Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 8 - Vrindavan Lal Verma
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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भेजा हुआ खरीता और गंगाधरराव का खरीता भी, जो उन्होंने सीधा मालकम के पास पहुँचवाया था, भेज दिया। मालकम की चिट्ठी का सार यह था-
'झाँसी के राजा को बिना कंपनी सरकार की अनुमति लिए गोद लेने का अधिकार नहीं है। रानी योग्य और लोकप्रिय हैं परंतु कंपनी का शासन जनहित की दृष्टि से ज्यादा अच्छा होगा। ऐसी परिस्थिति में रानी को पाँच सहस्र मासिक वृत्ति, निजी संपत्ति और नगर का महल दे दिया जावे।' इस प्रकार की चिट्ठी भेजने के उपरांत ही मालकम ने झाँसी के बंदोबस्त का प्रयास शुरू कर दिया और अपना फौज-फाँटा बढ़ा दिया।
इधर झाँसी-दरबार के लोगों का विश्वास था कि दत्तक पुत्र के नाम पर राज्य चलेगा और वे दामोदरराव के नाम पर शासन प्रबंध करने लगे।
उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ काल में जब कंपनी का राज्य जल्दी-जल्दी बढ़ा तब वह अपनी नीति और हथियार की विजय के बोझ से लदी-सी जा रही थी और समय-समय पर कंपनी के साझीदारों ने विचार प्रकट किया था कि विजय और इलाके की सीमा बढ़ाने की योजनाएँ घृणास्पद हैं और ब्रिटिश जाति की इच्छा, प्रतिष्ठा और नीति के प्रतिकूल हैं। असल बात यह थी कि कहीं ऐसा न हो कि मुफ्त में आया हुआ माल किसी अदृश्य गड्ढे में चला जाए।
इन योजनाओं का सही रूप डलहौजी था, उसकी नीति में कुछ भी लगा-लिपटा हुआ न था। उसका वक्तव्य स्पष्ट था।
'हम किसी भी मौके को चूकने नहीं देना चाहते। हमारे इलाकों के बीच में ये जो छोटी-छोटी रियासतें हैं, काफी खिझलाहट का कारण हैं। इनको अपने हाथ में कर लेने से खजाने में रुपया बढ़ेगा और हमारी शासन-प्रणाली से इन रजवाड़ों की जनता को लाभ ही लाभ प्राप्त होगा।'
जिस समय खरीतों सहित मालकम की चिट्ठी कलकत्ता पहुँची, डलहौजी अवध की ओर दौरे पर गया हुआ था। चार-पाँच महीने तक कोई उत्तर नहीं आया।
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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवित रखे थे। वह छुटपन के खिलवाड़ में प्रकट हो ही जाती थी। इस अवस्था में वह उनके मन के किस कोने में पड़ी हुई थी, इसको बहुत ही कम लोग जानते थे। जो जानते थे, उनमें से एक तात्या टोपे था, दूसरा नाना धोंडूपंत।
राजा गंगाधरराव के फेरे के लिए बिठूर से नाना धोंडूपंत, अपने दोनों भाइयों सहित आया। तात्या भी साथ था। वे सब जवान हो गए थे। पेंशन के जब्त हो जाने के कारण संतप्त थे और रोष-भरे। गंगाधरराव के देहांत के कारण उनको बड़ी ठेस लगी। जालौन का राज्य समाप्त हो चुका था। महाराष्ट्र की एक गद्दी झाँसी की बची थी। उनको भय था कि यह भी विलीन होने जा रही है। अतः बाजीराव द्वितीय बिठूर में बैठे-बैठे शुरू जमाने में जिस स्वराज्य-स्वप्न की कल्पनाएँ उपस्थित किया करते थे और जिनसे इनका तथा लक्ष्मीबाई का बाल्यकाल पाला गया था, वह केवल दुःस्वप्न-सा अवगत होने लगा था।
