Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 15 - Vrindavan Lal Verma
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जूही का छावनी में आना जाना बध गया। उसके नृत्य गान की कला में और भी मोहकता आ गयी। परंतु किसी सिपाही या अफ़सर में उसने अपने को बाल बराबर भी नहीं खोया। वें समझते थे कि जूही हृदय-हीन है।
जूही को हर पलटन में तीन तीन उपयुक्त अफ़सर ढूँढने में बहुत दिन नहीं लगे। उस अफ़सरों को यह भी मालूम हो गया कि हम लोगों को किसी दिन एक महान कार्य करना है, परंतु उनको ठीक ठीक यह नहीं मालूम था कि कब। जूही संयम नहीं जानती थी। कुछ और लोग जो पलटनों के लिए इसी कर्तव्य पर नियुक्त थे उनको भी मालूम न था, परंतु वे यह जानते थे कि जूही का काम, उसी योजना का एक अंग है, जिसका एक भाग उन लोगों का भी काम था। परंतु वे एक दूसरे से मिलते न थे। निषेध था।
एक दिन जूही के नृत्य गान का आनंद लेने के लिए कप्तान डनलप भी आ गया। एक क्षण के लिए जूही सकपकाई। परंतु उसने अपना नियंत्रण शीघ्र कर लिया और वह बहुत मज़े में नृत्य गान करती रही।असल में डनलप को उसने जासूस ने खबर दी कि छावनी में नर्तकियाँ आती हैं और अफ़सरों से दीन धर्म सम्बन्धी कुछ बातें भी किया करती हैं। इसलिए वह सहसा वहाँ आ गया था।
नृत्य गान से उसका मन शीघ्र ऊब गया, क्योंकि अधिकांश अंग्रेजों की तरह उसको भारतीय कलाओं के प्रति उपेक्षा थी। परंतु जूही बहुत सुंदर थी। उसको सहज ही विश्वास न होता था कि ऐसा सौंदर्य अपने परिधान में किसी छाल कपाट को छिपाए होगा। तो भी उसने सवाल किए -
डनलप - “तुम छावनी से कितना पैसा कमा ले जाती हो?”
जूही - “जब जो मिल जाय हुज़ूर।”
डनलप - “नाचने गाने के सिवाय कोई और पेशा करती हो?”
जूही - “नहीं तो। मैं अविवाहित हूँ। कुमारी।”
डनलप - “तुम लोगों के विवाह भी होते हैं?”
जूही - “ज़रूर। हम लोग तो केवल नाचने गाने का पेशा करती हैं।”
डनलप - “तुम रानी साहब के यहाँ भी नाचने गाने जाती हो? मैंने सुना है कि उनको गाना सुनने और नाच देखने का शौक़ है।”
जूही - “मैं वहाँ नहीं जाती। कभी नहीं गई। उनको भगवान के भजन सुनने का शौक़ है। नृत्य का कोई शौक़ नहीं।”
डनलप - “रानी साहब गाती हैं?”
जूही - “बिलकुल नहीं। मुझको क्या मालूम।”
डनलप - “रानी साहब ने तुमको घोड़े की सवारी नहीं सिखलाई?”
जूही - “मैं उनके पास कभी जाती ही नहीं। घोड़े की सवारी क्यों सिखलाती?”
डनलप - “और औरतों को तो सिखलाती हैं?”
जूही - “सुना है।”
डनलप - “मोतीबाई नाम की वेश्या को जानती हो?”
जूही - “वह वेश्या नहीं है, आपसे किसने कहा?”
डनलप - “मुझसे सवाल करती है! जानती है धक्के देकर निकलवा दूँगा।”
जूही - “मैंने आपका क्या बिगाड़ा है?”
