Jhansi Ki Rani - Lakshmibai #17 - Vrindavan Lal Verma
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सब कर्मचारियों को अपने अपने विभागों को दृढ़ता और सावधानी के साथ सम्भालने और चलाने का आदेश रानी के कर दिया।
सवेरे से ही रिसाले और पैदल पलटनों की क़वायद और निशानेबाज़ी शुरू हो गयी। समय पर बिगुल बजा और ठीक समय पर सब काम हुआ और होता रहा। सेना में लगभग सब पुराने सिपाही आ गए। नई भर्ती भी बहुत हुई। सब जातियों और वर्गों के आदमी लिए गए। रानी की हिदायत थी कि सेना को सारे राज्य की जनता अपना समझे और यह तभी हो सकता था सब जातियों के लोग रक्खे जाते।
झाँसी का राज्य लेने पर अंग्रेजों ने लगभग सब पुरानी तोपों को कीलें ठोक कर, बेकार कर दिया था। तोपों के ढालने के कारखानों को चालू करने का कार्य तुरंत शुरू कर दिया गया। गोले गोलियाँ बनाने का, तलवारें बंदूक़ें, पिस्तौलें इत्यादि तैयार करने का भी काम जारी हो गया। परंतु नए हथियारों का कारख़ानों से बनकर निकलना शीघ्र सम्पादित नहीं हो सकता था। इसलिए रानी ने, जहां मिले, पुराने हथियार इकट्ठे किए। जनता ने जी खोलकर रुपया दिया।
ग़ुलाम गौसखां ने दो दिन में तोपों को ठीक कर लिया। कुछ तोपें गड़ी हुई पड़ी थी। उनको भी सम्भाल लिया।
यह अच्छा हुआ क्योंकि राज्य को हाथ में लेने के ठीक पाँच दिन बाद (१३ जून की रात को) रानी को मोतीबाई ने खबर दी कि करारे के क़िले पर सदाशिवराव नेवालकर। ने हमला किया है और काफ़ी सेना इकट्ठी कर ली है।
सदाशिवराव झाँसी की गद्दी का दावेदार था। झाँसी में ही रहता था। ३१ मई की हलचल की उसको खबर थी। वह अपनी लुडिया मारने के लिए झाँसी से निकल गया। गाँव में लोग क्रांति के लिए तैयार थे ही, बहुत से मनचले नौजवान हथियार बांधकर सदाशिव के साथ हो गए।
करेरा में थानेदार और तहसीलदार अंग्रेजों की ओर से नियुक्त थे। उनको सदाशिव ने मार भगाया। तुरंत अड़ोस पड़ोस के जागीरदारों से रुपया वसूल किया और दो एक दिन के भीतर ही अभिषेक करवा लिया। पदवी धारण की- महाराजा श्री सदाशिव नारायण! और प्रसिद्ध किया कि मैं ही झाँसी राज्य का सच्चा और सही अधिकारी हूँ। गाँव गाव में अपने ‘महाराज’ होने के घोषणा पात्र भिजवाए।जिसने उसको झाँसी का राजा ना माना उसकी तुरंत जायदाद ज़ब्त कर ली। ऐसे सपाटे के साथ कदम बढ़ाया मानो दो चार हफ़्ते में ही सारे हिंदुस्तान का चक्रवर्ती हो जाएगा।
उसने समझा झाँसी अनाथ है - एक महज़ अल्प वयस्क स्त्री के हाथ में है।
खबर पाते ही रानी ने तैयारी कर दी। नगर का प्रबंध मज़बूत था ही। उत्तर, पूर्व और दक्षिण के भागों का शीघ्र संतोष जनक प्रबंध कर लिया। करेरा पश्चिम में था। गड़बड़ केवल इसी दिशा में ‘महाराजा’ सदाशिव के कारण थी।
झाँसी की सेना अधकचरि थी, परंतु सेनापति चतुर और उत्साही थे। करेरा कूच करने के पहले तीनों सहेलियों से मुस्कुराकर रानी ने कहा, “तुम तीनों कर्नलों की परीक्षा महाराजा सदाशिव नारायण के सामने होगी।”
मुंदर बोली - “यदि महाराजा साहब हमारे जनरल का नाम सुनते ही भाग गए तो?”
रानी हँसी। जैसे मोतियों ने आभा बरसाई हो। काशी शांत प्रकृति की होते हुए भी बहुत हँसी।
रानी ने कहा, “काशी, मैं बिलकुल पीछे रहूँगी। तुमको आगे जाकर लोहा लेना पड़ेगा।”
काशी बोली, “बाई साहब, उस समय या तो आपका घोड़ा न मानेगा या आप न मानेंगी।”
रानी ने काशी के कंधे की चुटकी भारी और कहा, “तेरी एक बात तो सच्ची हो गई। उस दिन तूने कहा था - जवाहर सिंह सेनापति होगा। सो हो गया। अब देखूँ करेरा के समबंध में मुंदर की बात ठीक निकलती है या नहीं। युद्ध होगा।”
“सरकार” , “मुंदर उत्साह के साथ बोली, अबकी बार मेरी वाणी सच्ची होगी।”
“तो अपने हाथ से लड्डू बनकर खिलाऊँगी”, रानी ने कहा।
मुंदर को उन थाल भर लड्डुओं की याद आ गई जो रानी ने अपने हाथ से उस दिन बनाए थे और रघुनाथ सिंह इत्यादि को खिला दिए थे।
रानी ने कूच कर दिया।
वें इतने वेग के साथ अपने घुड़सवारों को लेकर करेरा पहुँची कि ‘महाराज’ सदाशिवराव को लड़ने तक का मौक़ा नहीं दिया!
