Jhansi ki Rani - Lakshmibai # 20 - Vrindavan Lal Verma

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झाँसी के दक्षिण में सागर का ज़िला और सागर के दक्षिण पश्चिम में भोपाल रियासत। भोपाल रियासत में आमापानी नाम की गढ़ी थी। थोड़ी दूर पर राहत गढ़ नाम का क़िला था। आमापानी के अधिकारी ने राहतगढ पर क़ब्ज़ा कर लिया। राहतगढ में बहुत से पठान इकट्ठे हो गए।

सागर की सेना ने विद्रोह किया और सागर को लूट लोय। जबलपुर में विप्लव हुआ। सारे विंध्यखंड में विप्लव की लपटें बढ़ी।

सन १८५८ के मध्य सितम्बर में जनरल सार ह्यू रोज़ ससैन्य इंग्लैंड से बम्बई उतरा। विप्लवकारियों से बदला लेना और विप्लव का दमन करना उसका दृढ़ निश्चय था। 

उसी महीने में दिल्ली का पतन हुआ। बहादुर शाह क़ैद कर लिया गया और उसके दो शहज़ादे मार डाले गए। लखनऊ का मुहासिरा समाप्त हुआ। कानपुर में तात्या टोपे ने अंग्रेजों के कम से कम तीन जनरलों की लड़ाई में हराया।परंतु दिल्ली के पतन का विप्लवकारियों पर बुरा प्रभाव पड़ा। 

लखनऊ के प्रथम पतन पर भी अवध में जनता ने युद्ध जारी रक्खा अंग्रेजों ने इलाहाबाद फ़तेहपुर इत्यादि में प्रचंड हिंसा वृत्ति से प्रेरित होकर भीषण और विभत्स क्रूर कृत्य किए। इनके समाचार झाँसी में आए। बिठूर का पतन हुआ। नाना साहब कठिनाई से रात के समय अपनी पत्नियों और विमाता को नाव में बिठला कर निकल पाए और लखनऊ की बेगम के पास पहुँच पाए।झाँसी वालों के संसर्ग में फिर कभी नहीं आए। राव साहब और तात्या टोपे अपनी सेना लेकर कालपी गए और यहाँ से युद्ध की योजनाएँ प्रस्तुत करने लगे। यह समाचार भी झाँसी आया।

झाँसी में हार खाकर नत्थेखां टीकमगढ़ में शांति के साथ नहीं बैठा वरण झाँसी के पूर्वीय परगनों में डेढ़ दो महीने तक लूट मार करना रहा। उसकी पड़वाहा गरौठा और नौटा की लूट विख्यात हैं। परंतु रानी ने थोड़े समय में ही यह लूट मार कुचल दी और नत्थेखां को बिलकुल हट जाना पड़ा।

 रानी की छोटी साई सेना को दहलाने और हैरान करने के लिए यह सब काफ़ी था, परंतु रानी को घबराया हुआ या चिंतित कभी किसी ने नहीं देखा। उनका कार्य सतत, अनवरत जारी था।

वही कार्यक्रम। वही दिनचर्या, वही सद्भावना और जनता की रक्षा तथा जनता के नायकत्व का वही दृढ़ संकल्प। यदि अकेले ही स्वराजय की लड़ाई लड़नी पड़े तो लड़ी जाएगी।” - यह रानी का अटल निश्चय था। और उनका अचल विश्वास था कि एक युद्ध और एक जन्म से ही कार्य पूरी तौर पर सम्पन्न नहीं होता। 

संभवामि युगे युगे

उन्होंने पढ़ा था, उनको याद था और उनके कान कान में व्याप्त था। वे अपने युग के उपकरण और साधन काम में लाती थी। जिस समाज में उनका जन्म हुआ था, उसी में होकर उनको काम करना था, परंतु उस समाज की हथकड़ियों और बेड़ियों की उन्होंने पूजा नहीं की। वें अपने युग से आगे निकल गयी थी, किंतु उन्होंने अपने युग और समाज को साथ ले चलने को, भरसक प्रयत्न किया। झाँसी में विशेषतः और विंध्यखंड में साधारणतया, स्त्री की अपेक्षाकृत स्वतंत्रता और नारीत्व की स्वस्थता लक्ष्मीबाई के नाम के साथ बहुत सम्बद्ध है।

