।”
“इसका उत्तर कुछ नहीं दे सकती। भगवान ने जैसा बनाया है वैसी हूँ।”
“तुमको देखते ही, तुम्हारे दर्शन करते ही न जाने मेरा चित्त कैसा हो जाता है। तुम तो महल की रानी होने के योग्य हो।”
“रानी तो एक ही हैं - और एक ही हो सकती हैं।”
“सुंदर मैं तुमको अपने हृदय से लगाना चाहता हूँ। क्या कहती हो?”
“यही कि आप बहुत नीच हैं।”
दुल्हाजु इस उत्तर की आशा नहीं कर रहा था। उसने अपनी ठेस को मुश्किल से सम्भाला। उत्तेजित हुआ।
बोला, “जानती हो मैं ठाकुर हूँ।”
सुंदर ने दृढ़ सुहावने सवार में कहा, “जानते हो मैं कुणभी हूँ, जिस जाती की सहायता से छत्रपति ने एक छात्र राज्य स्थापित किया था।”
दुल्हाजु यकायक हँस पड़ा।
बोला, “मैं सुंदर बाई तुमसे परम प्रसन्न हुआ। मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही यह सब कहा था।”
सुंदर ने स्थिरता के साथ कहा, “हर्ष है कि आपकी परीक्षा शीघ्र समाप्त हो गई।”
दुल्हाजु की आँख से लौ फूट पड़ी, परंतु सुंदर ने नहीं देखा।
“तोपख़ाना सम्भालो”, दुल्हाजु बोला, “मैं कल सवेरे काम पर आ जाऊँगा।” और अधिक वह कुछ न बोल सका। चला गया।
अब सुंदर का क्षोभ जाग्रत हुआ। खीझ कर उसने अपने मन में कहा, “दो जूते मुँह पर न लगा पाए। बड़ा सरदार बना फिरता है। मेरे स्त्रीत्व को इतना दुर्बल समझा।”
सवेरा होते ही दुल्हाजु अपने ठिए पर आ गया। सुंदर से कोई बात नहीं हुई उसने ऐंठ के मारे क्षमा प्रार्थना टन नहीं की। सुंदर ने रात का सब हाल रानी को सुनाया।
रानी ने सुंदर को वरजुत किया, “और किसी से कुछ मात कहना। गोलंदाज बहुत मारे गए हैं। यदि मेरे पास काफ़ी आदमी होते तो दुल्हाजु को अपने हाथ से कोड़े लगाती और झाँसी बाहर कर देती, परंतु इस समय ज़रा सह लेना चाहिए। तुझे अनुमति देती हूँ कि यदि वह फिर कोई बेहूदी बात कहे तो अकेले में जूते लगा देना। तू उसको कुश्ती में पछाड़ सकती है।”
सुंदर को अच्छा लगा। चुप रही। रानी ने समझा कि इतने से संतुष्ट नहीं हुई। उन्होंने दुल्हाजु को बुलाया और अकेले में काफ़ी डाँटा फटकारा।
कहा, “अबकि बात तुमको क्षमा किया। अपना काम करो। ऐसा ओछापन न करना।”
दुल्हाजु काम पर शीघ्र लौट गया।
उसने सोचा, “एक ने नीच कहा, दूसरी ने ओछा। मेरे सच्चे प्रेम को किसी ने न पहिचाना। सुंदर एक छोटी जाती की स्त्री है। मैं उसको खुल्लम खुल्ला रख लेता। ठकुराइन बन जाती। लेकिन बड़ी पाजी औरत है और रानी औरतों की तरफ़दार। मैंने कहा ही क्या था? विश्वास दिलाया कि उसकी परीक्षा कर रहा था, परंतु रानी ने विश्वास नहीं किया। इस प्रकार का बर्ताव तो बड़े बड़े महाराज भी मेरे साथ नहीं कर सकते।”
दुल्हाजु उस बर्ताव को अपना अपमान समझता था। वह उस पहर अपना कर्तव्य, शिथिलता और अन्यमनस्कता के साथ करता रहता। कुशल यही थी कि पिछले
दिन गुसाइयों के मंदिरों के पास वाले तोपख़ाने के मिट जाने के कारण और रोज़ के पश्चिमी मोर्चे पर अधिक ज़ोर देने के कारण, ओरछा फाटक ने अधिक गोलाबारी का आह्वाहन नहीं किया।
