Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 9 - Vrindavan Lal Verma
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हाट का दिन था। झाँसी के निकटवर्ती गावों से बहुत लोग आए थे। बाज़ार में झाँसी के भविष्य की क्या चर्चा है, इसके जानने के लिए, वें उत्सुक थे। हलवाईपुरा झाँसी का सबसे बड़ा बाज़ार था। ग्रामीण इसको मिठियाई कहते थे। हलवाइयों की दुकानें एक सिरे पर थी। दूसरे सिरे पर एक दिशा में “मुरली मनोहर” का मंदिर और सामने मंदिर का नक्कारख़ाना। मंदिर में मूर्ति राधाकृष्ण की थी - और है। मंदिर कहलाता लक्ष्मीबाई का है, इसमें दर्शन करने के लिए लक्ष्मीबाई नियम से ज़ाया करती थी।
हलवाइयों की डंकनों और मुरली मनोहर के मंदिर के बीच के सिलसिले में, अनेक प्रकार की दुकाने थी। बीच में मार्ग काफ़ी चौड़ा। पश्चिम की ओर मार्ग दो फ़ंसो में फूटा है, एक हवेली और क़िले की ओर, और दूसरा दतिया फाटक को।
हाट के दिन इस सम्पूर्ण मार्ग पर बहुत चहल पहल पर रहती थी। स्त्रियाँ और पुरुष आज़ादी के साथ अपना सौदा ख़रीद रहे थे और बात चीत कर रहे थे। ख़ुदाबख्श और पीर अली बाज़ार में साथ थे।
कपड़े की दुकान से कुछ कपड़ा माल लेकर एक देहाती ने दुकानदार से पूछा, “काय जू ऐन झाँसी में का होने?”
“जो होत आओ है सो हुईए” उत्तर मिला।
“हम गाव बारे इतनीई में समझ जाट होते तो का हटी। तनक उल्था करके बताओ।”
तीन चार देहाती वहाँ और आ अज्ञे। बिक्री की आशा से दुकानदार का माँ काढ़ा। बात चीत का सिलसिला चला।
“महाराज ने स्वर्गवास के पैले कुँअर गोदी लयते सो सबरो संसार जानत। वा गोद के मनवाबे के लाने उनने अपने सामने अर्ज़ी लाट सांब लो पौचा दईती। अबै ऊतर नई आओ।”
“गोद के मनवाबे के लाने अर्ज़ी! जो कैसों अंदेर राम! हम अपने गावन में रोज़ई गोद लेत देत, पर ईके लाने अर्ज़ी पुरजी तो कोउ नई देत।”
“अंगरेजन ने नए नए क़ानून निकारे हैं।”
“तो का ऐसे क़ानून चल जैहैं?”
“बे तो बात बात पे क़ानून बरसाउत। अर्ज़ी दो, “टिकट लगाओ, पंचायतन खौ चूल्हे में डारी। गोरन के बगलन पै मारे मारे फ़िरौ, हाज़िरी देओ ~~~”
“इतनो खाओ और इतनो सोओ - अबका ईके लाने सोऊ अंग्रेज क़ानून बनाए?”
“अक्कल चेथरी (मस्तक का सबसे ऊँचा भाग) में चढ़ गयी सो उने कछू सूझत नईया।”
“तौका ऐसी आँखे फ़ैट गई धरम-करम कछू नहीं लेखत?”
“वे धरम करम का चीन्हे? बो तो हिंदू मुसलमान केई बाटे परो है।”
इस आत्म्श्लाघा के बाद दुकानदार ने ग्राहकों को चलाया।भीड़ बढ़ गयी थी। सौदा मज़े में चल रहा था। दुकानदार बात करना चाहता था और देहाती सुनना और गुनना चाहते थे।
“ऐहो सो अंगरेज की जा अंदाधुंधी चल जैहै ? हम तुम का मानसई नईया?”
“अंगरेजन की छाऊनियन में गउयँ कट रई हैं। क़ानून कौ ऐसौ डंडा चलरओ कै सब जने साँस लैबे में उकतान लगे।”
“कितै जू?”