डनलप - “अच्छा हटो। आगे कभी छावनी में मत आना।”
जूही ने मुँह उदास बना लिया और वह चली गई। परंतु डनलप के ओट होते ही उसके होठों पर, गाली पर, मुस्कुराहट की छटा छा गई। उसको याद आ गया - “एक दिन आवेगा जब फूलों की महक और देश की मुक्ति का सम्मेलन होगा।”
वह चाहती थी कि धक्के देकर निकाली जाती तो अच्छा होता, उसके शरीर से, कहीं से, थोड़ा सा खून निकल पड़ता तो और भी अच्छा होता।
नर्तकी चली गई, परंतु उसका सौंदर्य डनलप के भीतर एक कोने में हल्की छाप, एक तीस, छोड़ गया। उस टीस ने सिपाहियों के प्रति क्षोभ का रूप पकड़ा।
डनलप बोला, “तुम लोग इन तके वाली औरतों के मोह में अपना पैसा और समय नष्ट करते हो। इन औरतों का झूठा जादू ही तुमको ईसाई होने से रोक रहा है। इन सैतानों को छोड़कर सच्चे धर्म पर ईमान लाओ, तो मुक्ति भी मिलेगी और पैसा अलग।”
पैसा और मुक्ति का घनिष्ठ सम्बंध सिपाही लोग बहुत दिनों से सुन रहे थे। पहले तो इस सम्बंध की बात पर उनको हंसी आया करती थी, अब वे खीजने लगे, जलने लगे। परंतु सिपाहियों ने चुपचाप सुन लिया।
डनलप ने सोचा उसकी बात घर कर रही है।
डनलप कहता गया, “तुम्हारे देवी देवता सब बदसूरत और व्यर्थ हैं। उन पर विश्वास करने के कारण तुम मूर्ख बने हुए हो। इसलिए तुम्हारी तरक़्क़ी नहीं हो पाती। ईसाई होते ही तुमको एक ईश्वर और उसके एक पुत्र पर ही विश्वास लाने की ज़रूरत है। दुनिया भर की डाकिनी, पिशाचिनी और भूत प्रेतों से पीछा छूट जावेगा। हिंदू मुसलमान सब बेवक़ूफ़ हो। इंजील पढ़ो तो आँखें खुल जावेंगी।”
सिपाहियों ने इस पर भी कुछ नहीं कहा।
डनलप बोला, “रिसालदार, तुमको खुद ईसाई धर्म क़बूल करना चाहिए, वरना तुम्हारे हक़ में अच्छा नहीं होगा। जैसे ही कोई ईसाई अफ़सर मिला, तुम बर्खास्त कर दिए जाओगे।”
रिसालदार ने कहा, “जो हुकुम।”
डनलप समझा, “रिसालदार ईसाई होने के लिए लगभग राज़ी हो गया है।
पूछा, “कब तक?”
रिसालदार ने उत्तर दिया, “कुछ महीनों की ही कसर है हुज़ूर!”
डनलप इस वाक्य के भीतरी अर्थ को नहीं समझा।
डनलप के जाते ही सारा सिपाही समाज व्यंग्य और क्षोभ में प्रमत्त हो गया। सुरीली और रूप वाली नर्तकी के अपमान का उनको रंज था। अपने धर्म की अवहेलना पर उनको क्रोध था और अंग्रेज के मुँह से रानी का नाम तक लेने पर, उनको क्षोभ था।
“उस बेचारी को धक्के देकर निकालने की धमकी दी। बड़ा हूश है।”
“अरे पाजी है। कहता है, धर्म-ईमान छोड़ दो। ये शराबी कबाबी धर्म-ईमान को क्या जानें?”
“मेरी तबियत में तो आ गया था कि पौदों पर दुलत्ती कस दूँ।”
“ज़रा ठहरो। समय आ रहा है। फ़िलहाल मनाही है। सहते जाओ। थोड़ी सी कसर रह गयी है। हमारे मुखिया लोग इलाज सोच रहे हैं।”
“ख़ाक सोच रहे हैं। जब धर्म न रहेगा, मंदिर मस्जिद साफ़ हो जावेंगे, तब हाकिम जी इलाज करने आवेंगे।”
“कारतूस फिर जारी किए गए हैं। सुनता हूँ, कलकत्ते के कारख़ाने में लाखों करोड़ों की तादाद में बनाए जा रहे हैं और एक अंग्रेज या ईसाई को चार आना सेर के हिसाब से, गाय और सुअर की चर्बी इकट्ठी करके कारख़ाने में देने का ठेका भी दे दिया गया है।”
“आने दो आने दो कारतूसों को। जीते जी तो उन कारतूसों को छुएँगे नहीं। और यदि खोलने के लिए मजबूर किए गए, तो पहली गोली इस पाजी डनलप पर।”
“ईश्वर एक है सो तो बिलकुल ठीक है। न हिंदू इसके ख़िलाफ़ कुछ मानते हैं और न मुसलमान। लेकिन ईश्वर के एक ही बेटा हुआ हुआ यह कुर्सीनामा इस डनलप को कहाँ से मालूम हुआ?”