दोपहर के बाद धूप कड़ी हो गई। लू भी चल उठी। दोनों ओर के तोपख़ाने और सिपाही अवकाश लेने लगे।
पीर अली दुल्हाजु के पास आया।राम रहीम होने के उपरांत बात चीत होने लगी। पीर अली चाहता था कि काम से काम एक सरदार को अपने पक्ष में कर लूँ।
पीर अली - “दीवान साहब आपको तो बड़ा कड़ा परिश्रम करना पड़ता है आपकी वजह से मेरी खिड़की पर दुश्मन कोई दबाव नहीं डाल पाता।”
दुल्हाजु - “परिश्रम तो, सचमुच, मीर साहब मुझको बहुत करना पड़ता है। मारे जाने पर मेरे परिश्रम का कोई मूल्य आका जाएगा या नहीं इसमें संदेह है।”
पीर अली - “रानी साहब तो ईनाम खुले हाथ से देती हैं। ग़ुलाम गौस को सोने के कड़े,
अपनी टोल भर चाँदी का तोड़ा और कुंवर का ख़िताब बख्शा है।”
दुल्हाजु - “होगा। रानी पठानों और परदेसियों की केवल हेकड़ी पर प्रसन्न हो जाती हैं। ख़ज़ाना उनके हाथ में है चाहे जिसको लुटावे। मैं कितनी बार ओरछा फाटक के सामने से अंग्रेजों को हटा चुका हूँ, कितनी बार मैंने उनके तोपख़ाने नष्ट किए, परंतु मुझको तो एक पैसा भी पुरस्कार में नहीं मिला। जी चाहता है कि यह लड़ाई समाप्त हो या अवसर मिले तो अपने घर चला जाऊँ।”
पीर अली - “मैं ही, देखिए दीवान साहब, जासूसी में कितनी जान खपा रहा हूँ। पता लगाने के लिए रात में इधर उधर अकेला भटकता हूँ। एक गोली, या तलवार का वार पद जाय कि बस खतम हूँ, मगर कोई पूछने वाला नहीं कि भैया तुम्हारा क्या हाल है। मेरे साथ एक गवाँर पठान को और गोद दिया है। उसके मारे परेशान रहता हूँ।”
दुल्हाजु -“इधर मेरी भी यही परेशानी है। सुंदर बाई मेरी नायबी में है। उसकी केवल परीक्षा लेने के लिए एक बात कही कि वह पाजीपन पर आ गई। मैंने डाँटा। उसने रानी से मेरी शिकायत कर दी।रानी ने मुझसे ऐसी बातें की हैं आज, कि दिल टूट रहा।”
पीर अली ने प्रयत्न किया अपने को रानी का जासूँ प्रकट करने का, दुल्हाजु ने प्रयास किया अपने को दुखाया सताया निर्दोष सिद्ध करने का, दोनों के मन परस्पर निकट आए, परंतु एक दूसरे की बात को उनमें से किसी ने नहीं समझा।
दुल्हाजु ने कहा, “मुझे दिखता है कि हम लोग अंग्रेजों को हरा नहीं सकेंगे।”
पीर अली - “उन्होंने दिल्ली और लखनऊ को सहज ही तोड़ लिया। कानपुर को भी पराजित कर लिया है। सच्ची बात तो दीवान साहब यह है कि झाँसी बिचारी का कोई बिरता नहीं।”
दुल्हाजु - “जी चाहता है कि आज ही इस्तीफ़ा देकर, तुम्हारी मुहरी से घर चला जाऊँ।”
पीर अली - “इस्तीफ़ा देने की क्या ज़रूरत? वैसे ही चले जाइए, परंतु चारों तरफ़ तार लगे हुए हैं और संतरियों के छबीने पड़े हुए हैं। जिनमें होकर छिपकर निकलना कठिन है।
दुल्हाजु - “आप मीर साहब, अंग्रेज़ी छावनी में से खबर कैसे लाते हैं?”
पीर अली - छावनी में मेरे कुछ रिश्तेदार भोपालि दस्ते में हैं। उनकी मदद से पहुँच जाता हूँ। और वहाँ का हाल ले आता हूँ - और - और दीवान साहब, मैं अंग्रेजों के बड़े जनरल रोज़ साहब के सामने भी हो आया हूँ।”
दुल्हाजु - “आप लड़ाई शुरू होने के पहले गए थे?”
पीर अली - “नहीं कल रात को ही तो पहुँचा था।”
दुल्हाजु - “फिर बचे कैसे?”