रानी किलेवाले महल में ही रहती थीं। वहीं उनकी सहेलियाँ और सिपाही-प्यादे भी। नीचे का महल, हाथीखाना, सेना, घोड़े, हथियार इत्यादि सब हाथ में थे।
नगर का शासन-सूत्र भी अधिकार में था। राज्य की माल दीवानी भी उनके मंत्रियों के हाथ में थी; परंतु कंपनी सरकार झाँसी की छावनी में अपनी सेना और तोपें बढ़ाने में व्यस्त थी। इससे मन में कुछ खटका उत्पन्न होता था।
शोक संवेदना के उपरांत नाना के दोनों भाई बिठूर चले गए। नाना और तात्या रह गए।
विकट ठंड थी। ठिठुरा देनेवाली। दीन-दरिद्रों के दाँत-से-दाँत बजानेवाली। उसपर संध्या से ही बादल घिर आए। आँधी चल उठी और पानी बरस पड़ा। नाना और तात्या रानी से बातचीत करने संध्या के पहले ही किले के महल में गए। भोजन के उपरांत बातचीत होनी थी और फिर डेरे को लौटना था। परंतु ऋतु की कठोरता के कारण उनके विश्राम का वहीं प्रबंध करवा दिया गया।
दीवाने खास में बैठक हुई। सुंदर, मुंदर और काशीबाई भी रानी के साथ थीं। रानी का मुख दुर्बल होने के कारण जरा लंबा जान पड़ता था। तो भी उस सतेज सौंदर्य के आतंक में वही आदर उत्पन्न करनेवाला ओज था, विशाल आँखों की ज्योति और भी ज्वलंत थी। रानी कोई आभूषण नहीं पहने थीं-केवल गले में मोतियों की एक माला और हाथ में हीरे की अंगूठी। श्वेत साड़ी पर एक मोटा श्वेत दुशाला ओढ़े थीं। सहेलियाँ भी जेवरों का त्याग करना चाहती थीं, परंतु रानी के आग्रह से उन्होंने ऐसा नहीं किया था।
रानी-'बुंदेलखंड के रजवाड़े बुझे हुए दीपक हैं! उनमें तेल है, परंतु लौ नहीं।'
नाना-'क्या उनमें लौ पैदा नहीं की जा सकती?'
रानी-'कह नहीं सकती। तुमने ढूँढ़-खोज की? मैं तो बाहर आने-जाने से विवश रही हूँ, और हूँ।'
तात्या-'मैं यों ही घूमा-फिरा हूँ। विशेष तौर पर यहाँ के किसी राजा ने प्रसंग नहीं छेड़ा। परंतु वातावरण बिलकुल ठस जान पड़ा। राजाओं को अपने सरदारों और प्रजा से प्रणाम लेने में सुख की इति अनुभव होती है। हास-विलास और सुरापान में मस्त रहते हैं।'
रानी-'वीरसिंहदेव, छत्रसाल और दलपति के बुंदेलखंड का हाल कुछ और होना चाहिए था।'
नाना-'लखनऊ और दिल्ली का हाल कुछ अच्छा है।'
तात्या-'बहुत दिन हुए जब मैं रानी साहब को लखनऊ, दिल्ली की परिस्थिति सुना गया था।'
रानी-'तुम लोग मुझसे रानी साहब मत कहा करो। अच्छा नहीं लगता।'
तात्या-'बाईसाहब कहूँगा।'
नाना-'दिल्ली का हाल मैं सुनाता हूँ। बादशाह वृद्ध है। अपनी स्थिति में बहुत दुखी है। मन के महाकष्ट को कविता में होकर घटाता रहता है। उसके राजकुमार कुछ होनहार जान पड़ते हैं, परंतु दिल्ली के राजकुमारों में जिस आयु में प्रायः घुन लग जाता है, कदाचित् इनको भी लग जाएगा।'
रानी-'ग्वालियर?'
नाना-'राजा का अभी लड़कपन है। अंग्रेज प्रबंध कर रहे हैं।' रानी-'इंदौर?'
तात्या-'इंदौर मैं गया था। वहाँ का तो कचूमर ही निकल गया है।'
रानी-'हैदराबाद?'