“ सब जागा। ग्वालियर रियासत तौ है, पै उतै अंगरेजन कौ चालौ चल रओ। उतै कौ बड़ौ सांब जब बाज़ार में होके निकरत तब साब बाज़ार बारन खो उठ उठ कै राम सलाम करने परत।”
“बड़ौ साब को आय? ऐसै राम राम तौ राजन कौ खरी जात।”
“बड़ो सांब लाट सांब कौ नौकर है।”
“और लाट सांब की कौ नौकर है? का बौ राजा है?”
“राजा नइया। बिलात के राजा कौ नौकर है।”
“ओ राम। नौकरन के नौकरन खो झुक झुक कै परनाम। ई देस के ऐसे दिन आ गए। और जो कोउ राम राम ना करै तौ?”
“ऊखौ बँगला पै पकर बुलाउत और कष्ट देत।”
देहातियों ने दांत पीसे।
एक बोला,”हम तौ कौउन खो राम राम न करै और ना सलाम। बौ न हिंदू न मुसलमान। और पकर कई बुलाय तौ खुपरिया खोल देओ।”
इतने में कुछ दूसरी से “हटो बचो” की आवाज़ आयी।
ऐलिस बाज़ार घूमने घोड़े पर आया था, साथ में एक सवार था। वही “हटो बचो” कह रहा था।
कुछ - बहुत थोड़े दुकानदार - प्रणाम करने को उठे। बाक़ी अपना काम करते रहे।
किसी देहाती ने प्रणाम नहीं किया।
वह कपड़े वाला प्रणाम करने को उठना चाहता था कि देहातियों ने मना कर दिया।
एक ने कहा, “बैठे जो रओ कौन वौ बतासा बाँट रओ।
दुकानदार ने प्रणाम बैठे बैठे ही किया। देहाती ऐलिस की वेशभूषा देखते रहे। ऐलिस आगे निकल गया। मार्ग में चाँदी के ज़ेवरों से लदी, माथे पर सिंदूर की बिंदी लगाए, ज़रा लमछेरे शरीर की एक सुंदर स्त्री उसने देखी। कुतूहलवश उसने उस स्त्री पर आँख जमाई। स्त्री ज़रा भी नहीं सहमी।बल्कि उसने ऐलिस पर आँख तरेरी।
उस स्त्री के साथ एक स्त्री और थी। उस सुंदरी ने अपनी संगीन से तुरंत कहा, “जौ नठिया मोरी ओर का देखत तौ? ई कै का मताई बैने न हुईए।”
झलकारी, इन अंगरेजन में चलन दूसरी तरा को सुनत।”
“हुईए आगलगन के। मोरे मन में तो आउत कै पनैया ऊतर कै मूछन बरेके मोपैं चटाचट दओ।”
“कायरी ऊनै तोरो का लै लओ?”
“हमाओ कछू लैवे खो आय तब पसुरिया टोर कै घर देओ, पै बैना का इन गोरन खो जानती नईयाँ? झाँसी कौ गुटकन चाउत।”
“हामरी रानी ना गुटकन दे।”
“ए, रानी का है छाछार (साक्षात) दुर्गा है। ऐसी प्यारी लागत। मोये तो ऊदिना हरदी कूँ कूँ में गरे से लगा लओ तो। मैं तो उपै अपने प्रान दे सकत।”
“और तोरो मुस का कर है?”
“काये अब गारियन पै आ गई? मै ठूसाँ देओ, सो सबरो बुकलयावो बिसार जै। जब रानी पै कोनउ आफ़त आजै, तब का लुगाई और का मानस, सब अपने को हौम देये।”
पीर अली और ख़ुदाबख्श ने पान वाले की दुकान पर सुना -
“यह छोटा साहब कैसी अकड़ के साथ बाज़ार में होकर निकलता है।”
“इस समय इन लोगों का सितारा चमका है। कभी डूबेगा भी।”
“इनकी तक़दीर तो देखो। जो सामने आया समेत लिया गया। हैं हिम्मत वाले।”
“जी हाँ। हिम्मत के सब हरफ़ ख़ुदा ने इन्ही के खोपड़े पर लिख दिए हैं। हामरी फूट ने हमें खा लिया। नहीं तो क्या मुग़ल, पठान, राजपूत, मराठा वग़ैरह के होते ये एक घड़ी भी हिंदुस्तान में तहाँ सकते थे?”