मंगल और शुक्र के दिन रानी, महालक्ष्मी के मंदिर में ज़ाया करती थी, जो लक्ष्मी फाटक के बाहर, लक्ष्मीताल के ऊपर है। कभी पालकी में, कभी घोड़े पर। कभी पालकी पर चिक डालकर, कभी बिना चिक के। कभी साड़ी पहिन कर, कभी पुरुष वेश में - सुंदर साफ़ बांधे हुए। कभी बिलकुल अकेली, और कभी धूमधाम के साथ। जब पालकी पर जाती कुछ स्त्रियाँ अलंकारों से लड़ी, लाल मखमली जूते पहिने, परतले में पिस्तौल लटकाए पालकी का पाया पकड़े साथ दौड़ती हुई जाती थी। पालकी के आगे सवार गेरुआ झंडा फहराता हुआ चलता था। उसके आगे सौ घुड़सवार।

साथ में रणवाद्य, नौबत। पीछे पठानों, मेवतियों और बुंदेलखंडियों का रिसाला। बग़ल में प्रायः भाऊ बख्शी घोड़े पर सवार। 

मार्ग में विनती भी सुनती थी। 

एक दिन एक भिक्षुक ब्राह्मण खड़ा हुआ। काशी से आया था। पत्नी मर गई थी। दूसरा विवाह करना चाहता था। दरिद्र होने के कारण लड़की वाला विवाह करने को तैयार था। चार सौ रुपए की अटक थी। 

उन्ही दिनों कुंवर मंडली में एक नया व्यक्ति भर्ती हुआ था। नाम रामचंद्र देखमुख। देशमुख को आज्ञा दी, ख़ज़ाने से इस ब्राह्मण को पाँच सौ रुपया दिलवा दो।

देशमुख ने कहा, “जो हुकुम।

ब्राह्मण ने आशीर्वाद दिया।

रानी ने ब्राह्मण से मुस्करा कर कहा, “विवाह के समय मुझको न्योता देना भूल जाना।

ब्राह्मण गदगद हो गया। आँखों से आँसू बह पड़े, मुँह से एक शब्द निकला। साथियों में, सहेलियों में, जनता में, सेना में, ब्राह्मणों में, अब्रह्मणों में विद्युत वेग के साथ यह बात फैल गई।

ऐसी रानी के लिए, ऐसी रानी की बात के लिए, ऐसी स्त्री के सिद्धांत के लिए, क्यों लोग सहज ही प्राण दे डालने को सन्नद्ध होते? कुंवार का महीना आया।रानी ने श्राद्ध किया। नवरात्र में यज्ञ का अनुष्ठान। महल के सामने पुस्तकालय था। निकटवर्ती मैदान में यज्ञ मंडप खड़ा किया गया। सौ ब्राह्मण हवन करने के लिए नियुक्त किए गए। अन्य ब्राह्मण विविध विधान के लिए। 

गणेश मंदिर में अर्थव का आवर्तन अलग हो रहा था। सप्तशती के पाठक के लिए १४ ब्राह्मण दुर्गा के मंदिर में चाँदी के शमईयों में घी के दिए जलाए पथ करने पर नियुक्त। जब यज्ञ समाप्त हुआ मुख्य संकल्प रानी के नाम से और नांदी श्राद्ध दामोदर राव के हाथ से कराया गया - पूना तरफ़ के एक ब्राह्मण ने आक्षेप किया और शास्त्रों के वचन उद्धृत करने आरम्भ किया। उसकी बात मानी गई। वह विजय गर्व से फूल गया।

रानी को यह दुस्सह हुआ।

रानी ने काशीबाई से कहा, “काशी तू शांति के साथ सोच विचार किया करती है। ब्राह्मणों का यह विवाद तुझको कैसा लगा?”काशी ने उत्तर दिया, “सरकार, इन लोगों का वितंडावाद कभी ना झुका, देश का दुर्भाग्य कभी रुका - ये लोग सदा इसी में मस्त रहे। मालूम नहीं भगवान ने इतनी नासमझी क्यों इन शास्त्रज्ञों के ही पल्ले में परसी है।

रानी ने कहा, “करम अच्छा है, परंतु उसके कराने वाले अकर्मण्य हैं।

बड़ी बात यह है कि राज्य का भार इन लोगों पर नहीं है, नहीं तो हम सब डूब जातेकाशी बोली, “राजकीय समस्याओं के सुलझाने में यदि ये लोग इतना विवेक खर्च करे तो कितना बड़ा काम हो।

काशी”, रानी ने कहा, “जब ये लोग राजनीति का व्यायाम करते हैं तब वितंडा नहीं करते। धर्म से ही जाने ये लोग क्यों ऐसी रूठे हैं।

विजयदशमी के दिन दरबार हुआ। अंग्रेजों ने जो जागीरें ज़ब्त कर ली थी, वें वापिस कर दी गई। नत्थेखां वाली लड़ाई में जिन लोगों ने बड़े काम किए थे, उनको या उनके वारिसों को, जो पहले ही पुरस्कृत नहीं हो चूके थे, पारितोषिक दिए गए। सागर सिंह और पीर अली भी ख़ाली हाथ लौटे।

जब सागर सिंह सामने आया रानी ने कहा, “तुमको नवाब साहब की हवेली में कितना माल मिला?”