तात्या-'वहाँ नहीं गया। परंतु इतना निर्विवाद समझिए कि हैदराबाद अंग्रेजों का परमभक्त है। जनता अपने साथ है।'
रानी-'पंजाब की सिक्ख रियासत?'
नाना-'वहाँ मैं कहीं-कहीं गया। सिक्खों में अंग्रेजों को पछाड़ने की शक्ति होते हुए भी फूट इतनी विकट है और राजा इतने स्वार्थांध हैं कि अंग्रेज उस ओर से बिलकुल निश्चित रह सकते हैं।'
रानी-'झाँसी में तो अब कुछ है ही नहीं। जो कुछ है भी, संभव है कि वह भी हाथ में न रहे।'
नाना-'झाँसी में ही तो हम लोगों का सब कुछ है। मनू बाईसाहब, झाँसी ही तो हम लोगों की एक आशा है।'
लक्ष्मीबाई के फीके होंठों पर वही विलक्षण मुसकराहट क्षीण रूप में आई। बोलीं, 'क्या आशा है?'
तात्या ने कहा, 'दामोदरराव की गोद स्वीकार की जावेगी, ऐसा विश्वास है। एलिस ने गोलमोल अवश्य लिखा है, परंतु कलकत्ता में अपने कुछ मित्र हैं, वे सब लोग कुछ सहायता करेंगे।'
रानी ने कहा, 'एलिस, मालकम सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। ये लोग अपने लाट के नेत्रकोर की संकेत पर चलते हैं। मैंने यहाँ से पूरनचंद्र बंगाली बाबू को कलकत्ता भेजा है। वह बहुत अंग्रेजी पढ़ा है। लाट से स्वयं मिलेगा और हमारी बात को समझाएगा। क्या कंपनी सरकार का लाट हमारे इतने बड़े संधि-पत्र को समूचा निगल जाएगा?'
तात्या ने सहेलियों की ओर देखा।
रानी समझ गई। बोलीं, 'ये तीनों मेरी अत्यंत विश्वासपात्र हैं। बिना किसी हिचक के बात किए जाओ।'
नाना ने कहा, 'मुझको मालूम है। ये मराठा हैं।'
'झाँसी की लगभग सभी स्त्रियों का विश्वास किया जा सकता है।'
रानी बोलीं, 'ये तीनों तो स्त्रियों की मानो पराग हैं।'
नाना ने कहा, 'बाईसाहब, यह लाट और इसके भाई-बंद 'यावच्चंद्र दिवाकरौ'-वाली संधि को समूचा ही पचा गए हैं। झाँसीवाली संधि में न तो दिवाकर की सौगंध है और न चंद्रमा की। ये लोग किसी चीज को पवित्र नहीं समझते। इनकी लिखतम का, इनकी बात का, कोई भरोसा नहीं। हमारी पेंशन के छीनने के समय कहा था-तीस-बत्तीस साल में आठ लाख रुपया साल के हिसाब से तीन करोड़ रुपया बैठता है। वह सब कहाँ डाला? इनका विश्वास नहीं करना चाहिए।'
रानी ने वैसे ही मुसकराकर पूछा, 'क्या ये लोग सीधे-साधे गणित को भी धोखा देते हैं?'
नाना जरा हँसा।
तात्या ने उत्तर दिया, 'बाईसाहब ये लोग अपने स्वार्थपर अचल रूप से डटे रहते हैं। जब तक स्वार्थ पर ठोकर लगने का अंदेशा नहीं रहता तब तक हरिश्चंद्र और युधिष्ठिर का-सा बरताव करते हैं, परंतु जहाँ देखते है कि स्वार्थ को धक्का लग जावेगा, तुरंत पैंतरा बदल देते हैं। और इतने धूर्त हैं कि इनमें से कुछ न्याय करने-करवाने का ढोंग बनाते हैं और दूसरे उसी ढोंग की ओट में स्वार्थ की सिद्धि करते हैं। जैसे, हेस्टिंग्स ने अवध की बेगमों को लूटा। कुछ अंग्रेजों ने उस पर मुकद्दमा चलाया। बाकी ने इनाम देकर उसको छोड़ दिया। इधर बिचारा नंदकुमार बंगाली फाँसी पर चढ़ा दिया गया।'
रानी ने प्रश्न किया, 'लखनऊ का अब क्या हाल है?'
