Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 6 - Vrindavan Lal Verma

 इस कहानी को audio में सुनने के लिए इस पोस्ट के अंत में जाएँ। 


 20

वसंत गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी की प्रतिमा आभूषणों और फूलों के श्रृंगार से लद गई और धूप-दीप तथा नैवेद्य ने कोलाहल-सा मचा दिया। हरदी- कूँकूँ (हलदी-कुंकुम) के उत्सव में सारे नगर की नारियाँ व्यग्र, व्यस्त हो गईं। 


परंतु उनमें से बहुत थोड़ी गले में सुमन-मालाएँ डाले थीं, उनके पास हृदयेश की कविता और उसका फल दूसरे रूप में पहुँचा था-उनको भ्रम था कि राजा-रानी हम लोगों के श्रृंगार पसंद नहीं करते। इसलिए जब वे स्त्रियाँ-जो पूजन के लिए रनवास में आईं-चढ़ाने के लिए तो अवश्य फूल ले आईं परंतु गले में माला डाले कुछेक ही आईं। 


किले में जाने की सब जातियों को आजादी थी। किले के उस भाग में जहाँ महादेव और गणेश का मंदिर है और उसको शंकर किला कहते थे, सब कोई जा सकते थे-अछूत कहलानेवाले चमार, बसोर और भंगी भी। जहाँ अपने कक्ष में रानी ने गौरी को स्थापित किया था, वहाँ इन जातियों की स्त्रियाँ नहीं जा सकती थीं। परंतु कोरियों और कुम्हारों की स्त्रियाँ जा सकती थीं। कोरी और कुम्हार कभी अछूत नहीं समझे गए थे। 


सुंदर ललनाओं को आभूषणों से सजा हुआ देखकर रानी को हर्ष हुआ, परंतु अधिकांश के गलों में पुष्पमालाओं की त्रुटि उनको खटकी। उन्होंने स्त्रियों से कहा, 'तुम लोग हार पहनकर क्यों नहीं आईं? गौरी माता को क्या अधूरे श्रृंगार से प्रसन्‍न करोगी?' 

स्त्रियों के मन में एक लहर उद्वेलित हुई। 


लालाभाऊ बख्शी की पत्नी उन स्त्रियों की अगुआ बनकर आगे आई। वह यौवन की पूर्णता को पहुँच चुकी थी। सौंदर्य मुखमंडल पर छिटका हुआ था। बख्शिनजू कहलाती थीं। हाथ जोड़कर बोली, 'जब सरकार के गले में माला नहीं है तब हम लोग कैसे पहनें?' 


रानी को असली कारण मालूम था। बख्शिनजू के बहाने पर उनको हँसी आई। पास आकर उसके कंधे पर हाथ रखा और सबको सुनाकर कहने लगीं, 'बाहर मालिनें नाना प्रकार के हार गूँथे बैठी हुई हैं। एक मेरे लिए लाओ। मैं भी पहनूँगी। तुम सब पहनो और खूब गा-गाकर माता को रिझाओ। जो लोग नाचना जानती हों, नाचें। इसके उपरांत दूसरी रीति का कार्य होगा।


स्त्रियाँ होड़ाहींसीं में मालिनों के पास दौड़ीं, परंतु मुंदर पहले माला ले आई। बख्शिन जरा पीछे आई। मुंदर माला पहनानेवाली थी कि रानी ने उसको मुसकराकर बरज दिया। मुंदर सिकड़-सी गई। 


रानी ने कहा, मुंदर, एक तो तू अभी कुमारी है, दूसरे तेरे हाथ के फूल तो नित्य ही मिल जाते हैं। बख्शिनजू के फूलों का आशीर्वाद लेना चाहती हूँ।


बख्शिनजू हर्षोत्फुल्ल हो गई। मुंदर को अपने दासीवर्ग की प्रथा का स्मरण हो आया-विवाह होते ही महल और किला छोड़ना पड़ेगा, उदास हो गई। रानी समझ गईं। बख्शिन ने पुष्पमाला उनके गले में डालकर पैर छुए। रानी ने उठकर अंक में भर लिया। फिर मुंदर का सिर पकड़कर अपने कंधे से चिपटाकर उसके कान में कहा, 'पगली, क्‍यों मन गिरा दिया? मेरे पास से कभी अलग होगी।


मुंदर उसी स्थिति में हाथ जोड़कर धीरे से बोली, 'सरकार, मैं सदा ऐसी ही रहूँगी और चरणों में अपनी देह को इसी दशा में छोड़ूँगी।


फिर अन्य स्त्रियों ने भी रानी को हार पहनाए, इतने कि वे ढंक गईं और उनको साँस लेना दूभर हो गया। सहेलियाँ उनकें हार उतार-उतारकर रख देती थीं और वह पुनः-पुन: ढंक दी जाती थीं। 


अंत में कोने में खड़ी हुई एक नववधू माला लिए बढ़ी। उसके कपड़े बहुत रंग-बिरंगे थे। चाँदी के जेवर पहने थी। सोने का एकाध ही था। सब ठाठ सोलह आना बुंदेलखंडी। पैर के पैजनों से लेकर सिर की दाउनी (दामिनी) तक सब आभूषण स्थानिक। रंग जरा साँवला। बाकी चेहरा रानी की आकृति, आँख-नाक से बहुत मिलता-जुलता! रानी को आश्चर्य हुआ और स्त्रियों के मन में काफी कुतूहल। वह डरते-डरते रानी के पास आई। 

रानी ने मुसकराकर पूछा, 'कौन हो?' 