सागर सिंह ने उत्तर दिया,”बहुत कम सरकार। पीर अली मेरे गवाह हैं। वे साथ थे। नवाब साहब की हवेली में आग लगाने वालों में सबसे आगे थे।पीर अली आगे बढ़ा।

बोला, “श्रीमंत सरकार, मैंने नवाब साहब का बहुत दिनों नमक अदा किया, परंतु जब देखा कि वे श्रीमंत सरकार के विरुद्ध है, तब उसने अलग हो गया।  बेबस मुझको लड़ना भी पड़ा। आग मैंने सबसे पहले नहीं लगाई।आग लग चुकी थी। माल अवश्य मैंने सिपाहियों को बतलाया, क्योंकि वह उचित था। थोड़ा ही मिला। नवाब साहब पहले ही निकल ले गए। 

रानी को अच्छा नहीं लगा, परंतु उन्होंने कहा कुछ नहीं। 

रात को नाटक हुआ। पुरुष और स्त्रियों का दोनो का अभिनय स्त्रियों ने ही लिया। नाटक-शाला में स्त्रियों के सिवाय पुरुष एक भी था। खेल शकुंतला का था। जूही ने शकुंतला का अभिनय किया, मोटी ने उसकी सहेली का और काशी ने दुष्यंत का।

नाटक की समाप्ति पर रानी ने मोतीबाई से पूछा, “पहले भी ऐसा ही अभिनय किया करती थी?”

मोतीबाई - “आज, सरकार, हम लोगों ने अच्छे से अच्छा प्रयत्न किया है।

 रानी - “ जूही तो शकुंतला जैसी तो जंची, परंतु इसका दुष्यंत रद्दी था।

जूही - “नहीं सरकार

रानी को कुछ स्मरण हो आया।

बोली, “ठीक कहती है जूही। तेरा और तेरे दुष्यंत जौहर युद्ध में देखूँगी।

जूही ने निस्संकोच कहा, “सरकार मेरा और मेरे दुष्यंत का जौहर देखकर पुरस्कार देगी।

काशीबाई हँसकर बोली, “मुझको तो आगे कभी दुष्यंत बनना नहीं।

रानी ने चुटकी काटी। कहा, “तब और कोई दुशयन्त बनेगा।और मोतीबाई की ओर देखा। मोतीबाई ने गार्डन मोदी। जूही झेंपकर पीछे सट गई।

सहेलियों में विनोद छा गया।

जाते जाते रानी ने मोतीबाई से अकेले में कहा, “खुदाबख्श से कहना कि बारूद के कारख़ाने का ध्यान रक्खे। हमको इतनी बारूद चाहिए कि हम क़िले में बैठकर महीनों लड़ सकें।

मोतीबाई ने नीचा सिर किए हुए पूछा, “सरकार की इस आज्ञा का कथन में ही करूँ?”
और कौन करेगा पगली”, रानी ने हँसकर कहा, “तात्या टोपे का भी समाचार मँगवा। देख क्या वे अब भी कालपी में हैं? उनका झाँसी आना जाना बना रहना चाहिए। मालूम अंग्रेज कब जावें। हम लोग झाँसी में घिरे हुए अनंत काल तक तो लड़ नहीं सकते। उनको इतना समीप रहना चाहिए कि अटक पड़ने पर सहायता लेकर, शीघ्र सकें।

दूसरे दिन रानी ने दीवान ख़ास में जवाहर सिंह और रघुनाथ सिंह को बुलवाया। रानी कार्य की प्रगति को और तेज करना चाहती थी। 

रानी -“तोपें ऐसी ढाल रही हैं , जो पीछे धक्का दे और जल्दी गरम हो?”

जवाहर सिंह - “हाँ सरकार, बख्शी जी और उनके कारीगर इस विद्या में निपुण हैं।

रानी - “बारूद?”

रघुनाथ सिंह - “तीन महीने की लड़ाई के लिए तैयार है। आज से कुँवर खुदाबख्श ने और भी तेज़ी पकड़ी है।

रानी - “अच्छी बंदूक़ें और तलवारें भी बहुत संख्या में चाहिए।

जवाहर सिंह - “बन गई हैं और बन रही हैं।

रानी - “गोले?”