रानी ने पहुँचते ही करेरा के क़िले को ऐसा घेरा कि सदाशिव ने मुश्किल से भाग कर अपनी जान बचा पाई। सिंधिया के राज्य में, नरवर में, जाकर दम ली।
वहाँ से सदाशिव ने सिंधिया से सहायता की याचना की। ग्वालियर से थोड़ी साई सहायता आई थी। परंतु रानी ने सदाशिव को नरवर में घेर लिया - और पकड़ कर झाँसी ले आई। झाँसी के क़िले में क़ैद कर दिया।
मुंदर ने कहा, “बाईसाहब, मेरी भविष्यवाणी कैसी अक्षर अक्षर सत्य निकली?”
काशी बोली, “और मेरी भी। मैंने कहा न कि बाई साहब सबसे आगे होगी।”
रानी ने का, “मेरे दोनो कर्नल सच्चे।” सुंदर ने अपनी सुंदर आँखों से ज़रा तृष्णा प्रकट की।
रानी बोली, “तू भी नाम करेगी सुंदर। अबकी तेरी बारी है।”
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कानपुर की सेना के जनरल व्हीलर ने क़िलेबंदी की और उसके अंदर अंग्रेजों को बाल बच्चों सहित ले गया।
नाना ने व्हीलर को चेतावनी दी कि शाम तक आत्मसमर्पण कर दो वरना क़िले पर हमला किया जावेगा। व्हीलर ने नहीं माना। क़िलेबंदी का मुहासिर कर दिया गया और गोले बरसाए जाने लगे। व्हीलर भी खूब लड़ा। २१ दिन युद्ध हुआ।
इलाहाबाद में भी विप्लव हो गया था। बंगाल की ओर से जनरल नील फ़ौज लेकर आया। उसने अत्यंत निर्दयता के साथ मार्ग में पड़ते हुए ग्रामों को जलाया, अपराधी और निरपराधी ग्रामीणों की हत्याएँ की। जब इलाहाबाद के विजन से घबराकर हिंदुस्तानी पुरुष स्त्री और बालक नावों में बैठकर भागे उसके सैनिकों ने गोलबारी की और उनमें से अधिकांश को मार दिया। इतना अन्याय और ऐसा नरसंहार किया कि सर्वत्र सनसनी, भय और क्रोध फैल गया। कानपुर में भी नील और उसके सहयोगियों के नृशंस कुकृत्यों के समाचार पहुँचे। आग सी लग गयी।
हिंदू मुसलमान स्त्रियों के भी कलेजे दाहक उठे। अजीजन नाम की एक वेश्या घोड़े पर सवार, तलवार बांधे शहर की गलियों और छावनी में उत्तेजना और प्रोत्साहन देने के लिए दौड़ धूप करने लगी।
व्हीलर ने लखनऊ से सहायता माँगी। लखनऊ खुद घिरी हुई थी। सहायता न आई। व्हीलर ने अपनी क़िले बंदी पर सलाह का सफ़ेद झंडा गाड़ दिया।
इसी समय इलाहाबाद के आस पास से नील की पलटन के विभत्स अत्याचारों के समाचार आए। हिंदुस्तानी सेना क्रोध में और भी पागल हो गयी।
कानपुर की घिरी हुई अंग्रेज सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। उनको इलाहाबाद भेज देने के लिए ४० नावें तैयार करा दी गई। नाना अपने बिठूर वाले महल में था। सिपाहियों ने ग़ुस्से में आकर अंग्रेज पुरुषों को मार डाला। इस क्रूर दुष्कृत्य के उपरांत उन लोगों ने स्त्रियों और बच्चों का वध करना चाहा, परंतु नाना को खबर लग गयी और उसने तुरंत प्रयत्न करके इनको बचा लिया। फिर कुछ समय उपरांत जब इनको नावों में बिठला कर इलाहाबाद की ओर भेजा जा रहा था। सिपाहियों ने, नाना की आज्ञा बिना, बाली उसकी आज्ञा के प्रतिकूल, क़त्ल करके अपने को कलंकित किया।
कानपुर के कुल अंग्रेजों में से एक स्त्री और चार पुरुष बचकर निकल पाए थे।
इन घटनाओं ने अंग्रेज और हिंदुस्तानी की परस्पर हिंसा को बेहद बढ़ा दिया।
लखनऊ में विप्लव ३० मई को आरम्भ हुआ था। अवध भर में विप्लव की आग फैल गई। तो भी कई स्थानों पर विप्लवकारियों ने अंग्रेज स्त्री और बच्चों की प्राणपण से रक्षा की।
इलाहाबाद को क़ब्ज़े में करके नील लखनऊ की ओर बाधा और जनरल हैवलॉक कानपुर की ओर।
अवध अदम्य जान पड़ता था।
पंजाब की छावनियों में भी गड़बड़ हुई, लेकिन उसको दबाने में अंग्रेजों को ज़्यादा मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा।
झाँसी के वीपलब का समाचार सागर और बुंदेलखंड के अन्य ज़िलों में पहुँचा। गार्डन के सरिश्तेदार ने सागर चिट्ठी भेजी, जिसमें अंग्रेजों की ओर से रानी द्वारा झाँसी का प्रबंध किए जाने की ओर संकेत था। सागर ने अंग्रेजों को यह भी विदित कर दिया कि झाँसी के अंग्रेज स्त्री पुरुषों और बालकों की हत्या में रानी का बिलकुल भी हाथ नहीं था। इस चिट्ठी के पहुँचने पर सागर के अंग्रेज सावधान हुए, परंतु वे विप्लव को थोड़े समय तक ही रोकने में सफल हो पाए।सागर की एक हिंदुस्तानी पलटन विप्लव में शामिल हो गई। दूसरी पलटन सरकार भक्त बनी रही।
