Jhansi Ki Rani - Lakshmibai #18 - Vrindavan Lal Verma

इस कहानी को audio में सुनने के लिया पोस्ट के अंत में जाएँ।  

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संध्या के पहले बरवासागर के मुखिया और पाँच रानी से मिलने के लिए आए। नज़र न्योछावर हुई। रानी ने सबसे कुशलक्षेम की वार्ता की। 

जब एकांत पाया थानेदार ने रानी को सागर सिंह के विषय में सूचना दी। मालूम हुआ कि खिसनी के जंगल में आश्रय पाए हुए हैं। खिसनी का जंगल बरवासागर से १२ मील था। थानेदार को उन्होंने आदेश दिया। 

सवेरे आठ बजे तैयार रहना किसी को मालूम होने पावे।

सवेरे सब तैयार हो गए।

ठीक समय पर उन्होंने मोतीबाई को बुलाकर कहा, “तुम यहीं रहो। खुदाबख्श की मरहम पट्टी और देख भाल करना।

मोतीबाई ने पलकें नीची की। बोली, “मैं तो सरकार की सेवा में चलूँगी। क्या किसी ने प्रार्थना की है?”

नहीं, मैं ही कह रही हूँ”, रानी ने उत्तर दिया।

मोतीबाई ने चलने का हाथ किया। उनकी अन्य सहेलियों ने भी अनुरोध किया। रानी माँ गयी। 

रानी अपनी और बरवासागर के थाने की टुकड़ी को लिए हुए चल दी। उन्होंने इस टुकड़ी के दो भाग किए। एक को दीवान रघुनाथ सिंह की अधीनता में रावली की ओर रवाना किया और दूसरी को स्वयं लेकर खिसनी के जंगल की ओर चल दी। 

दीवान रघुनाथ सिंह ने सागर सिंह की हवेली घेर ली। एक गाँव वाले से कहलवा भेजा 

, “हथियार डालकर मेरे पास जाओ। रानी साहब कुछ रियायत कर देंगी, नहीं तो हवेली की ईंट से ईंट बजा दूँगा।

गाँव वाले ने कहा, “कुंवर सागर सिंह हवेली में नहीं है।

रघुनाथ सिंह - “तब तो हवेली को पटक देने में और भी सुभीता रहेगा।

परंतु जब उसको निश्चय हो गया कि सागर सिंह हवेली में नहीं है, उसने रानी के पास संदेश खिसनी की ओर भेज दिया। खुद हवेली का घेरा डाले रहा। 

रानी जब जंगल को घेरने की योजना तैयार कर रही थी, तब उनको यह संदेश मिला। उनका मन कह रहा था कि सागर सिंह इसी ड़ाग में है।

 जासूस ने घंटे भर के भीतर सूचना दी, “दो पहाड़ियों की दूँ के सिरे पर एक बड़ी साई पर्णकुटी बाग़ी खाने पीने की तार में लगे हुए हैं। उनके पास घोड़े हैं। 

रानी ने दोनो पहाड़ियों की ऊँचाइयाँ बंदूक़ वालों से गिरवा ली और dooon के सिरे पर भी कुछ आदमी भेज दिए। स्वयं तीनों सहेलियों और मोतीबाई के साथ दूँ के निकास पर दो क़तारों में ओट लेकर घोड़ों समेत ठहर गई।

उनकी आज्ञा कि ऊपर वाले सिपाही धीरे धीरे दून के ढाल की ओर बढ़े और जब डाकुओं के ज़रा निकट जावें तब बंदूकों की बाढ़ दागे।

ऐसा ही किया गया।

डाक बेहद हड़बड़ा गए। खाना पीना और साह सामान छोड़कर घोड़ों पर नंगी पीठ सवार हुए और दून के निकास की ओर भागे।

ऊपर, तीन ओर से बंदूक़ चल रही थी, परंतु डाकुओं का एक आदमी भी घायल तक नहीं हुआ।

निकास पर पहुँचते ही उनके ऊपर सामने से पाँच बंदूकें चली। घोड़े मारे, डाकू घायल हुए। उन लोगों ने बंदूकों से जवाब दिया, परंतु रानी का दल आड़ लिए हुए था। इसलिए कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 