जवाहर सिंह - “भाऊ बख्शी आध सेर से लेकर पैंसठ सेर तक गोले तैयार कर रहे हैं। ठोस और पोले फटने वाले भी।

रानी - “मैं चाहती हूँ कि इन सब हथियारों के चलाने वाले भी अधिकता से तैयार किए जावें।

जवाहर सिंह - “जनता में बहुत उत्साह है। ऊँची - नीची सब जातियाँ युद्ध की उमंग से उमड़ रही हैं।

 रानी - “सबसे अधिक क़िं लोगों में उत्साह हैं?”

जवाहर सिंह - सरकार यह बतलाना कठिन है। ठाकुरों और पठानों में तो स्वाभाविक ही है। कोरियों, तेलियों और काछियों में भी बहुत उमंग है। बनिए और ब्राह्मण भी पीछे नहीं हैं।

रानी - “क्या शास्त्रियों में भी?”

जवाहर सिंह - “वे भी तो झाँसी के ही हैं, परंतु उनको जब शास्त्र और पूजन से अवकाश मिलता है तब।

रानी - “हमारे देश में नीच-ऊँच का भेद होता तो कितना अच्छा होता।

जवाहर सिंह - “भेद तो भगवान ने ही बनाया है, सरकार।

रानी चुप रही। थोड़ी देर बाद बोली, मैं चाहती हूँ कि सब जातियों के चुने हुए लोगों को, तोप बंदूक़ का चलाना सिखलाया जावे।

जवाहर सिंह ने बहुत उत्साह बिना दिखलाए कहा, “यह काम जारी है सरकार।

रानी - “मैं सहेलियों और कुछ अन्य स्त्रियों को, बहुत अच्छा गोलंदाज बनना चाहती हूँ।

रघुनाथ सिंह - “आज्ञा मिल गई है। उसके अनुसार काम किया जाएगा। अवश्य।

रानी - “क़िले में अन्न इत्यादि भी काफ़ी जमा कर लो। कुछ ठीक नहीं कब घेरा पड़ जाए।” 

जवाहर सिंह - - “काफ़ी अन्न एकत्र किया जा रहा है। और शीघ्र ही क़िले के कमठाने में जमा कर लिया जावेगा।

रानी - “चूना, ईंट, पत्थर भी इकट्ठा कर रखना। कारीगर भी हाथ में रहें।

जवाहर सिंह - “जो आज्ञा।

रानी - “सेना का और युद्ध का कोई भी अंग निर्बल रहने पावे।


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उत्तर और पूर्व में अंग्रेजों की विजय पराजय का करम चालू था। लखनऊ के पतन के उपरांत उसका फिर उत्थान हुआ। शहर में बगीचों बारहदरियों में महलों में युद्ध होता रहा। कानपुर के सूत्र को तात्या टोपे ने फिर पकड़ा। वह ग्वालियर गया और वहाँ की अंग्रेज़ी हिंदुस्तानी सेना को फोड़कर अपने साथ ले आया और उसने अंग्रेजों के जनरल विंढम को हराया। परंतु अंग्रेज सत्रह सहस्र गोरी सेना, नौ सहस्र गोरखों और रहुसंख्यक सिक्खों का डाल लेकर लखनऊ पर पहुँच गए। विप्लवकारियों ने बहुत करारे युद्ध किए। उत्तर और पूर्व के युद्धों में ततुआ टोपे ने बहुत बाग लिया। अंत में जब बिठूर मिट गया और कानपुर अंतिम बार अंग्रेजों की अधीनता में चला गया, टन तात्या कालपी के आसपास से युद्ध करने लगा।

शीत काल चुका था। बिहार और अवध में घोर लड़ाई जारी थी, परंतु विप्लवकारियों में व्यवस्था थी। बड़े सरदार या राजा के निधन पर छोटी स्तिथि वाले नायक का नेतृत्व मान्य होता था, इसलिए अंग्रेज धीरे धीरे एक स्थान के बाद दूसरे स्थान को और एक भूखंड के उपरांत दूसरे भूखंड को अधिकृत करते चले जा रहे थे। अंग्रेजों की क्रूरताओं ने भी विप्लव को नहीं दबा पाया था और गोरखों और सिखों की सहायता से वे इस देश को पुनः प्राप्त कर सकते थे। विप्लवकारियों में सामंत नेता के देहांत के पश्चात ही अनुशासन की कमी उत्पन्न हो जाती थी और इसी कारण उनको हार पर हार खानी पड़ी। नहीं तो तात्या टोपे इत्यादि सेनापतियों के होते हुए बड़े बड़े अंग्रेज जनरल भी मात खा जाते।