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विंध्यखंड की समग्र जनता में सनसनी फैली हुई थी। यहाँ की जनता ने कभी किसी अत्याचारी का शासन आसानी के साथ नहीं माता। स्वाभिमान को आघात पहुँचा कि व्यक्ति ने सिर उठाया और हथियार हाथ में लिया। शयस भारत का यही खंड एक ऐसा है जहां डाकू को ‘बाग़ी’ कहते हैं।
विंध्यखंड छोटी- बड़ी रियासतों में बिखरा हुआ था। सब बड़ी बड़ी रियासतें कम्पनी सरकार का साथ दिए थी। बानपुर और शाहगढ़ साधारण राज्य थे। ये राज्य विप्लव में शामिल हुए।
रानी को इन दोनो राजाओं के स्वाधीनता- प्रिय विचारों का पता था। इन दोनो को उन्होंने स्वराज्य-स्थापना के संग्राम में भाग लेने के लिए पात्र भेजे। वें दोनो लड़ने के लिए उद्यत हो गए।
बानपुर राज्य के राजा मर्दन सिंह ने अपनी सेना को लेकर सागर ज़िले में प्रवेश किया और खराई तहसील तथा नरयावली के परगने पर अधिकार कर लिया। इसके उपरांत वह झाँसी ज़िले के दक्षिण में ललितपुर आया और चन्देरी की ओर बाधा। चन्देरी अंग्रेजों के अधिकार में थी। वहाँ विप्लव नहीं हुआ था।
वहाँ के हाकिम परगना को राजा मर्दन सिंह के आने की खबर एक चन्देरी निवासी ने ड़ी। वह कचहरी में था। रेड टेपिज़्म (लाल फ़ीता-ज़ाब्ता) का पुजारी था।
खबर देने वाले ने कहा, “साहब बलवा हो गया है। फ़ौज चढ़ी चली आ रही है।”
साहब उपेक्षा के साथ बोला, “अर्ज़ी लिखवाकर लाओ। ज़बानी नहीं सुना जाएगा।”
थोड़ी देर में राजा मर्दन सिंह आ गया। उसने बिना किसी अर्ज़ी दरख़्वास्त के चन्देरी को घेर लिया और बिना किसी अर्ज़ी पुर्ज़ी के चन्देरी में अंग्रेज़ी शासन को ख़त्म कर दिया।
गढ़ का राजा बखतबली था। उसने भी विप्लव किया।
सागर, दमोह, जबलपुर के ज़िले में विद्रोहियों की संख्या बहुत बढ़ गई।दमोह ज़िले के तो समस्त लोढ़ी क्रांति में सम्मिलित हो गए। ये सब शाहगढ़ के राजा के साथ थे। उससे लड़ने के लिए सागर के पलटन आई, पर राजा बखतबली ने उसको आसानी से हारा दिया। इस राजा के एक सरदार बोधन दौआ ने गढ़ा कोटा पर चढ़ाई की और उस पर अधिकार कर लिया। राजा मर्दन सिंह चन्देरी को अधिकृत करके सागर लौटा। उसी समय जबलपुर की हिंदुस्तानी पलटन ने भी विप्लव कर दिया। अंग्रेजों ने पन्ना राज्य से सहायता माँगी। पन्ना के राजा ने अंग्रेजों की सहायता के लिए अपनी काफ़ी सेना भेजी।पन्ना की सेना ने विप्लवकारियों को दमोह के ज़िले में पराजित किया और अंग्रेजों की ओर से दमोह का शासन किया। पन्ना की सेना जबलपुर की विप्लवकारिणी पलटन से भी लदी और उसको भी हरा दिया।
झाँसी के चारों ओर दूर और पास, इसी प्रकार की परिस्थिति थी। इस परिस्थिति में रानी लक्ष्मीबाई झाँसी में एक सुदृढ़ स्फटिक साई थी। झाँसी ज़िले में उन्होंने प्रबलता के साथ शांति स्थापित की।
उनकी दिनचर्या वैसे ही नियम संयम के साथ चली जा रही थी। उनकी चर्या में केवल दो अंतर आते। एक तो वे सुबह के नित्य कृत्यों और पूजा ध्यान के उपरांत राज्य के कर्मचारियों को मिलने और उनकी समस्यायों को सुनने के लिए समय देने लगी, दूसरे ठीक तीन बजे के पश्चात वे कचहरी करने लगी। बड़े और महत्वपूर्ण मुक़द्दमे वें स्वयं करती थी और तुरंत निर्णय कर देती थी। कभी कभी दंड भी स्वयं अपने हाथ हाथ से दे देती थी परंतु केवल उन मामलों में जिनमें किसी ने बालक या स्त्री को सताया हो।
वें कचहरी में टोपी लगाकर बैठती थी। भीतर लोहा ऊपर लाल रेशम। टोपी झालरदार मोतियों और जवाहरों की। कंठ में हीरों की माला। सुडौल और भरे हुए वक्षस्थल पर कचुकी, जी सुनहरी ज़रीदार कमर पेटी से कसी रहती थी। कभी साड़ी और कभी धेला पैजामा पहिन आती थी।
रानी के आसन के पास ही दीवान लक्ष्मण राव काग़ज़, कलम, दवात लिए बैठता था।
यद्दपि वह पढ़ा लिखा बहुत काम था, परंतु कह अपनी निरक्षरता को खूबी से छिपाए रहता था। कभी कभी रानी अपने हाथ से फैलसा लिखती थी और कभी बोल देती थी। लक्ष्मणराव लिखने का बहाना करता था और नीचे बैठे हुए मुसद्दियों से लिखवा कर झटपट मुहर लगा देता था!