पीर अली - “सीधी सी बात। उनसे कह दिया कि मैं तो आपकी तरफ़ से जासूसी कर रहा हूँ।”
दुल्हाजु - “जनरल मान गया।”
पीर अली - “क्यों ना मानता? दो एक बातें बटला दी, उसको भरोसा हो गया।”
दुल्हाजु - “मैं भी जनरल साहब के पास चलना चाहता हूँ।”
पीर अली - “यदि रानी साहब को खबर लग गई तो?”
दुल्हाजु - “तो जो हाल आपका होगा वही मेरा भी।”
पीर अली - “मैं तो जासूस हूँ।”
दुल्हाजु - “मुझको भी उसी रंग में रंग लीजिए।”
पीर अली - “मगर जनरल के सामने आप अपने को जासूस नहीं कह सकेंगे।”
दुल्हाजु - “तब क्या कहूँगा? जाना तो उसके सामने अवश्य चाहता हूँ। शर्त यह है कि बचकर लौट आऊँ और यहाँ भी कोई गड़बड़ न हो।”
पीर अली - “जनरल ने यदि आपसे किसी काम के करने के लिए कहा तो?”
दुल्हाजु - “हाँ करनी पड़ेगी।”
पीर अली - “तो पहले हमारा आपका ईमान हो जाय और कहीं भी किसी प्रकार कभी बात न फूटने पावे।”
पीर अली ने दीन की और दुल्हाजु ने धर्म की पक्की सौगंध खाई।
पीर अली ने कहा, “यदि अवसर मिला तो आज रात को नहीं तो कल रात को चलेंगे।”
दिन भर पश्चिमी और दक्षिणी मोर्चा पर घोर युद्ध होता रहा। उत्तर में, उन्नाव, भांडेरी और सूजेखां फाटकों पर भी गोलाबारी हुई। इस दिशा में ओरछा की सेना रोज़ के दस्ते के साथ काम कर रही थी, परंतु इस ओर झाँसी के सैनिक और गोलंदाज ऐसी मुस्तैदी के साथ कर्तव्य पालन कर रहे थे कि रानी को इस दिशा से अंग्रेजों का कोई भय ही न था। दतिया राज्य से अंग्रेजों की सहायता के लिए कोई दस्ता नहीं आया था। इस राज्य को चरखारी - पराजय का पता लग गया था। राजा विजय बहादुर का देहांत हो चुका था। उत्तराधिकारी नाबालिग था। रोज़ के आक्रमण के पहले दतिया को रानी का भय था और अब तात्या टोपे का। इसलिए दतिया राज्य भय ग्रस्त तटस्थता में था।
झाँसी का दतिया फाटक निर्भय था। क़िले की पश्चिमी बुर्ज का तोपख़ाना इसकी काफ़ी रक्षा किए हुए था। यही हाल खंडेराव फाटक का था। फिर भी इन फाटकों के तोपची हाथ पर हाथ धरे न बैठे थे।
संध्या हो गई। परंतु रात में गोलाबारी बैंड न हुई। रात में गोले सर्राती हुई छोटी छोटी गेंदों की तरह मालूम। पड़ते थे। इस गोलाबारी से शहर का थोड़ा सा नुक़सान हुआ, परंतु क़िले का कुछ नहीं बिगड़ा। उस रात पीर अली बाहर नहीं जा पाया। दुल्हाजु काम सोया। उसने पीर अली की बाट जोही।
दिन निकलने पर फिर ज़ोर का युद्ध हुआ। अब तक गोरी पलटनें आगे बध बध कर मार रही थी। अब अधिकांश देशी पलटनें दिखलाई पड़ी। परंतु तोपख़ाने सब अंग्रेजों के हाथ में थे।
दोनों ओर के तोपची मार रहे थे और दूसरे तोपची उनकी जगह पर आ रहे थे। संध्या के समय क़िले के पश्चिमी मोर्चे का तोपख़ाना बंद हो गया, कारण था दीवार का घुस्स हो जाना।
दीवार के टूट जाने से तोपख़ाना दिखलायी पड़ने लगा। मुश्किल से तोपों को आड़ में किया गया। पर पहाड़ी की ओर से एक दस्ता झपटा। खंडेराव फाटक पर से सागर सिंह ने देख लिया। फाटक पर ताले पड़े थे। वैसे भी फाटक खोलने की आज्ञा न थी। सागर सिंह ने तोप चलाई परंतु वह जल्दबाज़ था, इसलिए निशाना ठीक न बैठता था। खीज उठा।
अपने साथियों से बोला, “आज बुंदेलों की नाक कटती है और कुँवर सागर सिंह की मूँछ जाती है। जो मेरे साथ इन गोरों का सामना कर सके वह तुरंत नीचे उतरे।”
एक ने कहा, “रानी साहब की या दीवान जवाहर सिंह की आज्ञा ले लो।”
सागर सिंह ने उत्तर दिया, “बावले हुए हो? जब तक किसी की आज्ञा आवेगी तब तक ये लोग क़िले में घुस जाएँगे। टन उस आज्ञा को क्या हम चाटेंगे?”