नाना ने उत्तर दिया, 'पहले का हाल तात्या बतला गया था। अब तो वहाँ शून्य है। जनता निस्संदेह जीवटवाली है।'
रानी ने जरा सोचकर कहा, 'मैं इन सब बातों को सुनकर इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि जनता के चित्त का पता अभी पूरा नहीं लगाया गया है। जनता असली शक्ति है। मुझको विश्वास है कि वह अक्षय है। छत्रपति ने जनता के भरोसे ही इतने बड़े दिल्ली सम्राट् को ललकारा था। राजाओं के भरोसे नहीं। मावले, कणभी किसान थे और अब भी हैं। उनके हलों की मूठ में स्वराज्य और स्वतंत्रता की लालसा बँधी रहती है। यहाँ की जनता को भी मैं ऐसा ही समझती हूँ। उसको छत्रपति ने नेतृत्व दिया था। यहाँ की जनता को तुम दो।'
वे दोनों सिर नीचा करके कुछ सोचने लगे। रानी ने अपनी सहेलियों की ओर देखकर कहा, 'तुम लोग क्या कहती हो?'
सुंदर ने तुरंत उत्तर दिया, 'मैं सरकार, कुणभी हैं। और क्या कहूँ? आपकी आज्ञा पालन करते हुए मरने के समय आगा-पीछा नहीं सोचूंगी।'
नाना ने कहा “तुम ठीक कहती हो बाई साहब, अभी हम लोग जनता के पास नहीं पहुँचे हैं। आशा है जनता शीघ्र ही जाग्रत हो जावेगी, परंतु वह बिना नेता के कुछ नहीं कर सकती।
“नेता को नेता नहीं ढूँढना पड़ता।”, रानी बोली, “समर्थ रामदास का आशीर्वाद नेता को तो बिना विलम्ब उत्पन्न कर देता है।”
नाना - “मैं समझ गया। निराश का। कोई कारण नहीं।”
रानी - “हाँ, जो साधन जहां मिले उसका उपयोग करना चाहिए। जनता मुख्य साधन है। राजा और नवाब की पीढ़ी, दो पीढ़ी ही योग्य होती है। परंतु जनता की पीढ़ियों की योग्यता कभी नहीं छीजती।”
नाना - “अब एक प्रश्न और है - यदि तमहरा अधिकार लाट के यहाँ से मान्य रहा तो हमको स्वराज्य प्राप्ति के उपायों के जुटाने में सुविधा रहेगी, परंतु यदि लाट ने न माना, जैसी कि मुझको आशंका है, तब किस प्रकार कार्य साधन होगा?”
रानी - “मैं ऐसा क्षण भर भी नहीं सोचती कि लाट नहीं मानेगा। नहीं मानेगा तो मैं मनवाऊँगी। झाँसी राज्य की जनता सोलह आना मेरे साथ है। और यहाँ की जनसंख्या महाराष्ट्र के मावलों से अधिक ही है कम नहीं है। बुंदेलखंड में ब्राह्मण से लेकर भंगी तक हथियार चलाना जानते हैं और हथियार चलाने की हौस रखते हैं।”
जिस समय रानी ने यह बात कही उनका चेहरा तेज से दीप्त हो गया उन दोनो पुरुषों के मन में हर्ष की लहर दौड़ गयी।
तात्या ने कहा, “अंग्रेज़ी सेना के हिंदू मुसलमान सिपाहियों को भी टटोलूँगा।”
रानी बोली,”अभी नहीं। पहले उनके घरों को टटोलो, जहां उन्होंने जननी से जन्म पाया और उनकी गोद में खेले हैं।
नाना ने पूछा,”यदि लाट का उत्तर हामरे विरुद्ध आया तो क्या तुम तुरंत युद्ध छेड़ दोगी?”