यही कारण दक्षिण में काम कर रहा था। जनरल रोज़ ने अपनी सेना के दो भाग किए। एक को उसने मऊ छावनी की ओर भेजा और दूसरे को लेकर वह सागर की ओर बाधा। राहतगढ सागर से चौबीस मील के फ़ासले पर था। याहन से पठान जनरल रोज़ का मुक़ाबला कर रहे थे। चार दिन घनघोर युद्ध करने के बाद पठानों को क़िला छोड़ना पड़ा। राहतगढ से १५ मील पर बरोडिया का क़िला था। यहाँ बानपुर के राजा मर्दन सिंह के आश्रय में अंग्रेज़ी फ़ौज के कुछ विद्रोही थे। रोज़ ने इनको भी हारा दिया और फिर वह सागर की ओर बाधा। पूर्व की ओर गढ़ाकोटा का क़िला पड़ता था। वह विप्लवकारियों के हाथ में था। उसको लेने के पहले रोज़ ने सागर पर चढ़ाई की।

नर्मदा के उत्तरी किनारे का अधिकांश भूखंड विप्लवकारियों के हाथ में था। इसको अपने हाथ में किए बिना जनरल रोज़ झाँसी की ओर नहीं बढ़ सकता था। सागर और झाँसी के बीच में बानपुर का राजा मर्दन सिंह और शाह गढ़ का राजा बखतबली लोहा लेने को तैयार थे।

अंग्रेजों का प्रधान सेनापति सर क़ालीन कैम्बल था। वह उत्तराखंड के विप्लव के दमन में संलग्न था। उसका मत था कि जब तक झाँसी नहीं कुचली जाती, तब तक उत्तराखंड हाथ नहीं आता। इसलिए रोज़ सागर के द्वार से झाँसी की ओर रहा था। बीच में ऊबड़ खाबड़ भूमि और ऊबड़ खाबड़ लड़ाकू जन समूह। परंतु रोज़ इत्यादि अंग्रेज जनरलों को विश्वास था, जहां विप्लवकारियों ने नेता राजा, नवाब जागीरदार मारे गए वहीं विप्लव समाप्त हो जाएगा।


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विकट ठंड। ऊपर से हड्डी कंपाने वाली हवा। कुछ ही दिन पहले पानी बरस चुका था। ठिठुरी हुई घास के ऊपर बड़े बड़े ओसकण। मृदुल बाल रवि की रश्मियाँ उनके ऊपर सरकती हुई। झलकारी कोरिन कंधे पर बंदूक़ रखे, बग़ल में बारूद और गोलियों का झोला लटकाए उन्नाव फाटक से बाहर हुई। जब हाथ ठिठुर जाते तब बंदूक़ को बग़ल में दाब लेती और दोनो हाथ ओढ़नी में छिपा लेती। उन्नाव फाटक के उत्तर में टौरिया है, जिसको अंजलि की टौरिया कहते हैं। उसके दक्षिणी सिरे पर अंजनी और हनुमान का एक छोटा सा चबूतरा है। थोड़ी देर में झलकारी इसी चबूतरे के पास पहुँची और धूप लेने लगी। ठंडी हवा एर सूर्य की कोमल किरणे उसकी बड़ी बड़ी आँखों को सूरमा सा लगाने लगी।

जब दिन चढ़ आया तब वहाँ से ज़रा हटकर निशाना बाज़ी करने लगी। काफ़ी समय तक करती रही। 

अंजनी की तौरिया की उपत्यका विषम थी। वहाँ ऐसे समय कोई आता जाता था। लेकिन भेद बकरी और ढोर चरने के लिए निकलते थे। अकस्मात् झलकारी की गोली एक पशु को लगी। वह ठीक तौर पर नहीं देख पायी कि गोली भेड़ को लगी या बछिया को। संदेह था कि बछिया को लगी, परंतु मन कहता था भेड़ को लगी होगी।वह बेतहाशा घर आई। पूरन घरु काम कर रहा था। झलकारी ने उसको अपनी घबराहट का कारण बतलाया। पूरन को हद दर्जे की खीज हुई।

बोला, “तुमने का तक देखी कै बछिया हतो कै भेड़ और ना काऊ से का पूँछी कि की कौ ढोर हटी?”

झलकारी ने खिसिया कर कहा, “मैं उतै कीसें पूछती? उतै बरेदी तो हतौइ नई। बरेदी होतौ तो ढोर उतै कैसे जाते?”