आए गए की उनको ज़बरदस्त याद रहती थी। नित्य का आने वाला यदि एक दिन भी चूक जाय तो वह उसके आते ही ग़ैर-हाज़िरी का कारण पूछती थी, और समय की वे कठोर पाबंदी करती थी।
वर्षा का आरम्भ विलम्ब से हुआ, परंतु प्रचण्डता के साथ। फिर भी उनके कार्यों में शिथिलता न आई - घोड़े की सवारी करने से ज़रूर विवश थी।
ऐसी ऋतु में प्रायः डकैती बटमारी बंद हो जाती है, परंतु इन्ही दिनों उनको सूचना मिली कि बरवासागर के पास सागर सिंह कुंवर सागरसिंघ डाकू ने लगातार कई डाके डाले हैं और बरवासागर का थानेदार उसका कुछ नहीं कर पा रहा है। रानी ने तुरंत निश्चय किया। मोतीबाई द्वारा खुदाबख्श को बुलवाया।
आने पर खुदाबख्श से कहा, सागर सिंह का शीघ्र दमन किया जाना चाहिए।”
खुदाबख्श ने हाथ जोड़कर स्वीकार किया।
रानी - “तुम इसी समय २५ सिपाही लेकर बरवासागर जाओ और सागर सिंह को जीवित या मृत ले आओ। उसकी दुष्टता के कारण बरवासागर और बरवासागर का त्रस्त और संतप्त हो उठा है। इस काम को कितने दिन में पूरा कर सकोगे? - एक महीने में?”
खुदाबख्श - “श्रीमंत सरकार, जितनी जल्दी हो सकेगा उतनी जल्दी। केवल वर्षा की कठिनाई है।”
रानी - “परंतु सागर सिंह को वर्षा कोई विघ्न बाधा नहीं पहुँचाती।”
खुदाबख्श - “सरकार ~~~”
रानी - “कहो कहो।”
खुदाबख्श - “सरकार, ये लोग कुछ ग्रामीणों से मिलकर बनियों महाजनों को लूटते हैं और सघन जंगलों में भाग कर छिप जाते हैं।”
रानी - “पानी बरसते घने जंगलों में नहीं मिलेंगे बल्कि अपने अड्डों पर। कुछ और सिपाही चाहिए हों तो ले जाओ।”
खुदाबख्श - “नहीं सरकार इतने ही बहुत हैं। यदि अटक पड़ेगी तो समाचार दूँगा।”
खुदाबख्श चला गया।
रानी ने अपनी सहेलियों से एकांत में सलाह की।
रानी ने प्रश्न किया, “खूब बरसते पानी में घोड़ा दौड़ सकोगी?”