डाकू सिर पर पैर रखकर इधर उधर भागे।

काशी, सुंदर और मोतीबाई ने अलग अलग पीछा किया।

रानी और मुंदर के पास से जो डाकू घोड़े पर सवार, ज़रा पीछे निकला वह सतर्क था। नंगी तलवार हाथ में, गले में सोने का ज़ेवर। वस्त्र भी उसके अच्छे। जो वर्णन उनको सागर सिंह का मिला था, उससे इस डाकू सवार की हुलिया मिलती थी। रानी ने निर्णय किया कि यही सागर सिंह है। रानी ने मुंदर को मुस्कुराकर इशारा किया। मुंदर ने हाथ दाबे और सपाटे के साथ उस पर टूटी। रानी दूसरी बग़ल से। सागर सिंह ने घोड़ा तेज किया। इन दोनो ने पीछा किया। जब तक मार्ग ऊबड़ खाबड़ रहा सागर सिंह बचता हुआ चला गया। जब मार्ग कुछ समस्थल आया, ज़मीन मुलायम और कीचड़ वाली मिली। सागर सिंह का घोड़ा अटकने लगा। रानी और मुंदर के घोड़े बहुत प्रबल थे - दोनो काठियावाड़ी। सागर सिंह को एक ओर से मुंदर ने दबाया और दूसरी ओर से रानी ने। 

रानी गले में हीरों का दमदमाता हुआ कंठा डाले थी। उनको देखते ही सागर सिंह समझ गया कि जिस रानी के विषय में बहुत सुना करते थे, वह स्वयं आज, इसी क्षण उसके प्राणों की गाहक बनकर कूदी है। 

आत्मरक्षा के भाव से प्रेरित होकर उसने रानी पर वार किया। तुरंत मुंदर ने चपल गति से अपनी तलवार उस पर ढाई। वार ऊँचा पड़ा, घोड़े की पीठ पर। उधर रानी ने घोड़े को फुर्ती के साथ ज़रा सा रोका। वह कुछ अंगुल पीछे हुई, और सागर सिंह का वार उनसे आगे खिंच गया। रानी ने अपनी तलवार ऐसे कसी कि सागर सिंह की तलवार के दो टुकड़े हो गए। उसने अपने घोड़े को बहुत खींचा दाब, परंतु उसकी पीठ काट चुकी थी। मुंदर ने सागर सिंह की गर्दन को ताक कर तलवार उबारी कि रानी ने तुरंत कहा, “जीवित पकड़ना है”, और रानी ने इस तरकीब से अपना घोड़ा सागर सिंह की बराबरी पर किया कि वह सट गया। रानी ने सागर सिंह की कमर में अपना हाथ डाला। मुंदर समझ गई कि क्या करना है। दूसरी ओर से उसने अपना हाथ उसकी कमर में लपेट दिया और झटका देकर घोड़े पर से उठा लिया। घोड़ा पीछे रह गया। सागर सिंह ने इस वज्रपाश में से निकलने, खिसकने की बहुत कोशिश की परंतु वह सफल हो सका। उसने अपने दांतों को अपने काम में लाने का प्रयत्न किया। रानी ने तुरंत कहा, “सावधान, यदि मुँह खोला तो तलवार ठूँस दूँगी।

सागर सिंह को रानी और मुंदर के बल की प्रतीत हो गई और उसने अपनी रक्षा को अपने भाग्य के हवाले कर दिया। थोड़ी दूर चलने पर रानी के दस्ते के लोग सिमट आए। सागर सिंह उस वज्रपाश में से निकला और रस्सियों में बांध लिया गया। घोड़े पर लाद कर यह टुकड़ी एक जगह ठहर गई। मोतीबाई, काशी और सुंदर की बाट देखने लगी।रानी ने बिगुल बजवाया। वे तीनों थोड़ी देर में उस स्थल पर गई। मालूम हुआ कि बाक़ी डाकू निकल भागे। दीवान रघुनाथ सिंह को समाचार देकर रानी बरवासागर चली आईं। उन्होंने कहा,  “ये भागे हुए डाकू इस समय हाथ लगेंगे। समय काफ़ी हो चुका है। बरवासागर संध्या के पहले पहुँच जाना चाहिए।

रानी संध्या के पहले बरवासागर पहुँच गई। सागर सिंह सख़्त पहरे में रख दिया गया। रात होने के पहले रघुनाथ सिंह अपने दल समेत गया। 

रानी की बुद्धि और विकट वीरता की घर घर महिमा बखानी जाने लगी। दूसरे दिन गाँव गाँव में चर्चा फैल गई। 

समय पर सागर सिंह रानी के सामने पेच किया गया। उसने परनाम किया और पैर छूने के लिए हाथ बढ़ाने चाहे। पहरे वालों ने रोक लिया। 

रानी ने पूछा, “तुम्हारा नाम?”