“जिस कारख़ाने से भ्रष्ट कारतूस निकले, उसी से इस तरह का मज़हब निकला होगा।”
“हमारे यहाँ ईसा को पैग़म्बर माना गया है, लेकिन ख़ुदा का बेटा नहीं माना गया।”
“उसके बेटे तो मियाँ हम सब लोग हैं।”
“यह डनलप असल में अपने और अपने अंग्रेज भाइयों के सिवाय किसी को ख़ुदा का बेटा नहीं मानता।”
“हाय न जाने वह दिन कब आवेग!”
“बहुत दिनों अपने ही भाइयों से लड़े और इन लोगों के बहकाने से उनको तबाह किया।”
“कहते हैं हमारा नमक खाते हो, नमक की बजाना- हम कहते हैं नमक तुम्हारे बाप का है?”
“बेशक है। ये लोग अगर कुर्सीनामे में से साबित कर दे कि ये ख़ुदा के नाती पोते पंती वंती कुछ हैं तो बेशक हैं।”
“यह तो हम लोग साबित कर सकते हैं क्योंकि हम उसकी पूजा करते हैं, उसके कदमों में नमाज़ कहते हैं, लेकिन ये लोग - मौक़ा मिला और शराब गटकी, क्लब घर में पहुँचे और नाचे मटके। इतवार को गिरजा में सातवें दिन जाकर तौबा कर्ली और फिर वही रफ़्तार जारी।”
“कूड़ा हम साफ़ करें और मोटी मोटी तनख़्वाह ये मारें।”
“हम हिंदुस्तानी सिपाहियों की बारक देखो और इनके बंगले। हमारी रोटी, चपाती और डाल देखो और इनके अंडे बिस्कुट। हमारी छोटी सी तनख़्वाह देखो और इनका मुहरों का ढेर, जो रोज़ रोज़ विलायत चला जा रहा है।”
“और इन बदमाशों की ‘डैमफूल’। तहज़ीब के साथ बात करना जानते ही नहीं। इनका मुल्क तो बिलकुल हब्शी है।”
“सबको तबाह कर दिया। झाँसी की देवी को देखो, किस मुसीबत में अपने दिन गुज़ार रही हैं।”
“मियाँ तुमने देवी सच कहा। एक दिन कमासिन टौरिया की तरफ़ घोड़ा दौड़ाए जा रही थी। मेरी आँखों में चकाचौंध लग गयी। जी चाहता था कि पैर छू लूँ।”
“सच कहता हूँ डनलप सरीखे शेखीबाज़ों को तो वह एक तमाचे में ढीला कर दे।”
“न जाने वह दिन कब आवेगा कि फिर रानी का झंडा क़िले पर फहरावें।”
“क़िले में गोरों की वसीगत देखकर मेरा तो खून जल उठता है।”
“लोगों को क़िले में जाने की मनाही है।”
“जब हमारा राज हो जावेगा, हम इन लोगों को क़िले की हवा के पास भी न फटकने देंगे।”
“महीना, तारीख़, वक़्त कुछ मुक़र्रर हुआ?”
“चुप चुप, अभी नहीं। ठहरे रहने का हुक्म है। इंतज़ार करने का।”
“अब तो साहा नहीं जाता। कब तक अपने धर्म और मज़हब की तौहीन बरदास्त करते रहें?”