उत्तर मिला, 'सरकार, हों तो कोरिन।

'नाम?' 

'सरकार, झलकारी दुलैया।

'निःसंदेह जैसा नाम है वैसे ही लक्षण हैं! पहना दे अपनी माला।

झलकारी ने माला पहना दी और रानी के पैर पकड़ लिए। 

रानी के हठ करने पर झलकारी ने पैर छोड़े। 

रानी ने उससे पूछा, 'क्या बात है झलकारी? कुछ कहना चाहती है क्या?' 


झलकारी ने सिर नीचा किए हुए कहा, 'मोय जा विनती करने-मोय माफी मिल जाय तो कओं।

रानी ने मुसकराकर अभयदान दिया। 


झलकारी बोली, 'महाराज, मोरे घर में पुरिया पूरबे कौ और कपड़ा बुनवे कौ काम होत आओ है। पै उननैं अब कम कर दऔ है। मलखंब, कुश्ती और जाने का-का करन लगे। अब सरकार घर कैसैं चलै?' 

रानी ने पूछा, 'तुम्हारी जाति में और कितने लोग मलखंब और कुश्ती में ध्यान देने लगे हैं?' 

'काये मैं का घर-घर देखत फिरत? ' झलकारी ने बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें घुमाकर तीक्ष्ण उत्तर दिया। 


रानी हँस पड़ीं, यह तो तुम्हारे पति बहुत अच्छा काम करते हैं। तुम भी मललंब, कुश्ती सीखो। इनाम दूँगी। घोड़े की सवारी भी सीखो।

झलकारी लंबा घुँघट खींचकर नब गई। घूँघट में ही बेतरह हँसी। रानी भी हँसी और अन्य स्त्रियों में भी हँसी का स्रोत फूट पड़ा। 

लगभग सभी उपस्थित स्त्रियों ने जरा चिंता के साथ सोचा-हम लोगों से भी मलबंब, कुश्ती के लिए कहा जाएगा। बड़ी मुश्किल आई। 


उन स्त्रियों ने फूलों के ढेरों और आभूषणों में होकर अखाड़ों और कुश्तियों को झाँका तथा परंपरा की लज्जा और संकोच में वे ठिठुर-सी गईं। उनकी हँसी को एक जकड़-सी लग गई। 


झलकारी बोली, 'महाराज, मैं चकिया पीसत हों, दो-दो तीन-तीन मटकन में पानी भर-भर ले आउत, राँटा (चरखा। चरखा चलाने की प्रथा बुंदेललंड में ऊँचे घरानों तक में, घर-घर थी।) कातत...

रानी ने कहा, 'तुम्हारे पति का क्या नाम है?' 

झलकारी सिकुड़ गई। 


बख्शिन ने तड़ाक से कहा, 'आज हम लोग आपस में कुंकम-रोरी लगाते समय एक-दूसरे से पति का नाम पूछेंगे ही। झलकारी को भी बतलाना पड़ेगा, उस समय। परंतु' वह नखरे के साथ दूसरी स्त्रियों की ओर देखने लगी।

रानी ने हँसकर पूछा, परंतु क्या बख्शिन जू?' 


बख्शिन ने उत्तर दिया, 'सरकार, बड़े काम पहले राजा से आरंभ होते हैं। आज के उत्सव की परिपाटी में रिवाज के अनुसार सबको अपने-अपने पति का नाम लेना पड़ेगा, परंतु प्रारंभ कौन करेगा? यह भी हम लोगों को बतलाना पड़ेगा?' 


कुछ स्त्रियाँ हंस पड़ीं। कुछ ताली पीटकर थिरक गईं। रानी की सहेलियाँ मुसकरा-मुसकराकर उनका मुँह देखने लगीं। रानी के गौर मुख पर उषा की अरुण-स्वर्ण रेखाएँ-सी खिच गईं। वह मुसकराईं जैसे एक क्षण के लिए ज्योत्स्ना छिटक गई हो। जरा सिर हिलाया मानो मुक्तपवन ने फूलों से लदी फुलवारियों को लहरा दिया हो। 

रानी ने बख्शिन से कहा, 'तुम मुझसे बड़ी हो, तुमको पहले बतलाना होगा।


'सरकार हमारी महारानी हैं। पहले सरकार बतलावेंगी। पीछे हम लोग आज्ञा का पालन करेंगी।' बख्शिन ने घूँघट का एक भाग होंठों के पास दबाकर कहा। 


हरदी-कूँकूँ के उत्सव पर सधवा स्त्रियाँ एक-दूसरे को रोरी (रोली) का टीका लगाती हैं और उनको किसी--किसी बहाने अपने पति का नाम लेना पड़ता है। 

रानी ने कहा, 'बख्शिनजु, अपनी बात पर दृढ़ रहना। आज्ञापालन में आगा-पीछा नहीं देखा जाता।

'परंतु धर्म की आज्ञा सबसे ऊपर होती है, सरकार।' बख्शिन हठ पूर्वक बोली। 


रानी के गोरे मुखमंडल पर फिर एक क्षण के लिए रक्तिम आभा झाई-सी दे गई। बोलीं, 'बख्शिनजू, याद रखना, मैं भी बहुत हैरान करूँगी। मेरी बारी आएगी तब मैं तुम्हें देखूँगी।

बख्शिन ने प्रश्न किया, 'अभी तो मेरी बारी है, सरकार बतलाइए, महादेवजी के कितने नाम हैं?' 