पूरन चिंतित था। खोज करने के लिए निकला। यदि भेड़ मरी है तो उसका दाम दे दिया जावेगा जाति में कुछ दंड लगेगा वह भुगत लेगा, परंतु यदि बछिया मरी है या घायल हो गई है तो आयी महान विपद। पूरन सोच रहा था।  

निशाने से उचट कर एक बछिया के पैर में गोली लगी थी। वह घायल हुई और गिर पड़ी। बछिया एक ब्राह्मण की थी। मशहूर हुआ कि बछिया मर गई - झलकारी ने मार डाली। बरेदी अपनी अनुपस्थिति अस्वीकृत करता था। उसने कहा, “मैंने झलकारी को गोली मारते अपनी आँखों देखा है।

शहर में राउर मच गया। झलकारी कभी कभी रानी के पास जाती थी। रानी ने स्त्रियों की जो सेना बनाई थी, उसकी एक सिपाही झलकारी भी थी। संध्या समय साफ़ सुथरे और रंगीन कपड़े पहिन कर थली में दिए संवार कर, फूल सजा कर वह मंदिर में पूजन के लिए आया करती थी और पाने गाल एमें फोलों का हार डाले भी दिखलाई देती थी। अन्य जाति की स्त्रियाँ भी इस प्रकार की स्वतंत्रता पाए हुए थी, परंतु झलकारी की स्वतंत्रता में एक ओज था - और वह ऊँची जाति वाले अनेक लोगों को खटकता था। 

झलकारी ने एक गरीब ब्राह्मण की बछिया मार डाली।

अरे वाह तो इतनी मस्त गई है कि अपने पति तक की मारपीट करती है।

वह अच्छों अच्छों को किसी गिनती में नहीं लेखती।

इस प्रकार की स्त्रियाँ रानी साहब को बदनाम कर रही हैं।इत्यादि उद्गार बाज़ार में निसृत हो रहे थे।

प्रायश्चित कराओ।

गधे पर बिठलाकर काला मुँह करो।

जब तक प्रायश्चित हो जाए तब तक कुआँ, बाज़ार पड़ोस सब बंद रहे।

खाना पकाने के लिए कोई पूरन को आगी तक दे।

कोई उसको छुए नहीं।इत्यादि व्यवस्थाएँ भी दे डाली गईं।

पूरन ने खोजकर पता लगा लिया कि बछिया मरी नहीं है। परंतु लोगों को अपनी बात और व्यवस्था वापिस नहीं लेनी थी, इसलिए ब्राह्मण को फोड़ लिया और उसने घायल बछिया को छिपा लिया। कह दिया कि जाने कहाँ गई - मर गई। 

कोरियो ने पंचायत की। बहिष्कार का दंड दिया। उस युग के हिंदू के लिए रौरव नरक से बढ़कर।

काला मुँह करके गधे पर चढ़ाकर बाज़ार में जुलूस निकालने की बात तै की। पूरन के बहुत घिघियाने पतियाने और कुछ और स्त्रियों के आड़े जाने के कारण काला मुँह करना तो, निर्णय में से कम कर दिया गया बाक़ी सजा बहाल रही।

जिस दिन प्रायश्चित का यह रूप प्रकट होना था, उस दिन शुक्रवार था संध्या का समय निश्चित था।

उसी दिन रानी महालक्ष्मी के मंदिर को जाने वाली थी वे हलवाईपूरे के पश्चिमी सिरे पर उस दिन अकेली सवार रही थी। थोड़ी दूर पीछे एक अंगरक्षक था। 

कुछ अधनंगे मंगतों ने घेरा। 

रानी ने पूछा, “क्या है?”

उत्तर मिला - “ठंड के मारे मर रहे हैं। कपड़ा नहीं है।

रानी ने अंगरक्षक को बुलाकर आज्ञा दी, “दीवान से कहो कि शहर में। जितने माँगने, भिखारी साधु, फ़क़ीर हो, उन सब को एक एक करती बनवा दें और एक एक कम्बल दे।

मंगतों को विश्वास हो गया कि आज्ञा का पालन होगा।

हलवाईपूरा के मध्य में पहुँची कि पूरन घोड़े के सामने जा गिरा।

रानी के पूछने पर उसने अपनी विपत्ति सुनाई। रानी सोच विचार में पड़ गई।

पंचायत के निर्णय का कैसे उल्लंघन करूँ?”