“बनिए बनकर आए और ठाकुर बनकर जम रहे हैं।”
“इन राजे नवाबों ने चौपट किया।”
“प्रजा को कष्ट दिए। सिपाही लड़ाई में हारे, और राज्य गया।”
“अजी सब जनाने हो गए।”
“यहाँ के राजा को न देखो। नाटक चेटक और नाचने गाने में सब समाप्त कर दिया।”
ख़ुदाबख्श के कान खड़े हुए। क्षोभ आया।
उसी आदमी से पूछा, “यहाँ के राजा ने रैयत को तो कोई दुःख दिया नहीं?”
“दुःख ना देना और बात है, सुख पहचानना दूसती बात।”
“अंग्रेजों का राज हो गया, तो याद आवेगी।”
“अंगरेज कौन कच्चा खाए जाते हैं।”
“जनाब वह ऐसी क़ौम है कि बिना खाए ही पचा जावेगी।”
“ऐसा नहीं हो सकता। यहाँ का राज अंग्रेजों के हाथ नहीं जावेगा।”
“कुछ नहीं कहा जा सकता। यदि चला गया तो?”
तंबोली ने पान बनाते बनाते कहा,”ठट्ठा है जो चला जवेगा। रानी हमारी बनी रहे, हम तो अपने सिर कटवा देंगे।”
पीर अली ने हँसकर कहा, “तुम तो पान काटते कतरते जाओ भाई। सिर काटना कटवाना हम सिपाहियों का काम है।”
तंबोली ने ध्यानपूर्वक पीर अली को देखा।
बोला, “आप झाँसी के रहने वाले नहीं जान पड़ते। परदेशी हैं?”
“क्यों?क्या फ़र्क़ पड़ गया?”
“धरती आकाश का।”
“कैसे?”
“अभी कुछ नहीं कह सकता। समय आने पर देखना।”
“समय आने पर तेली तंबोली भी तलवार बंदूक़ चलावेंगे, यह देखना बाक़ी है।”
“अभी न देखलो। ले आओ अपनी ढाल तलवार में अपनी लाता हूँ। फिर देख लो झाँसी का पानी।”
पी अली हँसा। ख़ुदाबख्श उसको वहाँ से ले गया।
दुकान के पास झम्मी सिंह और भग्गी दाउजू सुनार खड़े थे।
“झम्मी सिंह ने कहा,”खूब कई सांब तुमने, स्याबास। अंगरेज कौ जासूस सौ का हतौ?”
तंबोली बोला, “हुईये। का करनै कक्का।”
भग्गी दाउजू ने कहा, “झाँसी लटी तकै तिही खाये कालका माई। (भग्गी दाउजू का रायसा)
“ वा दाउजू वा” तंबोली बोला, “ कविराजई तो ठैरे।”
झाँसी में उस समय अनेक लावनी बाज थे। उनकी कविताएँ पिंगल के नियमों से परे होती थी, लेकिन थी वें बहुत लोकप्रिय। भग्गी दाउजू उन्ही में से एक था।
पीरअली ने बाज़ार का सारा समाचार अली बहादुर को दिया।
अली बहादुर ने दूसरे दिन ऐलिस को सुनाया।
ऐलिस ने नवाब साहब को धन्यवाद दिया और माँ में कहा,”all bazaar gossip” (सब बाज़ार की गप शप)
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जब महीने भर से ऊपर हो गया और कलकत्ते से कोई जवाब ना आया तो ऐलिस, मालकम इत्यादि को चिंता हुई। शायद गवर्नर जनरल रानी के पक्ष में फ़ैसला कर दें और झाँसी सरकारी “बंदोबस्त” की हुकूमत से वंचित रह जाए।
ऐलिस के सामने सदाशिव नेवालकर नाम का एक व्यक्ति दावेदार बनकर आया।खूब रहा - प्यादे से प्यादा कट जावेगा। सदाशिवराव को ऐलिस ने प्रोत्साहित किया। सदाशिवराव ने एक लम्बे खर्रे की अर्ज़ी पेश की। गंगाधरराव के वंश का कुर्सी नाम अर्ज़ी में दर्ज किया - ठीक पाँचवी पीढ़ी पर। और रानी बिचारी तो किसी भी पीढ़ी में ना थी। गत राजा की धर्म पत्नी। तो भी क्या हुआ? स्त्री तो थी। स्त्री राज्य करने लायक़। लेकिन इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया तो पुरुष नहीं। मगर हिंदुस्तान इंग्लैंड नहीं है।