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सन १८५६ में ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्णधार, भारतवर्ष भर को ओर से लेकर छोर तक, ईसाई बनाने के स्वप्न देखने लगे थे। अस्पृश्य चर्बी वाले कारतूसों की वास्तविकता को, स्वयं कई ज़िम्मेदार अंग्रेज़ लेखक स्वीकार करते हैं। यह ठीक है कि उनके बैंड करने का प्रयत्न किया गया, परंतु वह था शिथिल।
कम्पनी के बोर्ड के चेयरमैन तो उस स्वर्ण घड़ी की प्रतीक्षा में आँखें अटकाए हुए थे, जब सारा भारतवर्ष - हिंदू और मुसलमान - अपने धर्म को छोड़कर कम्पनी के धर्म को कबूल करके शासन सत्ता को प्रलय पयंत, अपने कंधों पर धारण किए रहे।
परंतु इंग्लैंड के कुछ लोगों को भारत में आने वाली विपत्ति के बादल का एक छोटा सा टुकड़ा दिखलाई पड़ने लगा था। उनके मुनीम डलहौज़ी ने दुकान को भारत में इतना काफ़ी पसारा दे दिया था, कि ऐन उनको रोकर बाक़ी खींचने और बहिखाता सम्भालने के लिए भी, उनको कुछ समय चाहिए था। इसलिए डलहौज़ी को बुलाकर कैनिंग को भेजा।
कैनिंग ने विपत्ति के बादल के उस टुकड़े को स्पष्ट देख लिया। परंतु उसको आत्मविश्वास था इसलिए वह भारत में आया, और आने पर ईसाई मत प्रचार के लिए एक काफ़ी रक़म हिंदुस्तान के ख़ज़ाने से निकाल कर रख दी। पंजाब को कम्पनी भक्त समझा जाता था। ईसाईयत की प्रचार वेग से वह भी न बचा।
इधर नाना साहब, तात्या, बहादुर शाह और उनकी बेगम ज़ीनत महल, अवध की बेगम हज़रत महल और रानी लक्ष्मीबाई का व्यापक और सूक्ष्य प्रचार जारी था, स्वाधीनता के युद्ध के लिए क्षेत्र तैयार हो रहा था, थोड़ी सी ही कसर थी जब नियत दिन और समय पर एक साथ सम्पूर्ण हिंदुस्तान में विस्फोट होना था। वह दिन और समय अभी नियुक्त नहीं हुआ था।
सन १८५७ का जनवरी मास आ गया। दमदम की छावनी में एक घटना हो पड़ी।
एक मेहतर ने ब्राह्मण सिपाही से पानी पीने के लिए लोटा माँगा। ब्राह्मण सिपाही मेहतर को लोटा ऐसे देता! वह मेहतर हो या ना हो प्रचारक अवश्य था।वह भाग या हटा नहीं। दृढ़ता पूर्वक डेटा रहा।
बोला, “ओहो, जातपात का यह घमंड! आ रहे हैं कारतूस जिनको दांत से खोलना पड़ेगा। उनमें सुअर और गाय की चर्बी लगी है। देखें तुम्हारी जाट उन कारतूसों के प्रयोग के बाद रहती है या जाती है।”
“कारतूसों की सनसनी चाल तो बहुत दिनों से रही थी और अकेले डैम दम में नहीं किंतु लगभग सारी छावनियों के हिंदुस्तानी सिपाहियों में। दमदम में कारतूसों के बनाने का कारख़ाना था और उन दिनों बहुत संख्या में कारतूस बनाए भी जा रहे थे। इसलिए ब्राह्मण सिपाही के मन में यह भर्त्सना खप गई। वह अपने बेड़े के अन्य सिपाहियों से कहता फिर। क्षोभ फैलता गया और बढ़ता गया। सिपाहियों की बात उनके अंग्रेज अफ़सरों तक पहुँची। उन्होंने इसको महज़ गप बतलाया। सिपाहियों ने कारख़ाने के हिंदुस्तानी मज़दूरों से तलाश किया। उन्होंने बात को सच बतलाया। दमदम के इन सिपाहियों ने हज़ारों चिट्ठियाँ हिंदुस्तान भर की छावनियों में भिजवायीं। सिपाही कुछ कर उठने के लिए बेचैन हो उठे।
झाँसी की छावनी में भी चिट्ठी आई। आश्चर्य होता है कि थोड़े दिनों में ये चिट्ठियाँ गुप्त रूप में कैसे सर्वत्र फैल गई। जूही इत्यादि अब छावनी में आ जा नहीं पाती थी, पर उनके पता देने वाले लोग छावनी के सम्पर्क में थे।