रानी ने अपने विशाल नेत्र जरा झुकाए, गला साफ किया। बोलीं-शिव, शंकर, भोलानाथ, शंभू, गिरिजापति। 

'सरकार को तो पूरा कोष याद है। अब यह बतलाइए कि महादेवजी के जटा-जूट में से क्‍या निकला है

'सर्प, रुद्राक्ष


'जी नहीं सरकार-किसकी तपस्या करने पर, किसको महादेव बाबा ने अपनी जटाओं में छिपाया और कौन वहाँ से निकलकर, हिमाचल से बहकर इस देश को पवित्र करने के लिए आया? ब्रह्मावर्त के नीचे किसका महान्‌ सुहानापन है।

'गंगा का,' यकायक लक्ष्मीबाई के मुँह से निकल पड़ा। 


उपस्थित स्त्रियाँ हर्ष के मारे उन्मत्त हो उठीं। नाचने लगीं। झलकारी ने तो अपने बुंदेललंडी नृत्य में अपने को बिसरा-सा दिया। रानी उस प्रमोद में गौरी की प्रतिमा की ओर विनीत कृतज्ञता की दृष्टि से देखने लगीं। प्रमोद की उस थिरकन का वातावरण जब कुछ स्थिर हुआ, रानी ने आनंद-विभोर बख्शिन का हाथ पकड़ा। कहा, 'बख्शिनजू, सावधान हो जाओ। अब तुम्हारी बारी आई।

बख्शिन के मुँह पर गुलाल-सा बिखर गया। 


नतमस्तक होकर बोली, 'सरकार, अभी बड़े-बड़े मंत्रियों और दीवानों की स्त्रियाँ और बहुएँ हैं। हम लोग तो सरकार की सेना के केवल बख्शी ही हैं।


रानी ने मुसकराते-मुसकराते दाँत पीसकर विशाल नेत्रों को तरेरकर, जिनमें होकर मुसकराहट विवश झरी पड़ रही थी, कहा, 'बख्शी सेना का आधार, तोपों का मालिक, प्रधान सेनापति के सिवाय और किसी से नीचे नहीं। राजा के दाहिने हाथ की पहली उँगली, और तुम यहाँ उपस्थित स्त्रियों में सबसे अधिक शरारतिन। मेरे सवालों का जवाब दो।


बख्शिन ने अपनी मुखमुद्रा पर गंभीरता, क्षोम और अनमनेपन की छाप बिठलानी चाही। परंतु लाज से बिखेरी हुई चेहरे की गुलाली में से हँसी बरबस फूट पड़ रही थी। बख्शिन बोली, 'सरकार की कलाई इतनी प्रबल है कि मेरा हाथ टूटा जा रहा है।


रानी ने कहा, तुम्हारी कलाई भी इतनी ही मजबूत बनवाऊँगी, बात बनाओ, मेरे सवाल का जवाब दो। बोलो, मेरे पुरखों के नाम याद हैं?' 


बख्शिन सँभल गई। उसने सोचा, मारके का प्रश्न अभी दूर है। बोली, 'हाँ सरकार। जिनकी सेवा में युग बीत गए उनके नाम हम लोग कैसे भूल सकते हैं?' 

'बतलाओ मेरे ससुर का नाम।' रानी ने मुसकुराते हुए दृढ़तापूर्वक कहा। 

चतुर बख्शिन गड़बड़ा गई। उसके मुँह से निकल गया-'भाऊ (शिवराव भाऊ गंगाधरराव के पिता थे।) साहब' 

बख्शिन के पति का नाम लाला भाऊ था। 

रानी ने हँसकर बख्शिन का हाथ छोड़ दिया। 


उपस्थित स्त्रियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। बख्शिन को अपने पति का नाम बतलाना तो अवश्य था, परंतु वह रानी को थोड़ा परेशान करके ही बतलाना चाहती थी; लेकिन रानी ने अनायास ही बख्शिन को परास्त कर दिया। 

इसके उपरांत रानी ने चुलबुली झलकारी को बुलाया। उसके पति का वहाँ किसी को नाम नहीं मालूम था। इसलिए बहानों की गुंजाइश थी। 

रानी ने सीधे ही पूछा, 'तुम्हारे पति का नाम?' 


झलकारी के पति का नाम पूरन था। पति का नाम बतलाने के लिए व्यग्र थी परंतु उत्सव की रंगत बढ़ाने के लिए उसने जरा सोच-विचारकर एक ढंग निकाला। 

बोली, 'सरकार, चंदा पूरनमासी को ही पूरी-पूरी दिखात है ?' 

रानी ने हँसकर कहा, ' हो! पहले ही अरसट्टे में फिसल गई! पूरन नाम है?' 

झलकारी झेंप गई। चतुराई विफल हुई। हँस पड़ी। 

इसी प्रकार हँसते-खेलते और नाचते-गाते स्त्रियों का उत्सव अपने समय पर समाप्त हुआ। 


अंत में रानी ने स्त्रियों से एक भीख-सी माँगी, 'तुममें से कोई बहनों के बराबर हो, कोई काकी हो, कोई माई हो, कोई फूफी। फूल सदा नहीं खिलते। उनमें सुगंध भी सदा नहीं रहती। उनकी स्मृति ही मन में बसती है। नृत्यगान की भी स्मृति ही सुखदायक होती है। परंतु इन सब स्मृतियों का पोषक यह शरीर और उसके भीतर आत्मा है। उनको पुष्ट करो और प्रबल बनाओ। क्या मुझे ऐसा करने का वचन दोगी?' 