सदाशिव की अर्ज़ी को रानी की अर्ज़ी से लड़वा ही तो दिया। डलहौज़ी रानी के लिए अब क्या ख़ाक करेगा? और न इस मूर्ख के लिए ही कुछ।
मालकम ने ३१ दिसम्बर सन १८५३ को सदाशिवराव की सिफ़ारिश करते हुए लिखा, “यदि मृत राजा के पुरखों के किसी मर्द वारिस का ही हक़ क़बूल किया जाना है, तो यह व्यक्ति वास्तव में गद्दी का सबसे अधिक निकट का हक़दार है।”
सदाशिव के पास कहीं से कुछ धन भी आ गया और वह मज़े में राजसी ठाठ से रहने लगा। राज्य मिलने में कितनी कसर रह गयी थी? पोलिटिकल अफ़सरों ने सिफ़ारिश कर ही दी थी। कोड़ा हाथ में आ गया। बस। कसर रही थोड़ी - जीन लगाम घोड़ी।
रानी गम्भीरता पूर्वक सारी स्तिथि का अवलोकन कर रही थी। वे झाँसी राज्य को अपने किसी उद्देश्य की पूर्ति का साधन मात्र समझती थी। झाँसी का राज्य उनके लिए सुरपुर न था - किंतु, जिस सुरपुर के पाने की उनके माँ में लालसा थी, झाँसी उसकी सीढी मात्र थी।
पति के देहांत के बाद रानी की दिनचर्या इस प्रकार हो गयी थी -
वह नित्य प्रातःकाल चार बजे स्नान करके आठ बजे तक महादेव का पूजन करती थी और उसी समय गवैये भजन - गायन सुनाते। फिर ग्यारह बजे तक महल क्के समीपवर्ती खुले आँगन में घोड़े की सवारी, तीरंदाज़ी, नेजा चलाना, दौड़ते हुए घोड़े पर चढ़े चढ़े, दांतों से लगाम पकड़ कर दोनो हाथों से तलवार भांजना, बंदूक़ से निशाना लगाना, मलखंब कुश्ती इत्यादि करती थी और अपनी सहेलियों तथा नगर से आने वाली कुछ स्त्रियों को ये साब काम सिखलाती थी। इन में भाऊबख्शी की पत्नी प्रमुख थी और बहुधा आने वालों में, झलकारी कोरिन।
ग्यारह बजे के उपरांत रानी फिर स्नान करती और भूखों को खिलाकर तथा कुछ दान धरम करके तब भोजन करती। भोजन के उपरांत थोड़ा सा विश्राम। फिर तीन बजे तक ग्यारह सौ राम नाम लिख कर आते की गोलियाँ मछलियों को खिलाती। उस समय वे किसी से बात चीत नहीं करती थी और न कोई उस समय उनके पास बैठ सकता यस आ सकता था। वे किसी गूढ़ चिंता, किसी गूढ़ विचार में निमग्न रहती थी। तीन बजे के उपरांत संध्या तक फिर वे ही व्यायाम और कसरतें - शरीर को फ़ौलाद बनाने की क्रियाएँ।
संध्या के उपराँठ आठ बजे तक कथावार्ता, पुराण, भगवद गीता का अट्ठहरवां अध्याय और भजन सुनती। इसके बाद एक घंटा आगंतुकों को भेंट के लिए दिया जाता था। तीसरी बार स्नान करती। इसके बाद थोड़े समय तक इष्ट देव का एकांत ध्यान। फिर ब्यालु भोजन। पश्चात सुंदर, मुंदर और काशीबाई के साथ थोड़ा सा वार्तालाप और फिर ठीक दस बजे शयन। वें समय की बहुत पाबंद थी। शिथिलता तो छूकर नहीं निकली थी।
राज्य मिलेगा ना न मिलेगा - इन दोनो के व्यवधान में वें महीने चले जा रहे थे। मोरोपंत ताम्बे और अन्य कर्मचारी यथावत कार्य कर रहे थे। ऐलिस वर्ग अपना पाया मज़बूत बनाने की तैयारी करता चल जा रहा था, बहुत सतर्कता, बड़ी सावधानी के साथ।