रानी को इस घटना का समाचार मिल गया। उनको चिंता हुई कहीं ऐसा ना हो कि ये लोग कुसमय कुछ कर बैठें।
वसंत पंचमी हो चुकी थी। फ़रवरी का महीना था। चाँदनी डूब चुकी थी। रात बिलकुल अंधेरी। हवा ठंडी मंद मंद। तारे दमक रहे थे। कुछ बड़े बड़े, असंख्य छोटे छोटे। जैसे चाँदनी अपनी चादर छितरा कर छोड़ गयी हो। नीचे सघन अंधकार। सब दिशाओं में गुलाई सी बांधें हुए। झींगुर झंकार रहे थे।
रानी को नींद नहीं आ रही थी। कठिन व्यायाम से तप्त देह को ठंड भली लग रही थी। खिड़की खुली हुई थी। उसमें से कई बड़े बड़े तारे दिखलाई पद रहे थे। झींगुर की झंकार के ऊपर दूर से आने वाला किसानों और चरवाहों के फाग-गीत का सवार सुनाई पड़ जाता था।
रानी ने सोचा, “क्या ये लोग ईसाई बना लिए जावेंगे? ईसाई होने पर फिर क्या अपनी फागें गा सकेंगे? इनके बच्चे किल्ली डंडा और कबड्डी छोड़कर फिर क्या खेलेंगे? होली, दिवाली, दशहरा, ईद, सब यहाँ से चल देंगे? स्त्रियों का क्या होगा? ऐसी सुंदर वेश भूषा को छोड़ कर ये सब क्या किरानी पोशाक करेंगी? ईसाई आवागमन नहीं मानते, फ़िट मुक्ति का क्या अर्थ? और गीता, रामायण इत्यादि का क्या होगा?”
रानी बिस्तरों में बैठ गयी। निबिड़ अंधकार में भी महल के सामने वाला ऊँचा पुस्तक-भवन, अपनी थोड़ी सी रूप रेखा प्रकट कर रहा था।
“क्या वेद-शास्त्र, गीता, पुराण, दर्शन, काव्य ये सब व्यर्थ हो जाएँगे? जला दिए जाएँगे या फेंक दिए जाएँगे?”
रानी ने होंठ से होंठ दबाया। नथनों से भभक निकली।
“कदापि नहीं। कभी नहीं। मैं लदूँगी। उन ग़रीबों के गीतों की रक्षा के लिए। इन पुस्तकों के लिए और जो कुछ इनके भीतर लिखा है उसके लिए। ऋषियों का रक्त ऐसा हीन और क्षीण नहीं हो गया है कि उनकी संतान तपस्या न कर सके। कीड़ों मकोड़ों की तरह यों ही विलीन हो जाए।”
“नहीं कृष्ण अमर है। गीता अक्षय है। हम लोग अमिट हैं। भगवान की दया से, शंकर के प्रताप से मैं बतलाऊँगी कि अभी भारत में कितनी लौ शेष है। और यदि में इस प्रयत्न में मर गई तो क्या होगा। कोई दूसरा तपस्वी मुझसे अच्छा खड़ा हो जावेगा और इस भूमि का उद्धार करेगा। तपस्या का क्रम कभी खंडित नहीं होगा।”
रानी फिर लेट गयीं।
“ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः” सोचते हुए निद्रा लाने की चेष्टा करने लगी। इतने में पहरे वाली स्त्री द्वार के पास आकार खांसी। रानी ने अनसुनी कर दी। वह फिर खांसी। रानी बैठ गई।
पूछा, “क्या है?”
पहरे वाली भीतर आई।
उसने कहा, “श्रीमंत सरकार, मोतीबाई दर्शन के लिए आई है। मैंने मना किया। नहीं मानी। हठ कर रही हैं। कहती हैं आधी घड़ी का तुरंत समय दिया जाए। जैसी आज्ञा हो।”
रानी ने मोतीबाई को बुला लिया। पास काठ की एक चौकी पड़ी थी। मोतीबाई से उसी पर बैठने को कहा। वह नहीं बैठी।
बोली, “सरकार इस चिट्ठी को पढ़ लें।”
मोतीबाई दीपक उठा लाई। चिट्ठी पर किसी के हस्ताक्षर नहीं थे। उसमें लिखा था :-
“अब और नहीं साहा जाता। कब तक कलेजे में छुरी चुभाए रहे। उठो और धर्म के लिए कट मरो। थोड़े से विदेशियों ने इस विशाल देश को घेर रक्खा है। निकाल दो। देश को स्वतंत्र करो। धर्म की रक्षा करो।”
रानी - “यह चिट्ठी कहाँ मिली?”