सरकार बछिया मारी नइया।

ब्राह्मण को बुलवाओ जिसकी बछिया थी।

जब तक ब्राह्मण आया, तब तक रानी बाज़ार वालों से, उनके बाल बच्चों की कुशलवार्ता पूछती रही।

ब्राह्मण के आने पर रानी ने अपनी सौगंध धरकर सच्चा हाल कहने का आग्रह किया। कोई गुंजाइश झूठ बोलने के लिए रही।

ब्राह्मण ने कहा, “महाराज, चाहे मारें चाहे पाले, सच बात यह है कि बछिया मारी नहीं है। वह मेरे एक नातेदार के यहाँ दतिया राज्य में भेज दी गई है।

रानी ब्राह्मण को उसके फ़रेब के लिए कुछ दंड देना चाहती थी, परंतु बाज़ार के मुखिया- चौधरी आड़े गए। ब्राह्मण छोड़ दिया गया।

परंतु बाज़ार वाले भौचक्के से रह गए। जो लोग झलकारी की गधा सवारी का जुलूस देखने के आकांक्षी थे, बहुत निराश हुए। पंचो को अपना निर्णय वापिस लेने में असुविधा हुई। वापिस लेना पड़ा, परंतु पूरन को एक पंगत बछिया के घायल होने के कारण तो भी देनी पड़ी। प्रायश्चित की ऐसे पंगनतों में कुछ ब्राह्मण और कुछ अन्य जातियों के सरपंच बुलाए जाते थे। पूरन ने कुछ ब्राह्मण तो न्योत लिए, परंतु बाज़ार के सरपंच श्याम चौधरी और मगन गन्धी को नहीं बुलाया। वे दोनो बिना निमंत्रण के पूरन के यहाँ पहुँच गए। पूरन को आश्चर्य और परिताप हुआ। 

श्याम चौधरी ने कहा, तुम न्योतना भूल गए तो हम पंगत में आना तो नहीं भूले।

ऐसे लोगों के लिए भोजन ब्राह्मण बनाता था और ये लोग भोज में शरीक होते थे। इसी प्रकार के सहयोग के कारण तत्कालीन समाज के वे दुखदायक पहलू किसी प्रचार भुगत लिए जाते थे।


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जब जनरल रोज़ ने सागर पर आक्रमण करके क़ैदी अंग्रेजों को मुक्त किया, उनको इतना हर्ष हुआ कि उन्होंने तोपों की सलामी दागी! सागर को अधिकार में कर लेने के बाद रोज़ ने गढ़ाकोटा को हाथ में लिया। परंतु जगह जगह विप्लवकारियों के सशस्त्र दल बिखरे हुए थे। इनका दमन करने के लिए रोज़ ने अपनी सेना के कई भाग किए और उनको भिन्न भिन्न दिशाओं में भेजा। वह स्वयं सेना के एक बड़े भाग के साथ झाँसी के लिए नारहट घाटी की ओर आया। उसकी सेना का एक भाग शाहगढ़ के राजा बखतबली काफ़ी बड़ी सेना लिए हुए मौजूद है। नारहट घाटी पर मर्दन सिंह की भी सेना बहुसंख्यक थी। रोज़ अपनी सेना लेकर मदन पूर घाटी की ओर बाधा। मर्दन सिंह ने भी उसी ओर बाग मोदी, रोज़ चाहता था कि बखतबली और मर्दन सिंह को अटकाने के लिए नाढ़त घाटी की ओर लौटाया और स्वयं मदनपुर की ओर चाल दिया। मदनपुर उस स्थल से पूर्व की ओर लगभग २० मील था। 

मर्दन सिंह रोज़ की इस चाल को समझ सका और वह मदनपुर की ओर बढ़कर नारहट घाटी पर लौट आया। 

बखतबली के साथ रोज़ का घोर युद्ध हुआ! दो पहाड़ों के बीच में मदनपुर का गाँव और झील है। इस सुहावनी झील के पास ही - वह भयंकर संग्राम हुआ था। बहुत अंग्रेज़ी सेना मारी गई। खुद रोज़ घायल हुआ। परंतु वह लड़ाई जीत गया। यदि मर्दन सिंह और बखतबली की सेनाओं का मेल हो गया होता तो रोज़ की पराजय निश्चित थी - मदनपुर की झील मीन रोज़ के सेनापतित्व का अंतिम इतिहास उसी दिन लिख गया होता। 

बखतबली के अनेक सरदार पकड़े गए और मार डाले गए। बखतबली की पराजय का हाल सुनकर मर्दन सिंह नारहट घाटी को छोड़कर भागा। रोज़ ने अपनी सेना से भिन्न भिन्न टुकड़ों को आदेश दिया कि विप्लवकारियों का पीछा करते हुए वे उसको झाँसी के निकट मिलें।