रस्से की सीधी लगा कर धड़ाधड सौ आदमी नीचे ऊतर गए। सबसे पहले सागर सिंह। ये लोग सपाटे से बग़ल वाली टौरिया की ओट में पहुँच गए। जैसे ही अंग्रेज़ी दस्ता आया इन लोगों ने बन्दूकों की बाढ़ छोड़ी। दस्ते ने भी बंदूक़ दागी। सागर सिंह की टुकड़ी की कोई हानि नहीं हुई, परंतु अंग्रेज़ी दस्ता छिन्न भिन्न हो गया। इकट्ठा होने ही को था कि सागर सिंह अपने साथियों सहित तलवार लेकर पिल पड़ा। अंग्रेज़ी दस्ता सब नष्ट हो गया। कुंवर सागर सिंह भी खंडेराव फाटक के पास ही मारा गया। उसने कुछ आदमी बच गए। भीतर वापिस आ गए।
इन आदमियों की वीरता ने उस दिन झाँसी का क़िले बचा लिया।
रात हो गई। रानी को सागर सिंह के शौर्य का समाचार मिल गया। रानी की आखों के सामने बरुआसागर की घटना का पूरा चित्र खिंच गया। रानी ने माँ में कहा, “जिस देश में सागर सिंह सरीखे लोग जन्म लेते हैं वह स्वराज्य में बहुत दिनों वंचित नहीं रह सकता।”
रानी ने दीवार की मरम्मत अपने सामने करवाई। कारीगर कम्बल ऊध कर दीवारों की मरम्मत पर चिपट गए और रात भर में दीवार ज्यों का त्यों कर लिया।
सवेरे पश्चिमी अंग्रेज़ी मोर्चे ने दूरबीन से देखा - जैसे दीवार का कभी कुछ बिगड़ा ही ना था!
उस दिन अत्यंत भीषण युद्ध हुआ। दोनो ओर निरन्तर और तीव्र गोलाबारी हुई। इधर दीवारें टूट रही थी। उधर अंग्रेजों के मोर्चे नष्ट हो रहे थे। इधर तोपची पर तोपची मारे जा रहे थे, उधर तोपख़ानों पर तोपख़ाने बंद हो रहे थे। तुरंत दूसरी तोपों को सम्भाल लेते थे। रानी की स्त्री सेना इस तरह काम कर रही थी जैसे देवी दुर्गा ने अनेक शरीर और अनेक रूप धारण कर लिए हो।
दीवार टूटी कि मरम्मत हुई। वह भी दिन दहाड़े। मरम्मत करने का काम पुरुष कर रहे थे और पत्थर तथा चूना इत्यादि देने का काम स्त्रियाँ। गोले बरस रहे थे। ऐसे गोले जो फटकार अपने भीतर के कील काटें चारों और सनसना देते थे, परंतु न तो झाँसी की हिम्मत टूट रही थी और न झाँसी की रानी की। जैसे जैसे संकट बढ़ता, तैसे तैसे इनका साहस बढ़ता जाता!