मोतीबाई - “इस प्रकार की कई चिट्ठियाँ छावनी में आई हैं। मुझको भरोसे के लोगों ने आज दिन में बतलाया था। इस चिट्ठी को सरदार तात्या साहब ने दिया है।”
रानी - “तात्या टोपे! कहाँ हैं? झाँसी कब आए?”
मोतीबाई -“संध्या के समय आए और प्रातःकाल के पहले चले जाएँगे। वह इसी समय दर्शन करना चाहते हैं। बाहर खड़े हैं।”
रानी - “बाहरी कमरे में बिठलाओ। मैं आती हूँ।”
रानी ने सफ़ेद सदी पर एक मोटा सफ़ेद दुशाला ओढ़ और वह बाहरी कमरे में तात्या के पास पहुँची। मोतीबाई को रानी ने उसी कमरे में बिठला लिया।
रानी ने पूछा, “इस चिट्ठी का क्या प्रयोजन है? मुझको तो असमय जान पड़ता है।”
“हाँ बाईसाहब”, तात्या ने उत्तर दिया, इसीलिए ले आया हूँ। मोतीबाई ने बतलाया कि इस प्रकार की चिट्ठियाँ यहाँ की छावनी में भी आई हैं। सिपाहियों में बेहद जोश फैला हुआ है, परंतु न तो अभी कोई व्यवस्था हो पाई है और न काफ़ी संगठन हुआ है।
समय के पहले यदि विस्फोट हो गया तो अनेक सिपाही व्यर्थ मारे जावेंगे, असफलता और निराशा देश को दबा लेगी और न जाने कितने समय के लिए यह देश विपदग्रस्त हो जावेगा।”
रानी - “इसको रोकना चाहिए और संगठन शीघ्र कर लिया जाना चाहिए।”
तात्या - “रुपए पैसे की कोई असुविधा नहीं रही। काफ़ी समय तब लड़ाई चलाते रहने के लिए धन इकट्ठा हो गया है। बारूद का और शास्त्रों का बहुत अच्छा प्रबंध है। इसलिए जल्दी से जल्दी की जो हो सकती थी नियुक्त कर ली गई है। दिल्ली, लखनऊ इत्यादि वाले सहमत हैं। आपकी सहमति लेकर सवेरे के पहले रवाना हो जाऊँगा।”
“कौन सी तारीख़?” रानी ने प्रसन्न होकर पूछा।
“इक्तीस मई, ११ बजे दिन”, तात्या ने बतलाया।
रानी - “तीन चार महीने हैं। मुझको यह तारीख़ पसंद है। देश भर में सब जगह एक साथ?”
तात्या - “सब जगह एक साथ। तब तक हम लोग मनाते हैं कि सिपाही और जनता, आत्म नियंत्रण से काम लें।”
रानी - “मोतीबाई, अब तुम लोगों को ऐसे साधन काम में लाने पड़ेंगे, जिसमें छावनी में कोई भी उपद्रव उस दिन और उस समय तक न होने पावे। “
तात्या - “हर पलटन के तीन तीन अफ़सरों को इस तारीख़ और समय की सूचना कर दी जावे और उनको समझा दिया जावे कि तब तक सब प्रकार के अपमान चुपचाप सहते चले जावें। त्राण की घड़ी वही है और उनसे कह देना कि जब तक कमल का फूल छावनी में न आवे, किसी को भी तारीख़ और समय न बतलाया जावे और सिपाहियों को उत्तेजित होने से बरकाया जावे। कमल का फूल वैशाख से खिलने लगता है। प्रत्येक तालाब में काफ़ी मिलता है वह ठीक समय पर छावनी से छावनी घुमाया जावेगा। उसका आना समग्र सिपाहियों को कर्तव्य के लिए जाग्रत करना है और तारीख़ तथा ११ बजे के समय की सूचना देना है।”
मोतीबाई - “मैं अच्छी तरह समझ गई।”
रानी - “अब कहाँ जाओगे?”