रानी ने जवाब दिया,”बिठूर से झाँसी आकर इतने दिनों में बहुत कुछ सीखा है। समय उत्तर देगा।”
वें दोनो समझ गए कि रानी का कार्यक्रम इस समय ढूँढ खोज करने का और अवसर की प्रतीक्षा का है।
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सबेरे की उस कंपकपाँती ठंड में जब सूर्य भी बदली में मुँह छिपाए था, नवाब अली बहादुर अपने नौकर पीर अली के साथ लिए हाथी पर सवार ऐलिस की कोठी पर पहुँचे। जिस भवन में आज कल डिस्ट्रिक्ट जज की कचहरी है, उसी में ऐलिस रहता था।
ऐलिस अली बहादुर की हवेली पर ज़ाया करता था। अली बहादुर ऐलिस को अपना मित्र मानते हुए भी, उसकी खुशामद करने से नहीं हिचकते थे।
जैसे ही वे हाथी से उतरे, ऐलिस का नौकर पास दौड़ता हुआ आया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में साहब के नौकरों और ख़ानसामों का जो पद गौरव चरम सीमा को पहुँच गया था, उसका आरम्भ था।
नौकर ने झुक कर सलाम किया। अली बहादुर ने मिठास से साथ पूछा,”साहब क्या कर रहे हैं? बहुत उलझन में तो नहीं हैं? मिलना चाहता हूँ।”
नौकर ने जवाब दिया,”नहीं हुज़ूर। दफ़्तर में अभी अभी आकर बैठे हैं। हुक्का पी रहे हैं। फ़ौरन इत्तिला करता हूँ।”
कुछ क्षण पश्चात ही नौकर अलीबहादुर को भीतर पहुँचा आया।
अभिवादन और कुशल क्षेम प्रश्नोत्तरी के उपरांत उन दोनो में बातचीत होने लगी।
अली बहादुर ने कहा,”रानी साहब की अर्ज़ी का कुछ जवाब नहीं आया। शायद ख़ारिज हो जावेगी।”
ऐलिस विचार की मुद्रा बना कर बोला, “कह नहीं सकता। आपका ऐसा ख़याल क्यों हैं?”
अली बहादुर ने कहा,”रियासतों के बुरे इंतज़ामों को देख कर और जनता की भलाई की नज़र से, सरकार ने कई, रजवाड़ों में अपना अदल, अमन और इंसाफ़ चालू किया है। इसीलिए शायद झाँसी में भी सरकारी बंदोबस्त किया जावे।”
भोलेपन के साथ ऐलिस बोला, “मुझको नहीं मालूम नवाब साहब, पर अगर ऐसा हो तो यहाँ की जनता सरकारी हुकूमत और क़ानून पसंद करेगी?”