जब कई महीने हो गए और डलहौज़ी का उत्तर ना आया तम मोरोपंत, नाना भोपटकर इत्यादि की सम्मति से ऐलिस और मालकम के द्वारा एक खरीता और भेजा। उसमें पुरानी संधियों को दुहराया गया और जिनके सामने गोद ली गयी थी उनके नाम प्रकट किए गए।
ऐलिस ने सिफ़ारिश की। लिखा,”ओरछा राज्य के दत्तक की स्वीकृति दी गई है। जैसा ओरछा राज्य वैसा झाँसी राज्य है। एक को अनुमति देना और दूसरे को न देना अनुचित मालूम होता है।”
यह बात नहीं की ऐलिस रानी की अर्ज़ी का स्वीकृत किया जाना पसंद करता हो। वह ओरछा राज्य को दत्तक की स्वीकृति के मिलने पर कुढ़ गया था - एक अच्छा ख़ासा ग्ग्रास कम्पनी सरकार के मह से छुटका दिया गया।
कई महीने उपरांत डलहौज़ी अवध के दौरे से कलकत्ता लौटा। झाँसी की मिसिल पेश हुई। जगह जगह ऐसे उदगार जो नाक तक नफ़रत पैदा करे।
बुंदेलखंड में कम्पनी के राज्य की स्थापना हामरे पुरखों की सहायता से हुई है। हामरी रजभक्ति की क़दर की जानी चाहिए। ज़रूर। अब किस साधना के लिए राजभक्ति की अटक है? संधियाँ पवित्र होती हैं। बेशक।तुम पेशवा के नौकर थे/ पेशवा हमसे हारा और उसने अपना स्वामित्व हामरे हवाले किया। अब तुम हमारे नौकर हुए। मर्ज़ी हामरी, माने हम तमहरि गोद-वोद को या ना माने।
डलहौज़ी सोचता सोचता, जिस निष्कर्ष पर पहुँचा, उसकी काउंसिल भी उससे सहमत हो गयी।
डलहौज़ी ने झाँसी की मिसिल पर २७ फ़रवरी सन १८५४ को हुकुम चढ़ाया: -
“झाँसी राज्य पेशवा का आश्रित राज्य था। १८०४ की संधि में शिव राव भाऊ ने इस बात को कबूल किया था। हमको ऐसे आश्रित राज्यों में गोद मानने न मानने का अधिकार है। रामचंद्र राव ने १८३५ में, जिसको हमने ही सब १८३२ में राजा की उपाधि दी थी, मारने से एक दिन पहले किसी को गोद लिया था। वह गोद ब्रिटिश सरकार ने नहीं मानी थी। हम दामोदर राव की गोद को मानने के बाध्य नहीं हैं। इसलिए झाँसी राज्य खालसा किया जाता है, और अंग्रेज़ी राज्य में मिलाया जाता है। पोलिटिकल एजेंट की सिफ़ारिश के अनुसार रानी को मासिक वृत्ति दी जाएगी।”
इस हुक्म को क़ानूनी लिबास ७ मार्च १८५४ को मिल गया।
मालकम के पास डलहौज़ी की आज्ञा आ गयी और उसने बिना विलम्ब नीचे लिखा हुआ इश्तहार ऐलिस के पास भेज दिया -
“दत्तक को गवर्नर जनरल की ७ मार्च १८५४ की आज्ञा के अनुसार झाँसी का राज्य ब्रिटिश इलाक़े में मिलाया जाता है। इस इश्तहार के ज़रिए सब लोगों को सूचना दी जाती है की सम्प्रति झाँसी प्रदेश का शासन मेजर ऐलिस के आधीन किया जाता है। इस प्रदेश की सब प्रजा अपने को ब्रिटिश सरकार के आधीन समझे और मेजर ऐलिस को कर दिया करे और सुख तथा संतोष के साथ जीवन निर्वाह करे। १३-३-१८५४
ह॰ मालकम “
प्रजा का सुख संतोष। उसका कल्याण। राजनीति के पाखंड को कैसे बधिया मुहावरे मिले!!