उन स्त्रियों ने इस बात को समझा हो या समझा हो परंतु उन्होंने हाँ-हाँ की। इन लोगों को डर लगा कि वहीं और तत्काल कहीं मलखंब और कुश्ती शुरू कर देनी पड़े! इत्रपान के उपरांत वे चली गईं। 


लेकिन एक बात स्पष्ट थी-जब वे चली गईं तब वे किसी एक अदृष्ट, अवर्ण्य तेज से ओत-प्रोत थीं। 


उसके उपरांत फिर झाँसी नगर की स्त्रियाँ संध्या-समय थालों में दीपक सजा-सजाकर और गले में बेला, मोतिया, जाही, जूही इत्यादि की फूल-मालाएँ डाल-डालकर मंदिरों में जाने लगीं। स्त्रियों को ऐसा भास होने लगा जैसे उनका कोई सतत संरक्षण कर रहा हो, जैसे कोई संरक्षक सदा साथ ही रहता हो, जैसे वे अत्याचार का मुकाबला करने की शक्ति का अपने रक्‍त में संचार पा रही हों। 


21


नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपूर्ण होते थे। लेकिन स्त्रियों को कभी नहीं सताते थे। और किसी की धन-संपत्ति लूटते थे। 


झाँसी की जनता उनसे भयभीत थी परंतु अपनी रानी पर मुग्ध थी। रानी शासन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लेती थीं, कितु राजा के कठोर शासन में जहाँ कहीं दया दिखाई पड़ती थी, उसमें जनता रानी के प्रभाव के आभास की कल्पना करती थी। 


कंपनी का झाँसी प्रवासी असिस्‍टेंट पॉलीटिकल एजेंट राजा के कठोर शासन, अत्याचार इत्यादि के समाचार गवर्नर जनरल के पास बराबर भेजता रहता था। उनके किसी भी सत्कार्य का समावेश उन समाचारों में किया जाता था। और राज्यों के साथ कलकत्ता में झाँसी राज्य की भी मिसिल तैयार होती चली जा रही थी। 


अंग्रेजों का चौरस करनेवाला बेलन बेतहाशा, लगातार और जोर के साथ चल रहा था। अंग्रेज लोग अपनी दूकान में हिंदुस्थान को अधूरे या अधकचरे सौदे का रूप लिए नहीं देख सकते थे। एक कानून, एक जाब्ता, एक मालिक, एक नजर, इसमें अनैक्य को तिल-भर भी स्थान देने की गुंजाइश थी। मौका मिलते ही छोटे-मोटे रजवाड़े साफ, हजम! भारतीय जनता के सुख के लिए!! 


ऊँचे पदों पर भारतीय पहुँच नहीं पावें। भारतीय संस्कृति हेच और नाचीज है, इसलिए पनपने पावे। भारत में बहुत फालतू सोना-चाँदी है, इसलिए अंग्रेजी दूकान की रोकड़ बढ़ती चली जावे। जनता स्वाधीनता का नाम ले तो उसको बड़ी रियासतों के अंधेरों का संकेत करके चुप कर दिया जावे। बड़ी रियासतोंवाले जरा-सा भी सिर उठावें तो छोटी रियासतों को किसी--किसी बहाने घोंट-घाँटकर बड़ी रियासतों को चुप रहने का सबक सिखाया जावे। 


सबसे बड़ा काम जो अंग्रेजों ने हिदुस्थानी जनता की भलाई (!) के लिए किया, वह था पंचायतों का सर्वनाश। अंग्रेजों को इस बात के परखने में बिलकुल विलंब नहीं हुआ कि उनके कानून के सामने हिंदुस्थान की आत्मा का सिर तभी झुकेगा जब यहाँ की पंचायतें विलीन हो जाएँगी, और हिंदुस्थानी, अर्जियाँ लिए हुए उनकी बनाई हुई साहबी अदालतों के सामने मुँहबाए भटकते फिरेंगे। 


यह सब उन्नीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक ढंग से हुआ। जो परिस्थिति कठोर- से-कठोर पठान या मुगल नरेश अपने प्रकट अत्याचारों से उत्पन्न नहीं कर पाए थे, वह अंग्रेजों ने अपनी वैज्ञानिक हिकमत से उत्पन्न कर दी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा और नवाब अपनी जनता का दामन छोड़कर अंग्रेजों का मुँह ताकने लगे। पुरुषार्थ की जरूरत थी, इसलिए सिर डुबोकर विलासिता के पोखरों में घुस पड़े। अंग्रेजी बंदूक और संगीन उनकी पीठ पर थी, जनता की परवाह ही क्या की जाती


अंग्रेजों को केवल एक बात का खुटका था-उनके इलाकों के हिंदू और मुसलमान धर्म के इतने ढकोसले क्यों मानते हैं? किसी दिन इन ढकोसलों की श्रद्धा में होकर हमें नफरत की निगाह से देखने लगें? धर्म से लिपटी हुई आत्मा का कैसे उद्धार करके अपना भक्त बनाया जाए? बस, इनकी रूहानी भक्ति मिली कि हिंदुस्थान में अपना राज्य अमर और अक्षय हो गया। 