मुंदर ने उत्तर दिया, “दौड़ लूँगी। अभ्यास तो किया है।”
“तुम सुंदर, और काशीबाई?” रानी ने पूछा।
उन दोनों ने भी हाँ भारी, परंतु काशीबाई की हाँ में कुछ अस्वस्थ रही हैं इसलिए वह महल में ही रहेगी और यहाँ का काम काज देखेगी। मेरी अनुपस्थिति का समाचार झाँसी से बाहर न जाने पावे। खुदाबख्श के बरवासागर पहुँचने के बाद किसी दिन हम लोग यहाँ से चलेंगे।”
खुदाबख्श उसी दिन चला गया। संध्या तक बरवासागर पहुँचा। भीगा हुआ और भूखा। परंतु उसको मानसिक क्लेश कुछ न था।
ज़रा सुस्ता कर भोजन किया। थानेदार से सागर सिंह की गतिविधि पर बात चीत की। खुदाबख्श झाँसी से वह ख़याल ले कर आया था कि बरवासागर का थानेदार क़िंकर्तव्य विमूढ़ हो गया है, परंतु उसका यह भ्रम निकला। सागर सिंह बहुत चालाक और बड़ा साहसी था। उसके साथ उत्पातियों का काफ़ी बड़ा गिरोह था। बरवासागर का थाना प्रयास करने पर भी उसके कार्यक्रम में बहुत काम बाधा डाल सकता था।
सागर सिंह का घर रावली ग्राम में, बरवासागर से पाँच छः कोस की दूरी पर था, परंतु वह घर पर रहता बहुत काम था।
खुदाबख्श को बरवासागर आकर अपने आसामी की विकटता का पता लगा। और अधिक सिपाही मँग़ाने में नाक सी कटती थी। समय केवल एक महीने का था। मोतीबाई की याद आई। अपने जादू से शायद वह कुछ कर डालती। तुरंत उसके मन ने इस कल्पना को धिक्कारा।
दूसरे दिन बादल ज़रा खुला। भरे भरे सांवले धूँधरे बादल आते और चले जाते थे। एकाध फुहार छोड़ जाते। नादिया नाले भरे, इठलाए हुए और सवेग। खुदाबख्श ने बरवासागर के थानेदार, उसके सिपाहियों और अपने सिपाहियों को लेकर सवेरे ही रावली की ओर दौर कर दी। छिपे लुके, भीगे और कीचड़ में लथपथ, बन्दूकों को कपड़ों से ढके, जेबों में भुने चने और प्याज़ भरे। ये लोग दुपहरी में रावली के गेवड़े पाहुँच गए। खेतों में कोई काम नहीं हो रहा था, इसलिए मार्ग में किसी से भेंट नहीं हुई। सब लोग गाँव में थे और पानी के खुलने की मना रहे थे। सागर सिंह भी घर पर था।
सागर सिंह का मकान ऊँची टौरिया पर था। सागर सिंह खाना खाने के बाद झपकी ले रहा था। झकोरों हवा चल रही थी और कभी कभी फुहार पड़ जाती थी, इसलिए खुदाबख्श के दल का शब्द नहीं सुनाई पड़ा।
जब तक गाँव वाले सागर सिंह को सचेत करें कि खुदबख्श ने सागर की हवेली घेर ली। उसको फाटक लगवा लेने का अवसर मिल गया। हवेली में उसके कुछ आदमी थे, वे सब जल्दी तैयार हो गए।
सागर सिंह को आश्चर्य था की कुऋतु और कुसमय पर किसने घेरा डालने की हिम्मत की। दीवारों के तीरकशों में होकर उसने परख लिया कि घेरने वालों के साथ टोप नहीं है और वे केवल घर में घुसकर ही नुक़सान पहुँचा सकते हैं। सोचा शाम तक यूँ ही पड़ा रहने दूँ और देखता रहूँ, फिर उसको ख़याल आया कि घेरने वाले रानी के सिपाही होंगे और इनकी पीठ पर कुछ बल कहीं और लगा होगा। इसलिए उसने तुरंत लड़ डालने की ठानी। वह जानता था घेरने वाले अधिक समय तक बंदूक़ नहीं चला सकेंगे और वह स्वयं सूखी जगह में बैठकर बहुत अच्छा और बड़ी देर तक लड़ सकेगा।
हवेली टौरिया की ठीक चोटी पर न थी किंतु अपराधी से ज़रा ऊपर, खुदाबख्श ने इस स्थिति का लाभ उठने का प्रयत्न किया, परंतु सागर सिंह की पहली बाढ़ ने ही खुदाबख्श के कई सिपाहियों को घायल कर दिया। खुदाबख्श ने तुरंत हवेली पर चढ़ जाने की आज्ञा दी। स्वयं आगे हो गया। जब तक सागर सिंह फिर बन्दूकों को भरे, खुदाबख्श हवेली पर चढ़ गया और उसके कई साथी भी। सागर सिंह ने फिर बाढ़ दागी, परंतु ख़ाली गई।
सागर सिंह ने समझ लिया कि अब गए। उसने तलवार हाथ में ली। खुदाबख्श और इसके साथी आँगन में कूद पड़े।
सागर सिंह का मुक़ाबला न हो सका। खुदाबख्श घायल होकर गिर पड़ा। और सागर सिंह उसके साथियों को चीरता हुआ बाहर निकल गया। तब खुदाबख्श के अन्य सिपाही फाटक से होकर भीतर आ गए।
खुदाबख्श और उसके साथियों ने गाँव में टिकना ठीक नहीं समझा। खुदाबख्श बैलगाड़ी से रात होते बरवासागर आ गया।
घाव बहुत गहरे न थे, परंतु थे कई, खून काफ़ी निकल चुका था। उसकी और उसके घायल सिपाहियों की मरहम पट्टी की गई। रात में खुदाबख्श को बेहोशी रही। सवेरे रानी के पास समाचार भेज दिया गया।
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मेघ छाए हुए थे।हवा सन्न थी। पानी रिमझिम रिमझिम बरस रहा था। महल के ऊपरी खंड के हवाई कमरे में रानी आँखें मूँदे हुए मोतीबाई के भजन सुन रही थी। मुंदर जमुहा रही थी। सुंदर बैठे बैठे सावधानी के साथ निद्रामग्न हो गई थी। काशी सचेत थी।
भजन की समाप्ति पर रानी का ध्यान टूटा, मुंदर की जमुहाई हटी। परंतु सुंदर की निद्रा समाधि भंग न हुई।
रानी ने हँस कर कहा, “सुंदर देख यह भालू कहाँ से आ गया है?’