मालकम ने इस घोषणा को बहुत छिपा-लुका कर ऐलिस के पास भेजा भेजा और उसको हिदायत की कि बहुत सावधानी के साथ काम किया जावे, क्योंकि उसे मालूम था कि रानी जन-प्रिय हैं, कहीं झाँसी की जनता दंगा-फ़साद न कर बैठे। इसलिए ऐलिस ने सेना द्वारा झाँसी का कठोर प्रबंध किया।
ऐलिस ने होशियारी के साथ उस घोषणा को एक जेब में रखा और दूसरी में पिस्तौल। सशस्त्र अंगरक्षकों को साथ लेकर रानी के पास क़िले वाले महल में पहुँचा। रानी को सूचना दे दी गयी थी कि छोटे साहब के पास बड़े लाट की आज्ञा आ गयी है, उसी को सुनने आ रहे हैं। मोरोपंत इत्यादि बहुत दिन से आशा लगाए बैठे थे। दीवान ख़ास में नियुक्त समय पर आ गए। रानी पर्दे के पीछे बैठी। दीवान ख़ास में एक ऊँची कुर्सी पर दामोदर राव।
ऐलिस दृढ़ पद और अदृढ हृदय के साथ दीवान खस में प्रविष्ट हुआ। मोरोपंत इत्यादि ने बहुत विनीत भाव के साथ अभिवादन किया। दीवान ख़ास में इत्र - पान इत्यादि सजे सजाए रखे थे।बुर्जों पर तोपों में सलामी दागने के लिए बारूद डाल दी गयी थी। ऐलिस हाथ से हाथ सताए आया और अपने माथे की शिकनों को समेटकर अभिवादन का उत्तर देता हुआ बैठ गया।
मोरोपंत ने विनीत भाव के साथ कहा, “साहब आपको यहाँ तक आने में बहुत कष्ट हुआ होगा।”
मुश्किल से ऐलिस का कंठ मुखरित हुआ,”मेरा कर्तव्य है। दुखदायक कर्तव्य है।”
ऐलिस ने कहा, “महारानी साहब आ गयी हैं?”
दीवान ने उत्तर दिया,”जी साहब। पर्दे के पीछे विराजमान हैं।”
ऐलिस ने जेब से मालकम वाली घोषणा निकाली। दरबारियों के कलेजे धाक धाक करने लगे।
कलेजा थम कर उन लोगों ने घोषणा को सुन लिया। ग़ुलाम गौस खान तोपची अनुकूल घोषणा की आशा से दीवान खस के एक डर के पीछे की तरफ़ काम लगाए खड़ा था। प्रतिकूल घोषणा सुनकर मह लटकाए चुपचाप चला गया।
जब घोषणा पढ़ी जा चुकी - मोरोपंत के मुँह से निकला,”ओफ़!”
दीवान के मह से,”हाय!”
और दरबारियों के मह से - “अनहोनी हुई।”
दामोदर राव समझने की कोशिश कर रहा था, उसको आभास मिल गया कि कुछ बुरा हुआ है।
यकायक ऊँचे परंतु मधुर सवार में रानी ने पर्दे के पीछे से कहा, “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।”
इन शब्दों से दीवान खस गूंज गया। वायुमंडल ने उनको अपने भीतर निहित कर लिया।
भारत के इतिहास में वें शब्द पिरो दिए गए। झाँसी की कलगी में वें शब्द मणि-मुक्ता बन कर चिपक गए।
ऐन ऐलिस का धड़कता हुआ हृदय कुछ स्थिर हुआ।
बोला,”मुझको गवर्नर जनरल साहब की जो आज्ञा मालकम साहब के द्वारा मिली उसको मैंने पेश कर दिया। जो कुछ मेरे सामर्थ्य में था मैंने किया। हम सब गवर्नर जनरल साहब की आज्ञा में बंधे हुए हैं। परंतु मैं समझता हूँ कि असंतोष का कोई कारण नहीं है। पाँच हज़ार रुपया मासिक वृत्ति महारानी साहब और उनके कुटुम्ब के लिए काफ़ी है। यह मानना पड़ेगा कि गवर्नर जनरल साहब ने बहुत उदारता का बर्ताव किया है।”
ऐलिस का वाक्य समाप्त नहीं हुआ था कि पर्दे के पीछे से रानी ने उसी ऊँचे मधुर सवार में कहा, “मुझको यह वृत्ति नहीं चाहिए, मैं न लूँगी।”
ऐलिस ने अधिक ठहरना उचित नहीं समझा। दीवान से कहता गया, आप तुरंत मेरे पास आइए।
दीवान ने पान खाने का आग्रह किया। वव पान खाकर चला गया।
मुंदर रानी के पास पर्दे में बैठी थी। जब घोषणा सुनाई गई, वह मूर्छित हो गयी थी। ऐलिस के चले जाने पर वह होश में आयी।
रानी ने कहा, “क्यों री मूर्छित होना क़िस्से सीखा? क्या इस छोटे से राज्य के लिए हम लोग जीवित हैं?”