इसलिए सरकारी पाठशालाओं में बाइबल की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। अमेरिका हाथ से निकल गया तो क्या हुआ, सोने की चिड़िया, सोने के अंडे देनेवाली मुरगी- भारत-भूमि-तो हाथ में आई! यह जाने पावे किसी तरह भी हाथ से! मंदिरों की मूर्तियाँ मत तोड़ो, मसजिदों को अपवित्र मत करो परंतु धर्म पर से श्रद्धा को हटा दो, फल उससे भी कहीं बढ़कर होगा। और कोने-कोने में डौंडी पीट दो कि हम धर्मों के विषय में बिलकुल तटस्थ हैं-हमारा एकमात्र आदर्श हिंदुस्थान के लूटेरों और डाकुओं का दमन करके शांति स्थापित करने का है, जिससे खेती-किसानी आबाद हो सके और व्यापार बेरोक-टोक चल सके। किसका व्यापार? किसके लिए खेती-किसानी? उसी अंग्रेज दूकानदार के लिए


गंगाधरराव यह सब अच्छी तरह नहीं समझते थे परंतु उनके पहले पूना में एक दुबला-पतला व्यक्ति नाना फड़नवीस हुआ था। वह खूब समझता था, एक-एक नस, एक-एक रग, राई-रत्ती! उसने हिंदस्थान के तत्कालीन राजाओं को बहुत समझाया, बहुत सावधान किया; परंतु वे मूर्ख कुछ समझे! अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की प्रेरणा में परस्पर कट मरे। 


अंग्रेजों ने पंजाब को परास्त करके हाल में ही अपने हाथ में किया था। बिहार और बंगाल में राज्य था ही। मध्यदेश बपौती का रूप धारण करता चला जाता था। इन सबके बीच में दो बड़े-बड़े रोड़े थे-एक अवध की मुसलमानी नवाबी और दूसरी झाँसी की बड़ी हिंदू रियासत। ये दोनों किसी प्रकार खत्म हो जाएँ तो पाँचों घी में और फिर हो चौरस करनेवाले अंग्रेजी बेलन की जय


गंगाधरराव के पास गार्डन और कुछ अन्य अंग्रेज आया करते थे परंतु गार्डन और वे, केवल दोस्ती निभाने नहीं आया करते थे। राज्य की भीतरी बातों का पता लगाकर गवर्नर जनरल को सूचना देना उनका प्रधान कर्तव्य था। 


गंगाधरराव के कोई संतान उस समय तक नहीं हुई थी। दूसरा विवाह संतान की आकांक्षा से किया था। रानी गर्भवती भी थीं; परंतु यह अनिवार्य नहीं था कि उनके पृत्र ही उत्पन्न हो। यदि वह निस्संतान मर गए तो झाँसी को तुरंत अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाएगा। अंग्रेजों के अंतर्मन में यह निहित था। इसीलिए गार्डन इत्यादि गंगाधरराव की खरी-खोटी भी सुन लेते थे। एक दिन शायद आए जब झाँसी निवासी हमारी खरी-खोटी चक्रवृद्धि ब्याज के साथ सुनेंगे। भीतर-भीतर यह लालसा घर किए बैठी थी। 


ठंड पड़ने लगी थी। तारे अधिक चमक-दमक के साथ चंद्रिका की अपनी विस्तृत झीनी चादर उड़ाकर आकाश में उपस्थित हुए। झाँसी स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर गार्डन और राजा गंगाधरराव महल के दीवानखाने में बातचीत कर रहे थे। 


गंगाधरराव-'बाजीराव पंतप्रधान के देहांत का समाचार मुझको मिल गया था, परंतु यह हाल में मालूम हुआ कि उसकी पेंशन जब्त कर ली गई है। यह अच्छा नहीं किया गया।


गार्डन- 'सोचिए सरकार, आठ लाख रुपया साल कितना होता है और फिर बिठूर की जागीर मुफ्त में! उस पर खर्च कुछ नहीं।


गंगाधरराव-'मुझको याद है, मुझको विश्वसनीय लोगों ने बतलाया है कि कंपनी ने सन्‌ १८०२ में (सन्‌ १८०२ ई० की संधि।) उक्त पंतप्रधान के साथ जो संधि की थी, उसमें गवर्नर जनरल ने अपने हाथ से लिखा था 'यावच्चंद्र -दिवाकर' कायम रहेगी। परंतु चंद्रमा और सूर्य सब जहाँ-के-तहाँ हैं। संधि-पत्र पर दस्तखत किए अभी ५० वर्ष भी नहीं हुए और सारा मैदान सफाचट कर दिया!' 


गार्डन-'सरकार, संधि-पत्र मेरे सामने नहीं है, इसलिए ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि उसमें क्‍या लिखा है, परंतु सुनता हूँ, उनको जब १५-१६ वर्ष पीछे पेंशन दी गई तब यह लिखा था कि पेंशन को वह और उनका कंटुंब ही भोग सकेगा।


गंगाधरराव-नाना धोंडूपंत जो अब जवान है, पंतप्रधान का दत्तक पुत्र है। क्या वह कुटुंबी नहीं माना जाएगा?' 