तात्या - “ग्वालियर। वहाँ से राजपूताने की ओर। एक चक्कर चैत के उपरांत और लगेगा। नाना साहब तीर्थ यात्रा के लिए निकलेंगे। उसी की आड़ में सब कार्यक्रम हर जगह बतला आवेंगे।”
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फ़रवरी में एक दुर्घटना हो गई। बारकपुर की १९ नम्बर पलटन को कारतूस प्रयोग करने के लिए दिए गए। सिपाहियों ने प्रयोग करने से दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया। बंगाल में उस समय कोई गोरी पलटन न थी। इसलिए जनरल ने तुरंत बर्मा से एक गोरी पलटन मँगवाकर १९ नम्बर पलटन से हथियार रखवा लेने और सिपाहियों को बर्खास्त कर देने का निश्चय कर लिया। सिपाहियों को मालूम हो गया। उनमें से कुछ ने चुपचाप हथियार रख देने की अपेक्षा तुरंत क्रांति कर डालने का संकल्प किया, उनके हिंदुस्तानी अफ़सरों ने ३१ मई तक सब्र करने की सलाह दी। परंतु उस पलटन का एक सिपाही मंगल पांडे आपे से बाहर हो गया। उसने कुछ अफ़सर मार डाले। उसको फाँसी दे दी गई।
इस घटना की सूचना बहुत शीघ्र उत्तर भारत में फैल गयी।
नाना साहब और अज़ीमुल्ला मार्च के महीने में तीर्थ यात्रा के लिया निकल पड़े। दिल्ली में गुप्त मंत्रणाएँ हुई। फिर अंबाला गए। इसके उपरांत मध्य अप्रैल में लखनऊ पहुँचे। वहाँ नाना साहब का समारोह के साथ जुलूस निकला। नाना अंग्रेजों से प्रत्येक स्थान पर मिलता था, जिसमें वे लोग निश्चिंत बने रहे।
लखनऊ के बाद कालपी और झाँसी आए। योजना का कार्यक्रम निश्चित करके चले गए। उत्तर हिंद की लगभग समस्त छावनियों में होते हुए नाना और अज़ीमुल्ला बिठूर आ गए।स्थान स्थान और प्रदेश प्रदेश में प्रभाव वाले व्यक्ति प्रचार के कार्य में जुट गए। अभी तक अंग्रेजों को क्रांति के सामूहिक रूप का बिलकुल पता न था।
गर्मी आ गयी। सरोवरों में कमल खिल उठे, फसल भी काट कर घरों में आने लगी। स्वाधीनता युद्ध के दो चिन्ह प्रकट हुए। एक कमल, दूसरा रोटी।
असंख्य कमल के फूल भारतवर्ष भर की छावनियों में फैल गए।
कमल फूलों का राजा। सरस्वती की महानता, लक्ष्मी की विशालता उसके पराग और केशर में कहीं अदृष्ट रूप से निहित है। वह विष्णु की नाभि से निकला और अनंत समय के उपरांत वही वापिस जाएगा। वह हिंदुस्तान की प्रकृति का, संस्कृति का, मृदुल, मंजुल, मांगलिक और पवन प्रतीक है। उसका रंग हल्का लाल है। वह बिलकुल रक्त नहीं है। हिंदुस्तान में होने वाली क्रांति खूनी ज़रूर थी, परंतु उस खूनी क्रांति के गर्भ में मंजुलता और पावनता गढ़ी हुई थी। इसलिए सन ५७ की क्रांति का यह प्रतिबिम्ब चुना गया। क्रांति करेंगे - मानवीयता की रक्षा के लिए, क्रांति होगी - मानवीयता लिए हुए।
कमल के साथ रोटी भी चलती थी। एक गाँव से दूसरे गाँव एक रोटी भेजी जाती थी। दूसरे गाँव में फिर ताजी रोटी बनी और तीसरे गाँव भेज दी गई। हिंदुस्तान की वह क्रांति हिंदुस्तानियों की रोटी की रक्षा के लिए हुई थी। रोटी उस रक्षा के प्रयत्न का प्रतीक थी।