मुंदर रोने लगी। रानी ने पुचकारा। मोरोपंत इत्यादि ने समझाया।
दीवान ने रानी ने पूछा, “मैं ऐलिस साहब ने पास जाऊँ? वह बुला गए हैं।”
रानी अनुमति देकर रनवास में चली गयी।
कुछ क्षणों में ही समाचार सारे नगर में फैल गया। उस समय झाँसी निवासियों के क्षोभ का ठिकाना न था। रानी की सेना तुरंत युद्ध छेद देना चाहती थी, परंतु रानी ने निवारण किया। कहलवाया, “अभी समय नहीं आया है।”
झलकारी ने जब सुना अपने पति पूरन से कहा, “छाती बर जाय इन अंगरेजन के, गटक लई झाँसी।”
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ऐलिस ने झाँसी का अंग्रेज़ी बंदोबस्त आरम्भ कर दिया। दीवान से दफ़्तरों की चाभियाँ ली। थाने पर अधिकार किया और शहर में अंग्रेज़ी राज्य और अपने अधिकार की डोंडी पिटवा दी। तहसीलों में तुरंत समाचार भेजा और वहाँ भी कड़े प्रबंध की व्यवस्था कर दी।
दीवान रानी को सब बातों की सूचना देकर अपने घर उदास चला गया। रानी के नित्य नियम में कोई अंतर नहीं आया। अपने कार्यक्रम के अनुसार जब वे विश्राम के लिए बैठी तब मुंदर, सुंदर, और काशीबाई उनके पास आ गई। वे अपने आभूषण उतार आई थी।
रानी ने कहा, “आभूषण क्यों उतार आई हो? क्या इसी समय रणभूमि में चलना है?”
मुंदर सिसकने लगी। सुंदर और ही ने नेत्र तरल हो आए थे।
रानी बोली, “ये चिन्ह, तो असमर्थता और अशक्ति के हैं। अपने साब आभूषण पहिनो और इस प्रकार रहो मानो कुछ हुआ ही नहीं है।”
मुंदर ने पैर पकड़ लिए उसकी हिलकी नहीं समाती थी।
रानी का कंठ भी थोड़ा रुद्ध हुआ। उन्होंने भौहें सिकोड़ी। एक ओर देखने लगी।
काशीबाई रुदन करती हुई बोली, “बाईसाहब, बाईसाहब।”
सुंदर ने करूँ सवार में कहा, “सरकार अब क्या होगा?”
रानी ने अपने को सहज ही संयत कर लिया। मुंदर के सिर पर हाथ फेरा। उसकी आखें आसुओं से भरी हुई थी। सुंदर और काशी की भी। चंचल आसुओं में होकर उन तीनों ने रानी के तेजस्वी रूप नो देखा - कई लक्ष्मीबाइयाँ कई सतेज नेत्र दिखलायी पड़े। उन्होंने पानी आखें पोंछी।
रानी ने कहा, “ ये आऊँ बल का क्षय करेंगे। अभी तो अपने कार्य का प्रारम्भ भी नहीं हुआ है। सोचो, जब छत्रपति के उपरांत शंभु जी मारे गए, साहू समाप्त, राजाराम गत तब ताराबाई के गाँठ में क्या रह गया था? इतने बड़े मुग़ल सम्राट को ताराबाई कैसे परास्त कर सकी? उसने स्वराज्य की बागडोर को कैसे आगे बढ़ाया? रो रो कर? कपड़े और गहने फेंक फेंक कर? भूखों मर मर कर? और सोचो, जीजाबाई को पति का सुख नहीं मिला। उन्होंने छत्रपति को पाला। काहे के लिए? किस आशा से? गद्दी पर बिठलाने के लिए? उन्होंने इतना ताप, इतना त्याग अपने पत्र को केवल हाथी की सवारी और नरम नरम गद्दी पर विराजमान कराने के लिए किया था?