यकायक गोला क़िले के भीतर वाले गणेश मंदिर, पर गिरा और वह ध्वस्त हो गया। केवल मूर्ति बची। दूसरा शंकर क़िले में गिरा। उस समय आठ दस ब्राह्मण पानी भर रहे थे। उनमें से आधे मारे गए, बाक़ी भाग गए। ये गोले पश्चिमी मोर्चे से आए थे।
पानी की टूट पड़ी। ३-४ घंटे लोगों को प्यासा रहना पड़ा। क़िले का पश्चिमी मोर्चा सम्भाला गया। अंग्रेज़ी मोर्चे का मुँह बैंड हुआ। तब कुएँ से पानी आ पाया। फिर रात हुई और बहुत कुछ शती दोनो पक्ष थकावट में चूर थे।
इस रात पीर अली और दुल्हाजु को अवसर मिला।
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बरहामुद्दीन सागर खिड़की की तोप पर पीर अली की जगह आ गया। पीर अली ने उससे कहा, “आज बहुत से पते लगाने के लिए अंग्रेज़ी छावनी में जाना था।”
“शौक़ से जाइए”, बरहाम बोला, “अकेले ही जाइएगा? बड़ा ख़तरनाक काम है।”
पीर अली ने उत्तर दिया,”अकेला ही जाऊँगा। दो आदमी होने से ख़तरा बढ़ जाएगा।”
पीर अली खिड़की पर से उतरा। थोड़ी देर ही ठहरा था कि दुल्हाजु आ गया। ओरछा फाटक पर उसकी जगह सुंदर आ गई थी।
दुल्हाजु को बरहामुद्दीन ने नहीं देख पाया।
पीर अली और दुल्हाजु मुहरी में धँसे। धंसते ही दुल्हाजु ने नाक दबाई। धीरे से कहा, “मीर साहब यह तो बहुत संकरी और गंदी रास्ता है।”
पीर अली धीरे से बोला, “दीवान साहब वहाँ पहुँचने का यही एकमात्र मार्ग है।”
उन दोनों के निकल जाने पर धीरे से बरहामुद्दीन मुहरी में उतरा और आड़ ओट लेते हुए, पहले स्त्री के छबीने तक चला गया।
संतरी ने टोका। पीर अली ने बांधे हुए संकेत की भाषा में जवाब दिया। वे दोनो छावनी में चले गए।
बरहामुद्दीन ने सोचा, “पीर अली अवश्य कोई घातक षड्यंत्र रच रहा है, और वह झाँसी के लिए शुभ नहीं जान पड़ता। आज दूसरा आदमी इसके साथ कौन है?”
बरहामुद्दीन सावधानी के साथ लौट आया। हाथ पैर धोकर मुहरी की बग़ल में बैठ गया और पीर अली ने बाट जोहने लगा।
दुल्हाजु के साथ पीर अली रोज़ के सामने पेश हुआ। स्टूअर्ट पास था। पूछताछ हुई।
रोज़ - “तमहरे साथ दूसरा आदमी कौन है?”
पीर अली - “दीवान दुल्हाजु ठाकुर साहब। ओरछा फाटक का तोपख़ाना इन्ही के हाथ में है।”
रोज़ - “मैं खुश हुआ। यह किसी राजपरिवार का पुरुष है?”
पीर अली - “जी हाँ।”
रोज़ - “आप क्या काम करोगे दीवान साहब?”
दुल्हाजु - “जो कहा जाय।”
पीर अली - “यह सच्चे आदमी हैं। साहब। गंगाजली की सौगंध लेंगे।”
रोज़ समझ गया।
दुल्हाजु के पसीना छूट गया। निकल भागने को जी चाहा, परंतु वहाँ बाल बराबर भी साँस न थी।
रोज़ ने एक हिंदू सिपाही से लोटा भरकर मँगवाया।
रोज़ ने कहा “आपको गंगा जी की सौगंध खानी पड़ेगी।”
दुल्हाजु ने लोटा दोनो हाथों में ले लिया। आँखें बंद कर ली।
रानी का कृपित चेहरा सामने फिर गया। उसने आँखें खोल ली। रोज़ ने सोचा शपथ गम्भीरता पूर्वक ले रहा है।
पीर अली ने अनुरोध किया, “सौगंध ले लीजिए दीवान साहब।”
दुल्हाजु ने शपथ ली, “गंगाजी मुझको मारे, जो मैं बेईमानी करूँ।”
रोज़ - “बेईमानी किसके साथ? शपथ लो कि कम्पनी सरकार के साथ, अंग्रेजों के साथ बेईमानी नहीं करूँगा।”
पीर अली - “ले लीजिए सौगंध दीवान साहब।”
दुल्हाजु ने शपथ ली, “कम्पनी सरकार के साथ, अंग्रेजों के साथ बेईमानी नहीं करूँगा।” और उसने लोटा नीचे रख दिया।
रोज़ ने कहा, “अभी नहीं। लोटा फिर हाथ में लीजिए और यह कहिए कि ओरछा फाटक का तोपख़ाना या तो बेकार कर देनफ़े या तोपख़ाने से गोला नहीं छोड़ेंगे और ओरछा फाटक हमारे हवाले कर देंगे।”
दुल्हाजु ने तदनुसार क़सम खाई।
पीर अली ने विनय की, “हुज़ूर को ईनाम भी इसी समय बतला देना चाहिए।”
रोज़ ने तुरंत वरदान दिया। “दो गाँव जागीर में दीवान साहब हमेशा के लिए।”
दुल्हाजु ने क्षीण मुस्कुराहट के साथ स्वीकार किया।
दुल्हाजु ने प्रश्न किया, “कब?”