उसने उत्तर दिया।, “कुंवर सागर सिंह, श्रीमंत सरकार।

रानी मुस्कराई, “सागर सिंह उस मुस्कुराहट से कांप गया।

रानी नेकहा, “कुंवर होकर यह निकृष्ट आचरण कैसा?”

सागर सिंह बोला, “सरकार, हमारा वंश सदा लड़ाईयों में भाग लेता रहा है। महाराजा ओरछा की सेवा में लड़ा महाराज छत्रसाल की सेवा में रहकर युद्ध किए। जब अंगरेज आए तब उनकी आधीनता जिन ठाकुरों ने स्वीकार नहीं की, उनमें हम लोग भी थे। हमको जब दबाया गया, हम लोग बिगड़ खड़े हुए और डाके डालने लगे। मैं अपने लिए और अपने साथियों के लिए गंगाजी की शपथ लेकर कह सकता हूँ कि हम लोगों ने स्त्रियों और दीं दरिद्रों की कभी नहीं सताया।

रानी ने कहा, “इन दिनों जिन लोगों पर तुमने डाके डाले वे सब मेरी प्रजा हैं, अंग्रेजों की नहीं। डाके के लिए दंड प्राणों का है। तैयार हो जाओ। तुम्हारे साथी भी बचेंगे और तुम्हारे और उनके घर। मिट्टी में मिलवा दूँगी।

सागर सिंह ने कनखियों रानी को देखा। उसने इतनी बड़ी, ऐसी करारी और प्रभावपूर्ण आँख देखी थी। उसको ऐसा लगा मानो साक्षात दुर्गा सामने खड़ी है।

सागर सिंह बोला, “सरकार, मैं कुछ प्रार्थना कर सकता हूँ?”

रानी ने अनुमति दी।

सागर सिंह ने प्रार्थना की, “मुझको प्राणदंड गोली या तलवार से दिया जाय, फाँसी से नहीं। यदि फाँसी दी गई तो मेरा और जाती भर का अपमान होगा। बाग़ी बढ़ जावेंगे। घटेंगे नहीं सरकार।

 रानी - “तुमको यदि छोड़ दूँ तो क्या करोगे?”

सागर सिंह - “श्रीमंत सरकार के सामने झूठ नहीं बोलूँगा। यदि काम मिला तो फिर डाके डालूँगा, परंतु सरकार के राज्य में नहीं।

रानी - “यदि मैं कहूँ कि तुम डाके बिलकुल डालो तो इसके बदले में क्या चाहोगे?”

सागर सिंह - “सरकार के चरणों की नौकरी, जहां रह कर लड़ाई में कल की अपेक्षा अधिक पराक्रम दिखला सकूँगा।

रानी - “तुम्हारे साथी कितने हैं?”

सागर सिंह - “जंगल में १५,१६ थे। गाँवों में ६०।६५ हैं और अदृष्ट सहायक मेरे सब नातेदार।

रानी - “वें लोग क्या करेंगे?”

सागर सिंह - “सरकार की आज्ञा हुई तो सरकार की सेना में मेरे साथ नौकरी।

रानी -  “यदि मैंने आज्ञा दी तो?”

सागर सिंह - “सरकार के राज्य के सिवाय और सब जगह उनकी बग़ावत का अधिकार क्षेत्र चाहूँगा।

रानी - “तुमको मैं इसी समय छोड़ दूँ तो सीधे कहाँ जाओगे?”

सागर सिंह- “सरकार झाँसी।

रानी - “तुम सबसे बड़ी सौगंध किसकी मानते हो?”