वें सहेलियाँ सचेत हुई।
रानी कहती गयीं, “हमको जो कुछ करना है उसकी दिशा निश्चित है। मार्ग में विघ्न बाधाएँ तो आती ही हैं। खरीते का स्वीकृत न होना केवल एक बाधा ही है। स्वीकृत हो जाता तो क्या हम लोग केवल सो जाने के लिए ही जीवित रहती? भगवान कृष्ण की आज्ञा को याद रखो, की हमको केवल कर्म करने का अधिकार है, कर्म के फल का नहीं। देखो छत्रपति के उपरांत जिन लोंगों ने स्वराज्य के आदर्श को आगे बढ़ाया और उसकी जड़ें प्रबल बनायी, वें बाधाओं को डटकर प्रतिरोध करते रहते थे। जिन लोगों की लालसा अपने फलों की ओर गयी, वे गिर गए और स्वराज्य की धारा धीमी पद गयी। परंतु वह सूखी कभी नहीं। दादा बाज़ीराव पेशवा हतप्रभ होकर बिठूर चले आए। परंतु हम लोगों को वें स्वराज्य की शिक्षा देने से कभी नहीं चूके। यदि हिंदुस्तान में कोई भी उस पवित्र काम को अपने हाथ में ना ले, तो भी, मैंने अपने कृष्ण के सामने, अपनी आत्मा के भीतर उसका बीड़ा उठाया है। करूँगी और फिर करूँगी। चाहे मेरे पास खड़े होने के लिए हाथ भर भूमि ही क्यों ना रह जाए। मान लो कि मैं सफल न हो पायी, तो भी जिस स्वराज्य धारा को आगे बाधा जाऊँगी, वह अक्षय रहेगी। उसी महावाक्य को सदा याद रखो।- हमको केवल कर्म करने का अधिकार है, फल का कभी नहीं। हमको एक बड़ा संतोष है, जनता, हमारे साथ है।जनता सब कुछ है। जनता अमर है। इसको स्वराज्य के सूत्र में बांधना चाहिए। राजाओं को अंगरेज भले ही मीता दें, परंतु जनता को नहीं मिटा सकते। एक दिन आवेग जब इसी जनता के आगे होकर मैं स्वराज्य की पताका फहराऊँगी।”
सहेलियों की आखों में भी चमत्कार उत्पन्न हो गया।
रानी बोली, “मुझसे आज एक भूल हो गयी है। मुझको ऐलिस के सामने कुछ नहीं कहना चाहिए था। मेरे उस वाक्य से वह अपने संगी अंग्रेजों सहित चौकन्ना हो जाएगा। वृत्ति भी अस्वीकृत नहीं करनी चाहिए थी।
काशी ने स्थिर सवार से प्रश्न किया, “अब क्या करना है?”
रानी ने कहा, “अंगरेज जाती बहुत धूर्त है। उसका सामना चाणक्य नीति ही से हो सकता है। मैं वृत्ति को स्वीकृत करूँगी और आगे सावधानी के साथ काम करूँगी। मैं दादा दामोदर राव की ओर से विनय प्रार्थना की लिखा पढ़ी जारी रखूँगी। विलायत में अपील भिजवाऊँगी। जिसमें ऐलिस इत्यादि मेरी झाँसी ना देने वाली बात की यथार्थता को अपनी समझ से दूर कर दे और, जनता अपनी स्मृति में इस बात को पकड़े रहे, कि मैं और झाँसी अभी बनीं हैं।”
इतने में वहाँ दामोदर राव आया।
रानी ने अपनी गोद में बिठला लिया।
दामोदर राव ने पूछा, “ माता क्या यह राज्य चला जावेगा?”
रानी, “यह राज्य चला जावेगा तो चला जाने दो।”
दामोदर राव - “स्वराज्य क्या?”
रानी मुस्कुराई।
बोली, “अभी भोजन करने चलो, फिर कभी बतलाऊँगी।”
रानी ने पेन्शन लेने की स्वीकृति लिखवा भेजी।
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