रोज़ ने उत्तर दिया, “जब हम झाँसी पर अधिकार करके शांति स्थापित कर लेंगे।”
“यह नहीं पीछा”, दुल्हाजु ने कहा, “वह काम कब करना होगा?”
रोज़ और स्टूअर्ट ने सलाह की।
रोज़ बोला, “जब हमारे मोर्चे के पीछे लाल झंडा देखो। लेकिन जब तक लाल झंडा न देखो तब तक गोले टेकडी के नीचे हिस्से में लगें, हमारे तोपख़ाने या दस्ते पर गोला न आवे और हमारे तोपख़ाने का गोला तुम्हारे ऊपर न गिरेगा। या तो दीवार की जाद में पड़ेगा या तुम्हारे बग़ल में हो ऊँचाई पर बुर्ज है उस पर पड़ेगा। यदि तुमने हमारे साथ बेईमानी की तो सबसे पहले तुमको फाँसी दी जाएगी।”
दुल्हाजु जा चेहरा तमतमा गया।
“मैंने बहुत बड़ी क़सम खाई है। इन मीर साहब को मालूम है रानी साहब से मेरा दिल बिलकुल फिर गया है।”
पीर अली ने समर्थन किया।
इसके उपरांत वे दोनो चले गए।
रोज़ ने स्टूअर्ट से कहा, “राज- ख़ानदान के लोगों को हाथ में रखना ज़रूरी हैं। डलहौज़ी ने इन लोगों को अपमानित करके हिंदुस्तान को बिलकुल ही खो दिया होता।”
स्टूअर्ट - “लेकिन आगे चलकर इन लोगों को सिर पर भी नहीं बिठलाना है।”
रोज़ - “नहीं जी। वे सिर पर नहीं बैठना चाहते। वे तो अपनी मखमली गद्दियों पर बैठे रहना चाहते हैं। वहीं अडिग बने रहेंगे।”
पीर अली और दुल्हाजु मुहरी पर आ गए। दुल्हाजु ने फिर नाक दबाई।
पीर अली ने मुहरी के सिरे पर पहुँच कर कहा, “दीवान साहब लाल झंडे वाली बात याद रखना।”
दुल्हाजु धीरे से ‘हूं’ करके ओरछा फाटक की ओर चला गया। उसके चले जाने पर पीर अली ने दिवार से सात हुआ किसी को देखा। कांप गया।
बोला, “कौन?”
बरहाम ने आगे बढ़कर उत्तर दिया, “मैं हूँ मीर साहब।”
हृदय की धड़कन को दबाते हुए पीर अली ने कहा, मियाँ खां साहब यहाँ क्या कर रहे थे?”
“मुहरी में छप छप की आवाज़ सुनकर शक हुआ, इसलिए यहाँ आ गया। आपके साथ दूसरा आदमी कौन था?”
“होगा। आपको क्या मतलब? पीर अली ने होश सम्भालते हुए कहा, “जासूसी मुक़द्दमों की बातों में दख़ल नहीं देना चाहिए।”
बरहाम - “आप तो कहते थे कि अकेले ही जाएँगे। दो आदमी होने से ख़तरा बढ़ जाएगा।”
पीर अली - “आपको साथ ले जाता तो ख़तरा ज़रूर बढ़ जाता।”
बरहाम - “यह दीवान साहब कौन आदमी था?”
पीर अली - “दीवान साहबों और खां साहबों की झाँसी में कोई कमी है?”
बरहाम - “हाँ, मीर साहब अलबत्ता बहुत थोड़े हैं।”
पीर अली - “ अपना काम देखिए। मैं तो जाकर सोता हूँ। इतना ख़याल रखिए कि किसी के राज में अपना पैर नहीं पटकना चाहिए।”
बरहाम - “माँ लिया मीर साहब, माँ लिया। लेकिन इतना तो बटला दीजिए कि आप किस तरह पहुँचे और क्या क्या कर आए?”
पीर अली - “आप पीछे पीछे क्यों न चले आए?”