अली बहादुर ने बड़े मीठे सवार में जवाब दिया,” दोनो हाथों से जनाब। स्वर्गीय राजा साहब के जमाने में जो जुल्म हुए हैं उनको आसानी से नहीं भुलाया जा सकता।”
ऐलिस सच्चाई का ढोंग करते हुए बोला, “कुछ मैंने भी सुने हैं जैसे साधारण से अपराधों पर लोगों को बिच्छुओं से कटवाना। लेकिन मरने के क़रीब के जमाने की कोई शिकायत मेरे कान तक नहीं आयी।
ऐलिस, नवाब साहब जैसे हिंदुस्तानियों की आँतों तले से बात को निकालने का कीड़ा जनता था। उनकी और देखने लगा।
नवाब ने कहा, “छोटी छोटी सी बातों का आपके सामने बयान करना आपकी शान के ख़िलाफ़ होगा। पहले के किए हुए कुछ अंधेरे इतने ग़ज़ब के हैं कि सताए हुए लोग अभी तक तड़प रहे हैं।”
“मुझको ऐसे लोगों के नाम और उन पर बीती हुई याद नहीं नवाब साहब।”उत्सुकता प्रकट ना करते हुए ऐलिस बोला।
“कम से कम एक ही की बीती हुई सुनें जनाब।” नवाब ने कहा,”नाम बिचारे का ख़ुदाबख्श है पहले उसको राजा साहब बहुत अंग लगाए रहते थे। नाटक शाला में बराबरी से बिठलाते थे। छोटी सी जागीर भी दिए हुए थे। एक दिन सनक जो सवार हुई तो गरीब को देश निकाले की सजा। दे दी। जागीर ज़ब्त कर ली। उसने अर्ज़ मारूज पेश करने की बरसों कोशिश की, मगर उसको मौक़ा तक नहीं दिया गया।”
“उसने कम्पनी सरकार में कोई अर्ज़ी दी?” ऐलिस ने पूछा।
नवाब ने माथा टटोल कर उत्तर दिया, “ याद नहीं पड़ता। शायद नहीं दी।”
अंग्रेज ऐसे मौक़ों पर अपनी धाक जमाते हैं।
ऐलिस बोला, “ख़ुदा बख्श अर्ज़ी देता तो एजेंट साहब बहादुर सुनवाई करते।”
खुशामदी हिंदुस्तानी ऐसे ही मौक़ों पर स्वार्थ साधन का ज़रिया निकला करते थे।
नवाब ने कहा,”जनाब की सेवा में ख़ुदा बख्श अर्ज़ी पेश कर दे?”
ऐलिस ज़रा संकट में पड़ा।परंतु उसकी व्यापार कुशल बुद्धि ने सहायता की।
बोला,”अर्ज़ी सरूर से। परंतु बड़े साहब के पास कैथ भेजे। जब मेरे पास आवेगी, मैं उचित कार्यवाही करूँगा।”
इतने से शायद नवाब साहब का मन भर गया। उन्होंने चिन्ह काम से काम ऐसे ही प्रकट किए।
फ़िट बहुत मुस्कुराहट, बड़े मिठास के साथ अली बहादुर ने कहा,”एक मेरी ज़ाती बिनती है।”
ऐलिस ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा,”ज़रूर कहिए नवाब साहब।”
नवाब साहब वास्तव में जिस प्रयोजन से ऐलिस से भेंट करने आए थे, उन्होंने प्रकट किया।
“जनाब को मालूम है, मिसलों में लिखा पढ़ा है, मेरे स्वर्गीय पिता राजा रघुनाथ साहब ने मुझको ८५ गाँव जागीर में लगाए थे। सरकारी बंदोबस्त होने पर वह जागीर मेरे पास से निकाल ली गई और पाँच सौ रुपया माहवारी वज़ीफ़ा लगा दिया गया। बड़ा कुटुम्ब है। सफ़ेद पोशी साथ लगी है। गुजर नहीं होती।राजा साहब गंगाधर राव से प्रार्थना की थी। उन्होंने कहा था एजेंट साहब से सलाह करके जवाब देंगे। फिर उनका लड़का मर गया और वें बीमार पद गए। बात अधूरी रह गई। अब शासन बदला है। शायद सरकारी बंदोबस्त हो जाए। इसलिए मेरी उचित विनती पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
ऐलिस सोचने लगा।
नवाब ने समझा की पानी बिलमा।