सागर सिंह - “गंगा जी की। सरकार के चरणों की, अपनी तलवार की।

Rani - “मैं तुमको छोड़ती हूँ सागर सिंह। सौगंध खाओ और पाने साथियों सहित झाँसी की सेना में भर्ती हो जाओ।

सागर सिंह ने सौगंध खाई। रानी ने उसको छोड़ दिया। वह उसके पैरों में गिर पड़ा। हाथ जोड़ कर बोला, “सरकार मैं झाँसी चलूँगा। वहाँ सेना में भर्ती होने के उपरांत घर लौटूँगा और अपने साथियों को बटोर कर झाँसी ले आऊँगा। और उन सबको भर्ती कराऊँगा।

नहीं सागर सिंह”, रानी ने कहा, मैं बरवासागर तब छोड़ूँगी जब तुम्हारे सब साथी मेरे सामने जाएँ और सौगंध खा जाएँ नहीं तो मैं उनको पकडूँगी और दंड दूँगी।

मेरा नाम कुंवर सागर सिंह नहीं जो मैंने सरकार के सामने सबों को पेश किया।सागर सिंह ने दम्भ को दबाते हुए कहा।

आँख में झेंप थी।

रानी ज़रा हँसी। सोचने लगी।

बोली, “तुमको कुँवर शब्द से सम्बोधन करने के पहले मेरा एक और सामंत इस पदवी के पाने का पात्र है। वही जो तुमको पकड़ने के लिए तुम्हारी हवेली में पहुँच गया था और जिसको तुमने घायल कर दिया था।

सरकारसागर सिंह बोला, “उस दिन यदि मैंने उस सामंत को घायल कर पाया होता तो मैंने किसी प्रकार भी बच पाता।

रानी - “वह यही है। अभी अस्वस्थ है।

सागर सिंह -“मैं उसके दर्शन करना चाहता हूँ। क्षमा माँगूँगा।

रानी ने खुदाबख्श की कुशलवारता मँगवायी। वह एक सिपाही का सहारा लेकर गया। सागर सिंह ने उसको अभिवादन किया। 

रानी ने कहा, “क्या हाल है?”

खुदाबख्श ने उत्तर दिया।इतने बड़े स्वामी की रक्षा होते हुए हाल बुरा नहीं हो ही सकता। जिस समय सरकार के पराक्रम की बात मालूम हुई उसी समय दुःख दर्द एक स्वप्न सा हो गया।

रानी ने कहा, “तुमने सुन लिया होगा कि मैंने अपराधी को छोड़ दिया है।

खुदाबख्श बोला, “मैंने सरकार की दया का सब हाल सुन लिया।

रानी ने कहा, “ आज से तुम कुंवर खुदाबख्श कहलाओगे और यह कुंवर सागर सिंह। जितने लोग अनोखी सूरवीरी के काम करेंगे, वें सब कुंवर कहलावेंगे और उनका वर्ग कुंवर मंडली के नाम से राज्य के काग़ज़ पत्रों में संबोधित होगा।

खुदाबख्श गदगद हो गया। पैर छुए और बोला, “सरकार कुंवर मंडली का नाम सच्चा तब होगा जब कदमों की सेवा करते हुए हम सबके सिर कटे।

रानी ने कहा, “जाओ कुंवर खुदाबख्श आराम करो।

खुदाबख्श बोला, “माता का आशीर्वाद मिल गया अब आराम ही आराम है।

सागर सिंह रानी ने कहा, “तुम्हारा नाम हमारे कगासों में कुंवर युक्त लिखा जावेगा, परंतु मुझको बारबार कुंवर, राव, दीवान इत्यादि कहने में अड़चन जान पड़ती है। क्या बुरा मानोगे?”

सागर सिंह का गला रुद्ध हो गया। जिस मनुष्य ने एक दीर्घ समय डकैती और बटमारी में बिताया था उसको जान पड़ा मेरे भीतर कुछ पवित्र भी है।

हाथ जोड़कर बोला, “नहीं सरकार, कभी नहीं। यदि मेरा आधा नाम ही लिए जाएगा तो बहुत है। मुझको क्षमा किया जाय।

कुंवर रघुनाथ सिंह ने कहा, “जब हम लोग पूरे कुंवर की पदवी पर पहुँच जावेंगे तब हमारा नाम आधा लिया जावेगा।


57

बरवासागर में रानी कुल पंद्रह दिन रही। सागर सिंह का पूरा गिरोह हथियार डालकर उनकी शरण में गया और सेना में भर्ती हो गया।

खुदाबख्श चंगा तो उसी दिन से हो चला था, अब स्वस्थ हो गया। रानी झाँसी ससैन्य लौट आई। लोगों की छाती रानी के पराक्रम से उमंग उठी।

नवाब अली बहादुर रानी को बधाई देने आए। इत्रपान लेकर चले गए। काम से काम मोतीबाई को उनकी बधाई की सच्चाई में विश्वास नहीं था। 