बरहाम - “गया था, लेकिन लाल झंडे की बात समझ में नहीं आई।”
पीर अली सन्नाटे में आ गया, परंतु उसको मनोनिग्रह ना काफ़ी अभ्यास था।
बोला, “लाल झंडे वाली बात रानी साहब को बतलाई जावेगी, आपको नहीं।”
बरहाम ने कहा, “रानी साहब से मैं भी कुछ अर्ज़ करूँगा।”
पीर अली अपने शयनागार में चला गया। उसको नींद नहीं आई। दो दिन पहले उसने एक निश्चय किया था। सवेरा होते ही वह रानी के पास पहुँचा।
पिछले रोज़ बहुत तोपची और सैनिक मारे गए थे। रानी ने रात में तोपचियों का प्रबंध कर लिया था। तड़के के पूर्व ही वह नए सैनिकों की भर्ती के उपायों में व्यस्त थी। जवाहर सिंह और रघुनाथ सिंह नजी उसी चिंतन में वहीं थे।
पीर अली ने तुरंत निवेदन किया, “श्रीमंत सरकार, आज पश्चिमी मोर्चे से बहुत ज़ोर का हमला होगा। जब आपका ध्यान उस ओर भटक जाएगा तब दक्षिणी मोर्चे से जो जीवनशाह की टौरिया के बग़ल में हैं, धावा बोला जाएगा। रात की जासूसी का यही समाचार है,”
रानी ने उपेक्षा के साथ कहा, “देखूँगी। प्रबंध हो गया है।”
वह किसी काम के लिए शहर में जाने को उद्यत थी।
पीर अली हाथ जोड़कर बोला, “श्रीमंत सरकार उस बरहामुद्दीन को मेरे ठिए से हटा दिया जाय। वह मेरे काम में बहुत दख़ल देता है।
“देखूँगी” रानी ने कहा, “कूच और कहना है?”
“हुज़ूर”, पीर अली ने ज़रा थर्राए हुए सवार में कहा, “एक लाल झंडे के बारे में निवेदन करना है।”
रानी - “लाल पीले झंडे के विषय में जो कूच कहना हो जल्दी कहो।”
पीर अली।- “अंग्रेज धोखा देने के लिए खूनी झंडा किसी टेकडी पर उठाएँगे और वहाँ से गोलाबारी भी धूमधाम के साथ करेंगे, परंतु हमला करेंगे किसी दूसरी दिशा से।
रानी - “समझ लिया। कुछ और?”
पीर अली - “बस हुज़ूर। केवल यह कि बरहामुद्दीन को मेरी बुर्ज पर से हटा दिया जाय।”
रानी अनसुनी करके जवाहर सिंह के साथ शहर की ओर गई। पी अली दूसरी ओर चला गया।
रानी को मार्ग में बरहामुद्दीन मिल गया। उसने रोक लिया।
अनुनय के साथ प्रार्थना की, पीर अली से होशियार हो जाएँ सरकार। वह रात को अंग्रेज़ी छावनी में जाते हैं।”
रानी रात की जागी थी। सैनिकों का तुरंत प्रबंध करना अत्यनर आवश्यक था। मार्ग की टोकाटाकी सहन नहीं हो रही थी।
बोली, “तुमको कैसे मालूम?”
बरहामुद्दीन ने उत्तर दिया। “मैं पीछे पीछे गया था, अंग्रेज संतरी ने इनको टोका। इन्होंने इशारे की बोली में जवाब दिया। संतरी ने तुरंत छावनी में जाने दिया। यह पहले दिन की बात है सरकार। गई रात वे किसी एक दीवान साहब को साथ ले गए थे। मैं फिर से पीछे पीछे गया। संतरी ने उसी तरह चिल्ला कर टोका। इन्होंने उसी तरह चिल्लाकर इशारे की बोली में जवाब दिया।
दोनो को ख़त से छावनी में जाने की इजाज़त मिल गई। ये लोग देर से लौट कर आए। जब दोनो लगा हुए पीर अली ने दूसरे से कहा, दीवान साहब लाल झंडे वाली बात याद रखना। मैंने इन दीवान साहब को नहीं पहचान पाया। हुज़ूर इस कार्रवाई में दाग है। द्रोह है। ख़तरा है।”
घोड़ा आगे बढ़ने के लिए लगाम चबा रहा था, पैर पटक रहा था।
रानी ने रुखाई से साथ कहा, “तुम मूर्ख मालूम होते हो। अपना काम न करके दूसरों के पीछे पीछे घूमते हो। अपना ठिया देखो।”
रानी आगे बढ़ गई। साथ में जवाहर सिंह। जवाहर सिंह ने विनय की, “सरकार पठान मूर्ख नहीं हैं। पीर अली की जाँच होनी चाहिए।”