जिसने सोचा उसने कल्पना का कमाल कर दिया। यह उपज हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों की थी।
कमल और रोटी का दौरा समाप्त नहीं हुआ था कि छः मई को मेरठ में विस्फोट हो गया।
मेरठ में बड़ी छावनी थी, कई हिंदुस्तानी और अंग्रेज़ी पलटनें थी। एक हिंदुस्तानी पलटन के नब्बे सिपाहियों को कारतूस दिए गए। सिपाहियों को विश्वास था कि कारतूस अस्पृश्य चर्बी वाले हैं। अंग्रेजों ने उन्हें आश्वासन दिया, कि नहीं हैं। पचासी सिपाहियों ने कारतूसों को छूने से इनकार कर दिया। उनका कोर्टमार्शल हुआ। आज्ञा ना मानने के अपराध में उनको दस दस बरस के कठोर कारावास का दंड मिला। नौ मई के दिन इस सिपाहियों को गोरी फ़ौज और तोपखाने के सामने लाकर खड़ा किया गया। वर्दियाँ उतरवा ली गयीं और हथकड़ी बेड़ियाँ डाल दी गयीं। छावनी के बाक़ी हिंदुस्तानी सिपाही भी इस दृश्य को देखने के लिए बुला लिए गए थे।
इसके बाद वे लोग जेलखाने भेज दिए गए।
उनके साथी सिपाही क्षुब्ध हो गए, परंतु उनको ३१ मई तक रुके रहने की आज्ञा थी, इसलिए वें ग़ुस्सा पी गए। घटना सुबह की थी।
संध्या समय हिंदुस्तानी सिपाही बाज़ार में गए। सबसे पहले कुछ वेश्याओं ने आवाज़ें कसी।
“आहा! आपकी मूछें देखिए। कैसी भांजी हैं!! भाइयों को जेलखाने भेजकर मुए किसी पोखरें में न डूब मरें!!!”
फिर गृहस्थ स्त्रियों ने, पुरुषों ने भी ताने कसे।
सिपाही बारकों को लौट आए। धैर्य ने साथ छोड़ दिया। स्त्रियों के शब्द कलेजे में बिंध गए। रात को गुप्त मंत्रणा हुई। निश्चय हुआ कि ३१ मई तक नहीं ठहरेंगे। उसी रात उन लोगों ने दिल्ली खबर भेजी कि कल परसों तक दिल्ली पहुँचते हैं, सब लोग तैयार रहें।”
दस मई को मेरठ में तलवार बंदूक़ चल गई। अंग्रेजों को मार मूर कर सिपाही दूसरे दिन दिल्ली पहुँच गए। वहाँ की हिंदुस्तानी सेना उनसे मिल गयी। दिल्ली निवासियों ने उनका साथ दिया।
चारों ओर ‘दीन दीन’ , ‘अल्लाह हो अकबर’ और हर हर महादेव की पुकारें एक दूसरे में होकर गूंज गई। दिल्ली की अंग्रेज़ी फ़ौज मुहासिरे में पड़ गयी।
मेरठ और दिल्ली की सम्मिलित हिंदुस्तानी फ़ौज ने दिल्ली के लाल क़िले पर अधिकार कर लिया। बादशाह बहादुर शाह को भारत का सम्राट घोषित किया और २१ तोपों की सलामी दी। बादशाह ने क्रांति का नेतृत्व स्वीकार किया और उसने सबसे पहले जो काम किया, वह था गौ-वध का क़तई बंद कर देना।
मई के महीने में लगभग सारे उत्तर हिंद में क्रांति की आग भड़क उठी - किसी दिन कहीं और किसी दिन कहीं।
कानपुर में चौथी जून को यकायक आधी रात के समय तीन फ़ायर हुए। हिंदुस्तानी सेना ने कानपुर में क्रांति का आरम्भ कर दिया।, सवेरे ख़ज़ाना और शस्त्रागार क्रांतिकारियों के हाथ में आ गए और नाना को राजा घोषित कर दिया गया।
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