अली बहादुर और पीर अली में सलाह हुई।

अली बहादुर - “पीर अली यह वही सागर सिंह है, जो झाँसी का जेल तोड़कर भाग था। रानी ने उसी को नहीं बल्कि उसके सारे गिरोहि डाकुओं को, फ़ौज में भर्ती कर लिया है। यह सब सरकार बहादुर के ख़िलाफ़ तैयारी का सबूत है।

पीरअली - “और हुज़ूर, तुर्रा यह कि उनके नए पुराने कामदार  अंग्रेज सरकार को इस धोखे में रखना चाहते हैं कि झाँसी का राज नवाब गवर्नर जनरल बहदुर की तरफ़ से किया जा रहा है और रानी साहब तो केवल मुंतज़िम हैं।

अली बहादुर - “ असली बात की तो इत्तला जबलपुर पहुँचनी चाहिए, जैसे हो तैसे।

पीर अली - “हुज़ूर का हुक्म हो तो मैं चला जाऊँ। मगर मेरे जाने से शक हो जावेगा।

अली बहादुर - “माल का सरिश्तेदार रानी के बुरे सलूक की वजह से नाराज़ है। वह इस काम के करने के लिए तैयार हो जावेगा। अगर जाए तो खर्च में दे दूँगा।

पीर अली - “मैं चाहूँगा। मैं माँ जाएँगे। उनको टीकमगढ़ होकर भेजा जाए। वहाँ से दीवान नत्थेखां की चिट्ठी और उनके कुछ आदमियों को साथ लेते जावे, क्योंकि रास्ते में ख़तरा है।

अली बहादुर - “बिलकुल ठीक है। तुमने इस बात को तलाश किया कि झाँसी ख़ास में रानी के ख़िलाफ़ कितने आदमी हैं?”

पीर अली - “”ऐसे किसी ख़ास आदमी का नाम नहीं ले सकता। मगर औरतों में रानी साहब ने जो इतनी आज़ादी फैला रक्खी है वह ज़रूर बहुत लोगों को खटकती है।

अली बहादुर - “रानी ने ख़िलाफ़ बहुत लोग होंगे, मगर तुमको वे लोग रानी का आदमी समझने लगे हैं इसलिए अपने माँ की बात नहीं बतलाते।

पीर अली - “ऐसी हालत में कम से कम कुछ ऐसे आदमी हुज़ूर के पास तो ज़रूर आते, जो रानी से बैर मानते हो।

अली बहादुर - “हो सकता है। सम्भव है। काम से काम सरिश्तेदार वग़ैरह उनके बहुत ख़िलाफ़ हैं।

नवाब अली बहादुर ने सरिश्तेदार को इस प्रपंच के लिए राज़ी कर लिया अपनी चिट्ठी दी। वह पहले टीकमगढ़ गया। टीकमगढ़ से उसने आदमी लिए और रुपया भी। दीवान नत्थेखां को अली बहादुर की योजना पसंद आई। उसने अली बहादुर के पास अपना एक विश्वस्त आदमी भेजा। उसके द्वारा परस्पर सहायता देने की बात निश्चित हो गई।  नवाब साहब को आशा हो गई कि किसी दिन नत्थेखां झाँसी पर आक्रमण करेगा। वे उस दिन कि बात जोहने लगे।

ओर्छे के राजा भारतीचंद के पीछे सन १७७६ में विक्रमाजीत राजा हुए। राज्य की बहुत हीन अवस्था हो गई थी। राजा के पास केवल ५० सैनिक, हथी और घोड़े रह गए थे। छः सात बरस में इन्होंने अपने राज्य का फ़िट विस्तार कर लिया। राजधानी टीकमगढ़ में क़ायम की। सन १८१२ में अंग्रेजों से संधि हुई। इन्होंने अपने जीवनकाल में अपने लड़के धर्मपाल को गद्दी दे दी, परंतु उसका देहांत हो गया और फिर बहुत वृद्धावस्था में मार गए। इनके भाई ने वर्ष राज्य किया। सन १८४१ में गद्दी ख़ाली थी। धर्मपाल की विधवा रानी लड़ई दावेदार हुई। सुजान सिंह उक्त वृद्ध राजा के भतीजे थे। उनकी रानी लड़ई से झगड़ा था। वें झाँसी चले आए। राजा रघुनाथ वाले महलों में, नई बस्ती में, गंगाधर राव ने इनको ठहराया था। अली बहादुर को अपना ठौर छोड़ना पड़ा था, इसलिए उनके मन में झाँसी के राजा के प्रति क्षोभ और भी सघन हो गया था। सुजान सिंह के देहांत के बाद सन १८५४ में रानी लड़ई को गोद लेने की अनुमति मिल गई और उन्होंने हमीर सिंह को गोद ले लिया। सन ५७ के विप्लव के समय रानी लड़ई हमीर सिंह की ओर से अभिवावक थी और नत्थेखां मंत्री था। इधर उधर से कुछ अंग्रेज अफ़सर भागकर टीकमगढ़ आए। राज्य ने उन्हें शरण दी। 