सुंदर हड़बड़ा गई। भौंचक्की हो कर बोली, “कहाँ है बाई साहब?”
“ढूँढ तो पता लग जाएगा, रानी ने कहा,”साधारण भालू तो है नहीं।”
सुंदर लज्जित हो गयी।
हाथ जोड़ कर बोली, “सरकार दिन भर की थकी थी, इसलिए अभी अभी थोड़ी सी नींद आ गई।”
काशीबाई -“सरकार, यह आज दिन भर चक्की चलाती रही है, इसलिए बहुत थक गयी।”
सुंदर -“नहीं काशी बाई, चक्की नहीं चलाई तो और काम तो बहुत किया है।”
मुंदर -“तुम अकेली ने?”
उसी समय पहरे वाले ने निवेदन किया, “बरवासागर से एक सिपाही आवश्यक समाचार लाया है।”
रानी ने दूसरे कमरे में उसको बुलवाया। उनका आदेश था कि आवश्यक समाचार के लिए समय- कुसमय न देखा जावे और उनको तुरंत सूचना दी ज़ाया करे।”
रानी सहेलियों के साथ दूसरे कमरे में गई।”
समाचार वाहक ने कहा, “सरकार, रावली ने बाग़ियों से सरदार खुदाबख्श की लड़ाई हुई। वे घायल हो गए हैं। सात सिपाही भी घायल हुए हैं। सरदार को तलवार के घाव लगे हैं और सिपाहियों को गोलियों के। भगवान की कृपा से मरे कोई नहीं हैं। और, न किसी के लिए इस तरह का भय है। सागर सिंह भाग गया है। लड़ाई रावली में सागर सिंह के घर पर हुई थी।”
मोती का चेहरा पीला पड़ गया था।
रानी ने पूछा, “रावली बरवासागर से कितनी दूर है?”
उसने उत्तर दिया, “पाँच छः कोस है सरकार। जासूस ने पता दिया कि सागर सिंह अपने घर है। सरदार ने धावा बोल दिया।”
रानी - “खुदाबख्श को कहाँ चोट आई है और अब क्या हाल है? लड़ाई को कितने दिन हो गए?”
उत्तर -“लड़ाई को आज चौथा दिन है। घाव बाहों और जाँघों में हैं सुर पर भी एक वार है। अच्छे हो रहे हैं। सिपाहियों के घाव अलबत्ता ज़्यादा गहरे हैं।”
रानी - “तुमको समाचार लाने में इतना विलम्ब क्यों हुआ?’
उत्तर - “बेतवा इतनी चढ़ी हुई है कि नाव नहीं लग सकी, सरकार आ दोपहर कुछ उतरी तब आ पाया हूँ।”
रानी - “प्रबंध करती हूँ। तुम जाओ।”
रानी अपने कक्ष में लौट आयी।
रानी ने कहा, “कल बरवासागर चलना चाहिए।”
काशी बोली, “सरकार न जाए। कुछ ठीक नहीं किस समय ज़ोर से पानी बरस पड़े, नदी चढ़ आवे। उस दिन जब आपने बरवासागर जाने का निश्चय किया, मैं कुछ न कह सकी थी, परंतु आज तो मैं हाथ करूँगी।”
रानी सोचने लगी। उन्होंने मोतीबाई की उदासी देख ली, और पहिचान ली।
रानी- “तुम ठीक कहती हो काशी। परंतु स्थिति की माँग हम पर प्रबल है। यदि कल पानी न बरस तो अच्छे घोड़ों पर चल देंगे। हथी भी जा सकता है, परंतु में इस समय प्रदर्शन बचाना चाहती हूँ, और वह सवारी बहुत धीमी भी है।”
मोतीबाई - “लूँगी। दीवान रघुनाथ सिंह को सवेरे सूचना दे देना।”
काशीबाई - “मैं भी चलूँगी।”
रानी - “चलना, मैं क्या रोकती हूँ?’
मोतीबाई - “आज्ञा हो तो मैं भी चलूँ।”
रानी - “नाव न लगी तो घोड़े पर नदी पार कर लेगी?”