गार्डन-'हमारे देश के कानून में गोद नहीं मानी जाती।

गंगाधरराव-'पर हिंदुस्थान तो आपका देश नहीं है।


गार्डन-'अंग्रेज कंपनी का राज्य तो है। राजा अपना कानून बरतता है कि प्रजा का। सरकार अपने राज्य में अपना ही कानून तो बरतते हैं ?' 

गंगाधरराव-'हमारा और हमारी प्रजा का काननू तो एक ही है।


गार्डन-'यह बिलकुल ठीक है सरकार। और, दीवानी मामलों में हमारे इलाकों में भी प्रजा का ही कानून माना और चलाया जाता है परंतु रियासतों के संबंध में यह बात लागू नहीं की जाती।

गंगाधरराव-'क्यों, रियासतें और उनके रईस क्या साधारण प्रजा से भी गए-बीते हैं ?' 


गार्डन-'सो सरकार मैं नहीं जानता। कंपनी सरकार इंग्लैंड में कानून बना देती है। कुछ कानून गवर्नर जनरल भी बनाते हैं। हमको उन्हीं के अनुसार चलना पड़ता है।


गंगाधरराव-'हमारे धर्म में विधान है कि यदि औरस पुत्र पिंडदान देने के लिए हो तो दत्तक पुत्र ठीक औरस पुत्र की तरह पिंडदान दे सकता है। आप लोग क्या राजाओं को इससे वंचित करना चाहते हैं?' 


गार्डन-'नहीं सरकार। बड़ी रियासतों को यह अधिकार दे दिया गया है। परंतु जो रियासतें कंपनी सरकार की आश्रित हैं, उनमें गोदी गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बिना नहीं ली जा सकती। यदि ली जावे तो गोद लिए लड़के को राजगद्दी का अधिकारी नहीं माना जा सकता। वह राजा की निजी संपत्ति अवश्य पा सकता है और पिंडदान मजे में दे सकता है। सरकार ने हमारे धर्म की पुस्तक पढ़ी? उसका हिंदी में अनुवाद हो गया है। छप गई है।

गंगाधरराव-'छप गई है अर्थात्?' 


गार्डन-'छापाखाना में छपती है। उसमें यंत्र होते हैं। वर्णमाला के अक्षर ढले हए होते हैं। उनको मिला-मिलाकर स्याही से कागज पर छाप लेते हैं। हजारों की संख्या में छप जाती है।


गंगाधरराव-'ऐं! यह विलक्षण यंत्र है। मैं ग्रंथों की नकल करवा-करवाकर हैरानी में पड़ा रहता हूँ और जाने कितना रुपया व्यय किया करता हूँ। एक यंत्र हमारे लिए भी मँगवा दीजिए। 


गार्डन को डर लगा। ऐसा भयंकर विषधर झाँसी में दाखिल किया जावे! पुस्तकें छपेंगी, समाचार-पत्र निकलेंगे। जनता सजग हो जाएगी। अंग्रेजों का रौब धूल में मिल जाएगा। जिस आतंक के बल-भरोसे कंपनी-सरकार राज्य चला रही है, वह हवा में मिल जाएगा। गार्डन ने सोचा था कि राजा को इस कड़वे प्रसंग से हटाकर किसी मनोरंजक प्रसंग में ले जाऊँ, परंतु यह प्रसंग तो और भी अधिक कटु निकला। 


लेकिन गार्डन ने चतुराई से अपने को बचा लेने का प्रयत्न किया। बोला, 'सरकार, गवर्नर जनरल की आज्ञा बिना कोई भी उस यंत्र को नहीं रख सकता।

गंगाधरराव को रोष हुआ, आश्चर्य भी। बोले, 'इसमें भी गवर्नर जनरल की आज्ञा, अनुमति? आप लोग थोड़े दिन में शायद यह भी कहने लगो कि हमारी आज्ञा बिना पानी भी मत पिओ।

गार्डन हँसने लगा। राजा भी हँसे। 

बात टालने की नीयत से उसने कहा, 'सरकार, बड़ी देर से हुक्का नहीं मिला। आज क्या पान भी मिलेगा

राजा ने हुक्का दिया। 


उसी समय एक हलकारे ने आकर खुशी-खुशी कहा, 'महाराज की जय हो! झाँसी राज्य की जय हो।' राजा को मालूम था कि रानी प्रसव-गृह में हैं। जय का शब्द सुनते ही समझ गए। भीतर का हर्ष भीतर ही दबाकर गंभीरता के साथ पूछा, 'क्या बात है?' 


हरकारा हर्ष के मारे उछला पड़ता था। उसने हर्षोन्मत्त होकर उत्तर दिया, 'श्रीमंत सरकार, झाँसी को राजकुमार मिले हैं।


और उसने नीचा सिर करके अपनी कलाइयों पर उँगलियों से कड़ों के वृत्त बनाए। राजा ने हँसकर कहा, 'सोने के कड़े मिलेंगे और सिरोपाव भी। जा, तोपों की सलामी छुटवा। पर देख, बड़ी तोपें छूटें। हल्ला बहुत करती है और बस्ती के पंचों और भले आदमियों को सूचना दे।' गार्डन भी बहस से छुटकारा पाकर अपने घर चला गया। 


गवर्नर जनरल को सूचना दे दी गई। झाँसी राज्य को अंग्रेजी इलाके में मिला लेने की घड़ी टल गई। 


22


जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अपनी प्यारी रानी के गर्भ से पुत्पत्ति का समाचार सुनकर झाँसी थोड़े समय के लिए इंद्रपुरी बन गई। 