इन लोगों की सलाह से अली बहादुर की चिट्ठी जबलपुर भेज दी गई और एक खस दूर द्वारा इनको बहला भेजा कि झाँसी में अपने अनुकूल एक गिरोहबंदी कर लो, एकाध झँगड बखेड़ा हो जाय तो और भी अच्छा, हम ठीक मौक़े पर टीकमगढ़ से सेना लेकर आते हैं। नत्थेखां ने तैयारी शुरू कर दी।

अली बहादुर को ख़ुशी हुई। मुहर्रम आने वाला था। उपयुक्त अवसर की कमी ना थी। पानी खूब बरस कर यकायक रुक गया। बादल खुल गए। दिन को कड़ी धूप, रात को धुले हुए निर्मल तारे और शीतल पवन। जनता दिन में परिश्रम करती संध्या समय आमोद प्रमोद। रात को गहरी नींद में सो जाती। 

उसके नीचे को सुरंग तैयार की जा रही थी उसका बिचारी जनता को पता ना था। 

हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफ़ी संख्या में बसे थे। कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम, जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इसमें भी उन्नाव दरवाज़े की तरफ़ मेवाती और बड़ागाँव दरवाज़े के निकट पठान। इन मुहल्लों में केवल मुसलमान ही बस्ते थे - मराठे, ठाकुर तेली, काछी इत्यादि हिंदू बीच बीच में। बड़ेगाँव दरवाज़े मस्जिद थी और थोड़ी दूर पर बिहारी जी का मंदिर। हिंदू और मुसलमान, सब अपने अपने विश्वास के अनुसार परम्परा क्रमागत त्योहारों को मनाते आए थे कभी कोई झंझट खड़ा नहीं हुआ था। 

उस साल डाल एकादशी और मुहर्रम एक ही दिन सोमवार को पड़े। सुन्नी मुसलमान -१० दिन पहले से ताजियों की तैयारी में लगे - अबकि साल उनको ताज़िये और भी अधिक धूमधाम के साथ निकालने थे क्योंकि उनकी झाँसी स्वतंत्र हो गई थी, उनको रानी राज्य कर रही थी। मंदिरों में भी खूब नाच और गान के साथ माँ की ओह प्रस्फुटित हो रही थी। इन दिनों भी झाँसी के मंदिरों में जो नित्य नई सजावट की जाती है उनकोघटाकहते हैं। किसी दिन नीली घटा, किसी दिन पीली घटा और किसी दिन कोई और। सारे मंदिर में एक ही प्रकार के रंग के वस्त्र और फूल। यह सब कई दिन एकादशी तक चलता रहा। सोमवार के रोज़ शाम के समय ताज़िये दफ़नाए जाने को थी और उसी समय विमानों का जल विहार होना था। यदि दोनो धर्म वालों में मेल-जोल हो तो मज़े में सब रस्में निभा ली जाएँ, और यदि एक दूसरे से अनमने हों, तो एक दाग भी रखने को जगह नहीं। 

मोतीबाई और जूही जैसे दिवाली मनाती थी वैसे ही ताज़ियेदारी भी करती थी।और उसी उत्साह के साथ वे मुरली मनोहर के मंदिर में, जिस समय रानी दर्शन के लिए जाती थी, नृत्य और गान भी करती थी - उन्ही दिनों मुहर्रम के जमाने में! परंतु उनके इस कार्य पर मुसलमान किसी प्रकार का आक्षेप नहीं कर रहे थे, क्योंकि वे प्रायः रानी के साथ रहा करती थी।

दुर्गाबाई सुन्नी मुसलमान थी। वह भी ताजियादारी करती थी और नाचना उसका पेशा था। मंदिरों में उसके नृत्य की माँग थी। वह मंदिरों में नृत्य के लिए जाने लगी।