मोतीबाई - “सरकार की सेवा में रहते, मुझको आग पानी, किसी का भी डर नहीं रहा।”
रानी ने स्वीकृत किया।
रात में पानी थोड़ा थोड़ा बरसता रहा। सवेरे बदल खुला सा दिखलाई दिया। रानी सहेलियों समेत बरवासागर की ओर चल ड़ी। पच्चीस घुड़सवार साथ में ले लिए। दीवान रघुनाथ सिंह संग में। शीघ्र ही घात पर यह दस्ता पहुँच गया। देखे तो बेतवा दोनो पाट दाबे वेग से चली जा रही है।
ऊपर ज़्यादा पानी बरस गया था, इसलिए बेतवा बेतहाशा इठला गई। हवा, आँधी के रूप में चल रही थी। मल्लाहों के लिए नाव का लगाना असम्भव था। अनेक घुड़सवारों के दिल टूटने लगे।
उस पार की पहाड़ियों का लहरियादार सिलसिला हरियाली से धाक हुआ था। बदल के सफ़ेद धूमरे टुकड़े पहाड़ियों की चोटी और हरियाली को चूमने के लिए नभ से उतर उतर कर टकराते चले जा रहे थे। बेतवा का शोर आँधी का साथ पाकर तुमुल हो उठा।
रानी ने मुड़कर मोतीबाई की ओर देखा। वह उस पार की पहाड़ियों से टकराते हुए मेघ खंडों पर दृष्टि जमाए थी।
रानी ने आज्ञा दी, “कूद पड़ो।” और वे सबसे आगे घोड़े पर पानी में धँस गई।
फिर क्या था, उनकी सहेलियाँ और सब घुड़सवार धार को छेरते दिखलायी पड़ने लगे। रानी सबसे आगे।
बेतवा की धार पुंज के ऊपर पुंज साई दिखलाई पड़ती थी। करम अभग और अनंत सा। जब एक क्षण में ही अनेक बार एक जलपुंज दूसरे से संघर्ष खाता और एक, दूसरे से, आगे निकल जाने का अनवरत, अथक, अटूट प्रयास करता तब इतना फेनिल हो जाता कि सारी नदी में फेन ही फेन दिखलाई पड़ता था। झाग की इतनी बड़ी निरंतर बहती और उत्पन्न होती हुई राशियाँ आड़े आ जाती थी कि घुड़सवारों को सामने का किनारा नहीं दिखलाई पड़ पता था।
लहरों के एक पल्लाद को चीरा, उस पर के झाग को बेधा कि दूसरा सामने। शब्दमय प्रवाह की निरर्थक भाषा मानो बार बार कहती थी बचो, बचो। सामने की उथल पुथल से आगे बढ़े कि बग़ल से थपेड पड़ी। घोड़े आँखें फाड़े नथनों से जल फुफकारते बध रहे थे। वे अपना और अपने सवार का संकट समझ रहे थे। सवार के पैर घोड़े से चिमटे हुए और उनके पैरों के नीचे घोड़े की निस्तब्ध ताप। और ताप के नीचे? न जाने कितनी गहराई। सवारों के चारों ओर भँवरे पड़ पड़ जा रही थी। एक भँवर बनी, पार की, कि दूसरी तुरंत मौजूद। परंतु अपनी रानी और उनकी सहेलियों को आगे देखकर किस सिपाही के मन में अधिक समय तक भय ठहर सकता था?
रानी के घोड़े का केवल सिर ऊपर, शेष भाग पानी और झाग में। रानी की कमर तक झाग, पानी और धार के साथ बहकर आया हुआ झाड़ी झंकाड़। धार की बूँदों की झड़ी उचाट उचाट कर आँखों में, बालों पर और सारे शरीर पर बरस रही थी। जब कभी सिपाहियों और सहेलियों को उत्साह देना होता था तो हँस हँस कर शाबाशी देती - मानो प्रचंड बेतवा की मलिन अंजली में मुक्त बरस दिए हो। धूमरे बादलों की आगे एक ओर बगलों की पात निकल गई। मानो पहाड़ियों और पहाड़ियों से मिलने वाले बादलों को सफ़ेद खौर लगा दी हो।
पहाड़ों की कन्दराओं में घुसे हुए, उनको आच्छादित किए हुए बादलों में होकर वह बकुलावलि छिपती हुई सी मालूम पड़ी और फिर तितर बितर हुई। जैसे हिलती हुई साँवली सलोनी चादर में टके हुए सितारे। पहाड़ पर बड़े बड़े और सघन पेड़। गहरे हरे श्यामल। बगुले एक पेड़ पर जा बैठे मानो वनदेवी ने प्रभा छिटका दी हो। उस विषम धार के पार थोड़ी देर में किनारा दिखलाई दिया।
रानी फिर हँसी। बगलों की सफ़ेदी से रानी के दांतों ने तुरंत होड़ लगा दी।
चिल्लाकर बोली, “देखो किनारा आ गया। पड़ाव मार लिया।”
थोड़ी देर में पूरा दस्ता नदी पार हो गया। सब भीग गए थे परंतु पीठ पर केस ढके हुए हथियार लगभग सूखे थे। घोड़े ठिठुर गए थे।
घात पर कपड़े सुखाने, बदलने में, और घोड़ों को आराम देने में थोड़ा सा समय लगा।
फिर दौड़ लगी और रानी बरुआसागर के क़िले में दोपहर के क़रीब पहुँच गयी।
बरवासागर का क़िला विशाल झील के ठीक ऊपर है। झील में बरवा नाम का बड़ा नाला पड़ता है। झील को विशालता इस नाले ने ही दी है।
घायल सिपाही और खुदाबख्श इसी क़िले में पड़े हुए थे।
रानी ने तुरंत इन सबको देखा। किसी के सिर पर हाथ फेरा, किसी की मरहमपट्टी की देखभाल की। सिपाही अपनी रानी के शह को पाकर मुग्ध और गद गद हो गए।
फिर खुदाबख्श के पास पहुँची। खुदाबख्श ने चारपाई से उठने का प्रयत्न किया, परंतु न उठ सका।
रानी को देखते ही उसके आँसू आ गए। चरण स्पर्श करने की कोशिश की।
रानी ने सिर पर हाथ फेरा। चौकी पर बैठ गई। सहेलियाँ खड़ी थी। मोतीबाई सहेलियों के पीछे से खुदाबख्श को एकटक देख रही थी। खुदाबख्श ने उसको देख लिए, परंतु आँखें उसकी मोतीबाई की ओर न थी।
खुदाबख्श ने रानी को सागर सिंह की लड़ाई का ब्योरेवार हाल सुनाया।
रानी - “कुछ पता चला सागर सिंह अब कहाँ चला गया है?”