राजा ने बहुत खर्च किया, इतना कि खजाना करीब-करीब खाली कर दिया। दरिद्रों को जितना सम्मान उस अवसर पर झाँसी में मिला, उतना शायद ही कभी मिला हो। 


दरबार हुआ। गवैए आए। मुगलखाँ का ध्रुवपद सिरे का रहा। उसको हाथी बख्शा गया। नर्तकियों में दुर्गाबाई खूब पुरस्कृत हुई। नाटक हुआ। परंतु उसमें मोतीबाई थी। राजा के मन में आया कि उसको फिर से रंगशाला में बुलवा लिया जाए, परंतु किसी ने सिफारिश की और राजा अपने हठ को छोड़कर स्वयं प्रवृत्त हुए। 

दरबार में सभी जागीरदारों को कुछ--कुछ मिला। 


उस दरबार में केवल एक व्यक्ति की इच्छा की पूर्ति हो सकी। वे थे नवाब अलीबहादुर- राजा रघुनाथराव के पुत्र। जब अंग्रेजों ने रघुनाथराव के कुशासन काल में झाँसी का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया था, तभी उनकी जागीर जब्त कर ली गई थी और उनको पाँच सौ रुपया मासिक पेंशन दी जाने लगी थी। जब गंगाधरराव को राज्याधिकार मिला, तब उन्होंने यह पेंशन जारी रखी। अलीबहादुर चाहते थे कि यथासंभव उनको वही जागीर मिल जाए। जागीर मिल सके तो पेंशन में वृद्धि कर दी जाए। जागीर मिलती देखकर अलीबहादुर ने पेंशन बढ़ाने के लिए विनय की। राजा ने पॉलीटिकल एजेंट से बात करने की बात कहकर नवाब को उस समय टाला। नवाब का मन मसोस खा गया। परंतु उन्होंने आशा नहीं छोड़ी। अनेक अंग्रेज अफसरों से उनका मेलजोल था, परस्पर आना-जाना था। इसलिए उस आश्रय को दृढ़तापूर्वक पकड़ने की उन्होंने अपने जी में ठानी। 


दरबार में पगड़ी बंधवाने की प्रथा बहुत समय से चली रही थी। श्याम चौधरी नाम के एक सेठ के घरानेवाले ही ऐसे मौकों पर पगड़ी बाँधते थे। श्याम चौधरी लखपति था। कहते हैं कि उस समय झाँसी में ५२ लखपति थे। ये ५२ घर बावन बसने कहलाते थे। श्याम चौधरी पाग बाँधने के पहले अपना नेग-दस्तूर लेने के लिए बहुत मचला। राजा ने जब मोती जड़े सोने के कड़े देने का वचन दिया तब उसने राजा को पगड़ी बाँधी। नवाब अलीबहादुर का जी इससे और भी अधिक जल गया। 


वह किसी भी तरह इस भावना को नहीं दबा पा रहे थे-मैं राजा का लड़का हूँ, मैं ही झाँसी का राजा होता, अब मेरे पास जागीर तक नहीं! छोटे-छोटे से लोगों का इतना आदर-सत्कार और मेरी पेंशन बढ़ाने तक के लिए पॉलीटिकल एजेंट की सलाह की जरूरत


नवाब साहब ऊपर से प्रसन्न और भीतर से बहुत उदास अपनी हवेली को लौट आए। वे रघुनाथराव के नई बस्तीवाले महल में रहते थे। महल में तीन चौके थे। एक रंगमहल, दूसरा सैनिकों, हाथियों इत्यादि के लिए; तीसरा घोड़ों और गायों के लिए। महल का सदर दरवाजा चाँद दरवाजा कहलाता था। इस पर चढ़कर वे और उनके मुसलमान अफसर ईद के चाँद को देखते थे, इसलिए दरवाजे का नाम चाँद दरवाजा पड़ गया था। बिलकुल अगले सहन के आगे एक और विस्तृत सहन था, जिसके एक ओर इनका प्रिय हाथी मोतीगज बँधता था और दूसरी ओर राजा रघुनाथराव के जीवन-काल में इनकी माता लच्छोबाई के रहने के लिए हवेली थी। इस समय नवाब अलीबहादर के अधिकार में यह हवेली और सारा महल था। 


बाहरवाली हवेली में उनके मेहमान या आश्रित ठहराए जाते थे। दरबार से लौटकर अलीबहादुर पहले इसी हवेली में गए। हवेली बड़ी थी। उसमें कई कक्ष थे। परंतु उजाला केवल दो कक्षों में था। बाकी सूनी और अँधेरी थी। बाहर पहरेदार थे। उजाला दीपकों का था। शमादानों में जल रहे थे, दो कमरों में अलग-अलग। दोनों कमरे एक दूसरे से काफी दूर। 


जिस पहले कमरे में नवाब अलीबहादुर गए उसमें सिवाय खुदाबख्श के और कोई था। अभिवादन के बाद उनमें बातचीत होने लगी। गंगाधरराव खुदाबख्श और नर्तकी मोतीबाई से अप्रसन्न हो गए थे और उन्हें दरबार से निकाल दिया गया था। खुदाबख्श ने अलीबहादुर से अपनी प्रार्थना राजा तक पहुँचाने के लिए निवेदन किया था। 

खुदाबख्श ने अपनी आशामयी आँखों से कहा, 'हुजूर ने मेरी विनती तो पेश की होगी?' 