कुछ मुसलमानों को असंगत लगा। चर्चा शुरू हो गई। इस चर्चा में पीर अली ने प्रधान भाग लिया। 

सवेरे का समय था। ठंडी हवा चल रही थी, धूप में तेज़ी आयी थी। हलवाइयों की दुकान पर ताजी मिठाइयाँ थालों में सजती और बिकती चली जा रही थी। दूसरी ओर मालिनी की, फूलों से भरी हुई दलिया थोड़ी ही देर में ख़ाली होने को थी। 

दुर्गा नर्तकी ने हलवाई के यहाँ से मिठाई ली और माल्किं के याहन से फूल। मार्ग में एक जगह ठेवा लगा। पैर में ज़रा सी चोट आई। साथ ही मिठाई के दोने में कुछ सामान नीचे जा गिरा। उसका मुँह बिदरा। पास से जाने वाला एक आदमी हँस पड़ा। दूसरे का कष्ट उसका विनोद बना। और भी कुछ लोग हँसे। एक ने कहा, “उठा लो दुर्गा नीचे पड़ा हुआ सामान, वह भी एक अदा ही होगी।

अरे रे मुझको तो लग गई तुम हंसते हो।दुर्गा हँसती हुई बोली।वही पीर अली भी था। वह भी हँसा था।

अभी कुआँ हुआ दुर्गा बाई जीपीर अली ने कहा, “जैसा करोगी वैसा पाओगी।

बात कुछ नहीं थी, परंतु दुर्गा को आग सी लग गई। पीर अली शिया था। उसकी व्यर्थ बात में कोई गूढ़ प्रच्छन्न व्यंग्य अवगत करके बोली, “तुम कहाँ के दूध के धुले हो मियाँ। किसी दिन तुमको भी ख़ुदा ऐसा समझेगा कि याद करोगे।

पीर अली - “मैं तुम सरीकी औरत को मुँह नहीं लगाना चाहता, अपनी राह देखो।

दुर्गा - “तुम्हीं मुँह लगने को फिरते हो। मैंने तो ऐसों पर लानत भेजती हूँ।

पीर अली - “ख़बरदार जो बदज़बानी कि। जीभ काटकर फेंक दूँगा।

दुर्गा - “हाँ बल पोरस औरतों पर ही चलाने आए हो पर आए हो पर मेरी ज़बान काटने आओगे तो मैं कौन तुम्हारी जीभ की पूजा करने बैठ जाऊँगी। जानते हो किसका राज है?”

पीर अली दांत पीस कर रह गया।

कुछ लोगों नेजाओ जाओ”, रहने दो रहने दोकहा।

ऊपर से झगड़ा रफ़ा दफ़ा हो गया लेकिन भीतर भीतर आग सुलग उठी।

एक सुन्नी औरत ने, सो भी नर्तकी, वेश्या ने, एक शिया मर्द पर, मुहर्रम के दिनों में लानत भेजी।

शिया सुन्नियों के झगड़े का इस अत्यंत क्षुद्र घटना के कारण सूत्रपात हुआ।

शिया लोग घरों में चुप चाप मातम मानते हैं। सुन्नियों में भी मातम मनाया जाता है। परंतु ताजिया इत्यादि बनाने की कोई पाबंदी नहीं। तो भी बनाए जाते थे और धूम धाम के साथ निकाले जाते थे।

रघुनाथ राव के समय में अली बहदुर का बहुत प्रभाव था। शिया थे। कदाचित इसलिए भी राज्य की ओर से ताजियों की कोई धूमधाम नहीं की जाती थी। अली बहादुर का प्रभाव उठ गया था, परंतु ताजिया सम्बन्धी परम्परा अवशिष्ट थी। शिया अपने ताज़िये चुपचाप निकल ले जाते थे और उनका समय भी सुन्नियों के ताजियों के निकालने के समय से टंकार खाता था। परंतु एकादशी के दिन डोल भी निकालने थे। दिन ने। दिन ही में शिया सुन्नियों के ताज़िये भी निकालने थे। दोपहर दोपहर तक दोनो फ़िर्कों के ताज़िये निकल जाए और बहे से विमान निकले, यही योजना सम्भव जान पड़ती थी। पर शिया सुन्नी इस पर राज़ी नहीं दिखलाई पड़ते थे। दीवान ने समझाने बुझाने और मनाने की कोशिश की। विफल हुआ। 