खुदाबख्श - “सरकार गाँव वाले पता नहीं बतलाते। वे ही उसको शरण, भोजन इत्यादि सब देते हैं। इतना तो भी मालूम हो गया है कि वह पड़ोस के जंगल में है।”
रानी - “गाँव वाले डाकुओं से डरते हैं। उनके पास निर्भय होने का कोई साधन नहीं है। अंग्रेज़ी राज्य ने पंचायतों का सर्वनाश कर दिया है इसलिए गाँवों में परस्पर सहायता की प्रणाली उठ सी गयी है और उसने डाकुओं को सहायता देने ला रूप पकड़ लिया है। देखूँगी। तुम चिंता मत करो।”
खुदाबख्श - “अब सरकार स्वयं यहाँ आ गई हैं। मुझको किस बात की चिंता? घाव लगभग अच्छे हो गए हैं। एकाध दिन में ठीक हुआ जाता हूँ। फिर देखता हूँ सागर सिंह को।”
रानी ने उसको विश्राम करने का हठ किया। मोतीबाई को खुदबख्श के पास छोड़कर, क़िले के महल वाले हिस्से में चली गई। स्नान ध्यान में लग गई।
अब मोतीबाई की आँखें तरल हुई। रुद्ध कंठ मुखरित होने के लिए आकुल हो गया। खुदाबख्श ने देख लिया।
बोला, “यह क्या! आँखों में आँसू! आपको तो हर्ष और गर्व से हँसना चाहिए था। आपका क़ैदी - नहीं आपकी सरकार का सिपाही अपने मालिक के लिए कुछ तो कर सका।”
मोतीबाई ने आँख पोंछ कर कहा, “क्या दर्द बहुत है?”
खुदाबख्श ने जवाब दिया, “ज़रा भी नहीं। मालिक ने हाथ क्या फेरा, अमृत लुढ़का दिया। सच कहता हूँ, अभी ऊनी आज्ञा हो तो घोड़े पर बैठकर उस अत्याचारी से दो हाथ करूँ।” फिर उसने करवट लेने की कोशिश की। ज़रा कष्ट हुआ।
एक आ को दबा कर बोला, “जान पड़ता है कि श्रीमंत सरकार मेरे स्वस्थ हो तक नहीं ठहरेंगी।”
मोतीबाई ने सतृष्ण नेत्रों से कहा, “मैं भी उनके साथ जाऊँगी।”
खुदाबख्श ने आँख मींच ली। बोला, “आप भी जाओगी?”
“क्यों? मुझे क्या हुआ? उनकी छाया में आदमी आधी बन लाता है, तो औरत क्या आदमी भी नहीं बन सकती।”
मोतीबाई को रत्नावली नाटक में रंगमंच पर रत्नावली का अभीने करते देखा था। स्मरण हो आया। एक साथ कोमलता और प्रसूनों के चित्र आँखों में घूम गए। खुदाबख्श ने एक निश्वास लिया।
आँखें मूँदे ही बोला, “मेरी मरहम पट्टी के लिए रह जाना।”
मोतीबाई ने सस्नेह कहा, “सरकार से कह देना। मैं ख़ुशी से रह जाऊँगी।”
खुदाबख्श ने आँख खोली। भृकुटी भंग की। ज़रा रुखाई के साथ बोला, “श्रीमंत सरकार से भिक्षा माँगूँगी कि रत्नावली को सेवा टहल के लिए दे दीजिए।”
मोतीबाई ने उसको उपेक्षा की।
कहा, “रत्नावली कौन?’
खुदाबख़्सन को आश्चर्य हुआ। बोला, “क्या मैंने रत्नावली कहा?”
मोतीबाई हँसी। उसकी हँसी में चमत्कार था परंतु खुदाबख्श पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
मोतीबाई - “रत्नावली ही तो कहा। क्या कोई सपना देख रहे थे?”
खुदाबख्श - “वह सपना था। अब मीठा जागरण सामने है।”
मोतीबाई ने खुदाबख्श की आँखों में स्नेह को पकड़ने का प्रयत्न किया।
बोली, “तब मैं खुद तो उनसे नहीं कह सकूँगी। वह सोचेगी, मैं बहुत टुच्ची हूँ।”
“जी हाँ”, खुदाबख्श ने ज़रा सा सिर उठा कर कहा, “आप चाहती हैं वह आपको बहादुर समझे और मुझे टुच्चा और निकम्मा।”
“मैंने यह तो नहीं कहा”, मोतीबाई बोली, “ख़ुदा करे आप जल्दी से अच्छे हो जावें”, और वह वहाँ से चली गई।
ऊपर की छत को घेरे हुए क़िले की दिवार थी। दिवार में मुँडेरदार खिड़की। उसमें होकर मोतीबाई झील की लहरों को परखने लगी - और रोने लगी। जब उसने रत्नावली का अभिनय किट था इतनी नहीं रोई थी।
नियंत्रण करने वह अपने काम में लग गई।
Part # 16 ; Part #18
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