अलीबहादुर ने उत्तर दिया, 'नहीं भाई, मौका नहीं आया। जानते हो, महाराज अव्वल दर्जे के जिद्दी हैं। एकाध दिन मौका हाथ आने दो, तब कहूँगा।

खुदाबख्श-'उस कमरे में बेचारी मोतीबाई उम्मीदें बाँधे बैठी है। उसका तो कोई कसूर ही नहीं है। उसके लिए आप कुछ कह सके?' 

अलीबहादुर-'क्या कहता? वहाँ तो बनियों और छोटे-छोटे लोगों की बन पड़ी। मेरे लिए ही कुछ नहीं हुआ।

खुदाबख्श-'ऐं!' 


अलीबहादुर-'जी हाँ। जागीर चूल्हे में गई-पेंशन बढ़ाने के लिए अर्ज की तो कह दिया कि बड़े साहब से सलाह करेंगे। मैं सोचता हूँ कि हमीं लोग बड़े साहब से क्यों मिलें? आपके साथ काफी जुल्म हुआ है। आप मुद्दत से छिपे-छिपे फिर रहे हैं। जिस मोतीबाई के लिए राजा पलक-पाँबड़े बिछाते थे, वह बिचारी दर-दर फिर रही है। एक दिन मुझको यह और राजा के अनेक अत्याचार बड़े साहब के सामने साफ बयान करने हैं। आप भी चलना।' खुदाबख्श-'मैं तो आज तक किसी गोरे से नहीं मिला। आपकी उनसे दोस्ती है। आप जैसा ठीक समझें, करें।

अलीबहादुर-'मोतीबाई से अर्जी दिलाई जाए? आपसे कुछ बातचीत हुई?' खुदाबख्श-'क्या कहूँ, वे तो मुझसे परदा करती हैं। आप ही पूछिएगा।

अलीबहादुर-'नाटकशालावाली भी परदा करती है! रंगमंच पर तो परदे का नामनिशान नहीं रहता, बल्कि उससे बिलकल उलटा व्योहार नजर आता है।

अलीबहादुर की अवस्था ४२-४३ वर्ष की थी। स्वस्थ थे। रंगीन तबीयत के। उन्होंने बातचीत का सिलसिला जारी रखा-'रंगमंच पर उनका नाच-गाना, हाव-भाव सभी पहले सिरे के देखे। यहाँ परदा कैसा? वे पीरअली के सामने तो निकलती हैं।

पीरअली अलीबहादुर का खास नौकर और सिपाही था। बरताव एकांत में मित्रों सदृश्य। उसको बुलवाया गया। 

पीरअली की मार्फत मोतीबाई से बातचीत होने लगी। 

'बड़े साहब' को अर्जी देने के प्रस्ताव पर मोतीबाई ने कहलवाया, 'मैं अर्जी नहीं देना चाहती हूँ। किसी अंग्रेज के सामने नहीं जाऊँगी। आप लोग बड़े आदमी हैं। आप लोगों के रहते मैं अंग्रेजों के बँगलों पर नहीं भटकना चाहती।

अलीबहादुर ने कहा, 'आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा। आपकी अर्जी मैं पेश कर आऊँगा।

मोतीबाई ने उत्तर दिलवाया,'साहब से सब कुछ जबानी कह दीजिए। लिखी अर्जी नहीं दूंगी।

खुदाबख्श ने समर्थन किया। बोला, 'लिखा हुआ कुछ नहीं देना चाहिए। यदि कहीं अर्जी को साहब ने महाराज के पास फैसले के लिए भेज दिया तो हम सब विपद में पड़ जाएंगे।


अलीबहादुर दूसरे के हाथ से अंगारे डलवाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने खुदाबख्श को समझाया, 'आपका इससे बढ़कर तो अब और कुछ नुकसान हो नहीं सकता। बिना किसी अपराध के देश-निकाला दे दिया गया। घर-द्वार छूटा। जागीर गई। परदेश की खाक छानते फिर रहे हो। मेरी राय में आपको लिखी अर्जी जरूर देनी चाहिए। मैं साहब से सिफारिश करूँगा। वे राजा के पास भेजकर सीधी लाट साहब गवर्नर जनरल बहादुर के पास भेज देंगे। कंपनी सरकार रियासतों के नुक्स तलाश करने में दिन-रात व्यस्त रहती है।


खुदाबख्श ने कहा, 'जरा सोच लूँ। फिर किसी दिन अर्ज करूँगा। आप तो मेरे शुभचिंतक हैं। आप अकेले का तो मुझको आधार ही है। आपके अहसानों के बोझ से दबा हूँ।


अलीबहादुर ने सोचा, जल्दी करनी चाहिए। पीरअली ने छिपे संकेत में हामी भरी। खुदाबख्श के खाने-पीने की व्यवस्था करके अलीबहादुर चले गए। अकेले रह जाने पर मोतीबाई भी अपने घर गई। जाते समय उसने एक बार खुदाबख्श की ओर देखा। खुदाबख्श को ऐसा जान पड़ा जैसे कमलों का परिमल छुटकाती गई हो।




   Part #5; Part #7


Comments

Popular posts from this blog

Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 4 - Vrindavan Lal Verma

Munshi Premchand - Boodhi Kaki - Mansarovar 8

Munshi Premchand - Shudra Mansarovar 2