बानपुर के राजा मर्दन सिंह ने मदनपूर की पराजय और नार संहार का वृतांत झाँसी भेजा। झाँसी में राज्य के बड़े बड़े नगरों और ग्रामों में, जहां जहां गढ़ और क़िले थे, तैयारी शुरू हो गई। 

उन्ही दिनों ग्वालियर से झाँसी में एक नाटक-मंडली आई। 

मुंदर ने अनुनय पूर्वक कहा, “सरकार, लड़ाई के आरम्भ होने के पहले एकाध खेल अपनी नाटक-शाला में भी हो जाने की अनुमति दी जाय।

यह समय नाटक और तमाशों का नहीं है”, रानी मिठास के साथ बोली।

सुंदर ने अनुरोध किया, “मैंने लड़ाई में मारी गई तो फिर कब नाटक देखूँगी।

रानी ने हँसकर कहा, “दूसरे जन्म में। उस समय तुझको स्वराजय स्थापित किया हुआ मिलेगा।

काशीबाई ने आग्रह किया, “केवल एक खेल सरकार, और फिर हम लोग जो खेल खेलेगी उसको स्वराज्य वाले सदा स्मरण किया करेंगे।

युद्ध वास्तव में है ही किस निमित्त?” रानी मुस्करा कर बोली, अपने जीवन और धर्म की रक्षा के लिए, अपनी संस्कृति और अपनी कला बचाने के लिए। नहीं तो युद्ध एक व्यर्थ का रक्तपात ही है। यह खेल जल्दी हो जाए और फिर उस खेल को ऐसा खेलो कि अंग्रेजों के छक्के छूट जाएँ और यह देश उनकी फाँस से मुक्त हो जाए।

मुंदर ने हर्ष में कहा, “सरकार खेल मराठी में होगा।

रानी बोली, “झाँसी में मराठी। महाराष्ट्र यहाँ नदी संख्या में हैं यह ठीक है, और वे लोग अपने मनोरंजन के लिए मराठी में नाटक खिलवावें परंतु वह नाटक मंडली राज्य का आश्रय तभी पावेगी जब नाटक हिंदी में खेलें। अवश्य मेरा जन्म महाराष्ट्र कुल में हुआ है, परंतु मैं अपने को महाराष्ट्र समझकर विंध्यखंडी समझती हूँ। मेरी झाँसी की भाषा हिंदी है। नाटक यदि हिंदी में हो, तो हो, नहीं तो मुझसे कोई सरोकार हो। मेरा निश्चय है।

सहेलियों ने स्वीकार कर लिया। 

नाटक मंडली वालों से कहा गया। उनमें थोड़े अभिनेता ही हिंदी जानते त्थे। उनकी यह कठिनाई दूर कर दी गई। झाँसी के हिंदी जानने वाले अभिनेता शामिल कर लिए गए। उस मंडली ने हरीशचंद्र का अभिनय उत्कृष्टता के साथ किया। मोतीबाई इत्यादि जानकारों तक ने सराहना की। रानी ने मंडली के प्रबंधक को चार सहस्र रुपया पुरस्कार दिया। मंडली ग्वालियर चली गई। 

रानी ललित कलाओं की प्रबल पोशाक थी। उस कठिन और चिंताकुल समय में भी रानी प्रत्येक नवागंतुक गायक, वीणाकार, सितारिए इत्यादि को सुनने के लिए थोड़ा बहुत समय दिया करती थी और उचित पुरस्कार भी। कवि, चित्रकार, शिल्पी कोई भी उन्मुख नहीं जाता था। शास्त्री, याज्ञिक, ज्योतिषी, वैद्य हकीम इत्यादि भी पोषण पाते थे। अपनी इसी वृत्ति को वे स्वराजय में विकसित और प्रसरित देखना चाहती थी। 

पीर अली देर सेबर सब  महत्वपूर्ण समाचार नवाब अली बहादुर के पास पड़ी सावधानी के साथ भेजता रहता था। झाँसी छोड़ने के कुछ दिनों बाद वे घूमते घामते दतिया पहुँचे। वहाँ थोड़े समय रहकर भांडेर पहुँच गए। झाँसी से दतिया १७ मील और भांडेर २४।

नवाब अली बहादुर उन्ही स्थानों से अंग्रेजों को काम के समाचार भेजते रहते थे। रोज़ इत्यादि अंग्रेज जनरल झाँसी को अधिकृत करने के महत्व को जानते थे। उन लोगों को नवाब से निरर्थक और सार्थक - सभी तरह के - हाल समय समय पर मिलते रहते थे। मदनपूर युद्ध के पश्चात झाँसी रोज़ का प्रथम लक्ष्य और पहला कर्तव्य बनी।




Part #19 ; Part #21

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