रानी ने उत्तर दिया, “सामने का काम पहले निपटा लो और फिर जाँच करो। पता लगाना यह लोग कौन दीवान साहब हैं, जो पीर अली के साथ गया था।”
नए सैनिकों का प्रबंध करके रानी क़िले में लौट आई।
जवाहर सिंह शहर के इंतज़ाम में उलझ गया।
रानी ने ज़रा सा अवकाश मिलने पर मोतीबाई से बरहामुद्दीन वाली बात कही।
मोतीबाई बोली, “ पीर अली बेईमानी कर सकता है। साथ में दीवान दुल्हाजु गए होंगे। आप उनसे रुष्ट हुई थी।”
रानी ने कहा, “जब तक जाँच नहीं हुए है इन दोनो पर नज़र रखनी चाहिए, परंतु सहसा ऐसा कोई काम न करना जिसके लिए पीछे पछताना पड़े। पीर अली ने पहले अच्छे कार्य किए हैं। और दीवान दुल्हाजु ने ओरछा फाटक की अच्छी सम्भाल की है। इस समय हाथ में कोई बधिया गोलंदाज दुल्हाजु की जगह भेजने के लिए नहीं है।”
“मेरे मन में आता है, मोतीबाई बोली, “सुंदर को दीवान साहब के साथ दिन के काम के लिए कर दीजिए। रात के काम के लिए किसी और को भेज दिया जाएगा।”
रानी ने स्वीकार किया।
सुंदर रात को जागी थी। सिने के लिए तैयार हुई थी कि उसको यह योजना बतलाई गई। सुंदर की नींद भाग गई। वह नहा धोकर और थोड़ा सा खा पी कर ओरछा फाटक पर पाहुँच गई।
उस दिन भी घनघोर युद्ध हुआ। दोनो तरफ़ विकट नरसंहार। केवल दो बातें विशेष हुई, ओरछा फाटक की वह तोप को दुल्हाजु के हाथ में थी अच्छी नहीं चली और एक गोला महल के सामने जहां बारूद बन रही थी गिरा, फटा और बारूद जल कर धड़ाके के साथ २५-३० स्त्री पुरुषों को अपने साथ हवा में उठा ले गई - उनके अंगों का भी पता न चला कि कहाँ गए।
बारूद में आग लग जाने के करब क़िले में खलबली मच गई। भीषण नरसंहार तथा नगर के मकानों के भयानक विध्वंस के कारण लोगों में निराश फैलने लगी। क़िले की दिवारों में जगह जगह छेद हो गए थे। संध्या के उपरांत रानी शहर में गई। दिवारों का निरीक्षण किया। मरम्मत कराई। उस समय जबकि अन्य रातों की अपेक्षा इस रात अधिक गोलाबारी हो रही थी और, इतनी शीघ्रता के साथ मानो कोई कल काम कर रही हो; रात को देर में लौटी। सीधी महादेव के मंदिर में गई। ध्यान के उपरांत बारादरी में थोड़ी देर के लिए जा लेती। एक झपकी आई, उन्होंने स्वप्न देखा : -
एक गौरवर्ण युवती, सुंदर आकृति वाली। बड़े बड़े काले नेत्र लाल रंग की साड़ी का अंचल बांधे हुए। आभूषणों से लदी हुई। वह स्त्री क़िले की बुर्ज पर खाड़ी हुए अंग्रेजों के लाल लाल गोलों को अपने कोमल कारों में झेल रही है। कह रही है - लक्ष्मीबाई देख, इन गोलों को झेलते झेलते मेरे हाथ काले हो गए हैं। चिंता मत कर। स्वराज्य की देवी अमर है।” रानी की आँख खुली। भयंकर गोलाबारी हो रही थी औत होती रही। पर उन्हें न कोई चिंता न थकान। झटपट जीने से उतरी और स्वप्न का संवाद सेंपती और मुख्य मुख्य दलपतियों को सुनाया। सवेरा होते होते यह संवाद सर्वत्र क़िले और नगर में फैल गया। तमाम स्त्री पुरुषों की नसों में बिजली साई कौंध गयी। डटकर युद्ध होने लगा। पहले दी नकी अपेक्षा भी अधिक घोर। उस दिन पीर अली और बरहामुद्दीन वाले मामले की जाँच पड़ताल न हो सकी परंतु संध्या समय रानी को मालूम गया कि दुल्हाजु ने अनमने होकर काम किया।
Part #22 ; Part #24
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