तज़ियादर कहते थे - “हमारा ताजिया तीसरे नम्बर पर उठा करता है। पहले नम्बर वाला पहले उठे और चल पड़े और उसके पीछे दूसरे नम्बर वाला, हम तुरंत उसके पीछे हो जाएँगे।

हमारा पहला नम्बर ज़रूर है, परंतु ताजिया हमारा हमेशा तब उठा है जब शियों के ताज़िये निकल गए। आप कहते हैं कि नाउ बजे से ताज़िये निकालना शुरू कर दो। हम तैयार हैं, परंतु शियो के ताज़िये पहले निकलवा दीजिए।

और शियों के ताज़िये उतने सवेरे निकल नहीं सकते थे। विवश कोई किसी को कर नहीं सकता था। धर्म का मामला ठहरा।

अच्छा यही था कि यह झंझट दो दिन पहले खड़ा हो गया था। 

शिया लोग अपने ताज़िये यदि आतुरता के साथ बड़े भोर निकाल भी ले जाते तो भी इसमें संदेह था कि सुन्नी अपने ताज़िये हर साल के समय के प्रतिकूल दफ़ना देते या नहीं।

पीर अली इस झंझट में कहीं भी ऊपर नहीं दिखलाई पड़ता था, परंतु भीतर भीतर उसकी उत्प्रेरणा मौजूद थी।

जब दीवान समस्या को हल कर सका तब उसने कोतवाली से पुराने काग़ज़ मँगवाए। परंतु पुराने काग़ज़ विप्लव के आरम्भ में ही भस्मीभूत हो चुके हैं - और उनसे कुछ सहायता मिल भी नहीं सकती थी। दीवान हैरान था।

निदान मामला रानी के सामने पहुँचा।

हिंदू-मुसलमानों की भीड़ इकट्ठी हो गई। 

रानी ने समझने का यत्न किया। लड़ाना भिड़ाना चाहती तो सहज ही ऐसा कर सकती थी, परंतु वे तो मेल कराने पर तुली हुई थी। 

जब वे कोई सुझाव देती तो सबबहुत ठीक सरकार, बहुत ठीक सरकारकह देते और थोड़ी देर चुप रहने के बादकिंतु’, ‘परंतुकरने लगते।

रानी ने यकायक कहा, “क्या इतने हिंदू-मुसलमानों में कोई ऐसा नहीं जो इस कठिनाई को हाल कर दे?”

महल के पड़ोस में एक बढ़ई रहता था। वह आगे आया। उसने विनय की, “सरकार मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ।

रानी - “कहो।

बढ़ई - “सरकार राम और रहीम सबसे बड़े हैं। उसी तरह उनका मंदिर विमान से बड़ा और इनकी मस्जिद ताज़िये से बड़ी। मस्जिद में रहीम की पूजा की जाती है। मैं मस्जिद बनकर ठीक समय पर निकाल दूँगा। सब ताज़िये उसके साथ निकल जाना चाहिए। आगे पीछे का कोई सवाल नहीं खड़ा होता।

सुन्नी ताजियेदार सहमत हो गए।

मस्जिद बेशक सबसे बड़ी।

मस्जिद ज़रूर सबसे आगे रहेगी।

मस्जिद के पीछे पीछे हम सबके ताज़िये चलेंगे।

उस बढ़ई ने दो दिन के भीतर काग़ज़ और भोड़र की एक सुंदर मस्जिद बनाई। एकादशी के दिन ठीक समय पर सब ताज़िये निकल गए। सबसे आगे बढ़ई की मस्जिद थी। हिंदुओं के विमानों को निकालने में कुछ विलम्ब हो गया, परंतु इसका किसी ने बुरा मान। इस प्रकार वह उठता हुआ तूफ़ान बिना प्रयास के ठंडा हो गया।

परंतु दूसरा तूफ़ान जो उठ खड़ा हुआ था बैठ सका। 

नत्थेखां ने तैयारी कर ली थी। झाँसी में झगड़ा खड़ा हो जाता। तो अच्छा ही था, नहीं खड़ा हुआ तो भी उसको प्रहार करना ही था। वह एकादशी के दो दिन बाद ओरछा में ससैन्य गया। तीसरे दिन अनंत चतुर्दशी थी। 

अनंत चतुर्दशी के दिन भोर होते ही नत्थेखां का दूत दीवान के पास आया।



Part #17 ; Part #19 

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