ऐलिस ने समझ लिया की ख़ुदाबख्श वाली शिकायत केवल भूमिका और पेशबंदी थी। असल में नवाब साहब ख़ुदाबख्श की ओट में विनती लेकर आए हैं। परंतु वह कुढ़ा नहीं। उसको एक छोटा सा अध्ययन मिला और अपना काम निकालने का अवसर तथा साधन।
बोला,”नवाब साहब आप मेरे मित्र हैं। मुझसे जो कुछ सहायता बनेगी करूँगा। अर्ज़ी दीजिए। उसमें सब हाल ब्योरेवार लिखिए। अर्ज़ी चाहे एजेंट साहब बहादुर के पास बाला बाला भेज दीजिए, चाहे मेरी मार्फ़त।” “बहादुर” शब्द पर उसने ज़्यादा ज़ोर लगाया।
इस समय ख़ुदाबख्श को कोई चिंता अली बहादुर को ना थी।
खुश होकर बोले,”मैं बहुत धन्यवाद देता हूँ। परमात्मा आपको लाट साहब करे।” फिर मिठास में घुलकर कहा, जनाब को मालूम है कि महाराजा रघुनाथ वाला महल मेरे क़ब्ज़े में रहा है। मुझको महाराजा साहब दे गए थे। उसको गंगाधर राव ने यों ही छीन लिया। किसी काम में नहीं आ रहा है। ताले पड़े हैं।”
ऐलिस ने कहा, “मुझको मालूम है। वह जगह आपकी है, आपको मिलेगी, ज़रा सा इंतज़ार करिए।”
नवाब साहब ने सलाम करके धन्यवाद दिया। चलने की आज्ञा माँगने लगे।
ऐलिस ने हैंड कर कहा,” थोड़ा सा और बैठिए नवाब साहब।”
नवाब साहब को घर पर काम ही क्या था?” सट से जाम गए।
ऐलिस ने फुसलाहट के ढंग पर पूछा, “आपके पास तो बस्ती में बहुत लोग आते जाते हैं। क्या हाल है?”
“बहुत अच्छा हाल तो नहीं है। लोग परेशान हैं। सच पूछिए तो वें लोग चाहते हैं, कि कम्पनी सरकार का बंदोबस्त हो जाए। “
“लोगों से ज़रा और ज़्यादा मिलते रहिए और जनता के सुख दुःख की बातें मुझको बतलाते रहिए।”
“ऐसा ही करूँगा। लगभग दूसरे तीसरे दिन हाज़िरी दिया करूँगा।”
“रानी साहब का क्या हाल है? उनका स्वभाव किस तरह का है?”
“रानी साहब रंज में रहती हैं? चाल चलन अव्वल दर्जे का खरा है। अपने धर्म की पाबंद हैं। घुड़सवारी, हथियार चलाना, लिखने पढ़ने की योग्यता ~~~”
“यह सब मुझको मालूम है नवाब साहब। मैं उनको बहुत इज़्ज़त करता हूँ, मैं केवल यह जानना चाहूँगा कि कोई इधर उधर के लोग उन्हें बरगलाते तो नहीं हैं।”
अभी तो उनके नाते गोते के लिए लोग फेरे के लिए आ जा रहे हैं। हाल में बिठूर के कुछ लोग आए थे। वें चले गए।”
“कृपा होगी यदि आप इन आने जाने वालों का भी पता देते रहें।”
“बहुत अच्छा जनाब। पीर अली मेरा बहुत भरोसे का नौकर है। उसको इस काम पर तैनात कर दूँगा। मेरे साथ ही हाथी पर आया है, कि लाट साहब से यहाँ से अधिकार मिलने पर खलासी कर दी जावेगी। इसलिए सोचता हूँ अभी बड़े साहब या छोटे साहब, किसी को भी अर्ज़ी ना दूँ। “
“अच्छी बात है।”नवाब ने कहा। माँ में कुढ़ गए।
एक क्षण उपरांत पूछा, “किसकी मार्फ़त अर्ज़ी दी थी?”
“मोतीबाई अपनी तनख़्वाह की फ़रियाद करने गयी थी। अपनी बात के सिलसिले में उन्होंने मेरी विनती भी कर दी।”
“कब?”
“कल। और आज सवेरे रानी साहब का जवाब आ गया, बहुत नेक हैं।”
“मोतीबाई आयी हैं?”
“नहीं उन्होंने खबर भेजी हैं।”
“मुझको ख़ुशी हुई। मेरे लायक़ तुम्हारा जो काम होगा, करूँगा।”
“आपकी कृपा है।”
अली बहादुर ने सोचा,”ऐलिस साहब के कान में इस बात के डालने की ज़रूरत नहीं है।”
ख़ुदाबख्श शहर में रहने लगा।
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