Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 14 - Vrindavan Lal Verma
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मध्यान्ह
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स॰ १९१३ की दिवाली की गई। रीति निभाने के लिए लक्ष्मी जी का पूजन हुआ। दिए जलाए गए। नगर का बाहरी रूप जगमगा उठा। क़िले पर भी कुछ दिए हिंदू मुसलमान सिपाहियों ने जलाए। लक्ष्मीबाई ने शहरी महल पर भी रोशनी ही, परंतु हृदय सुनसान थे - वहाँ कोई जगमगाहट न थी।
अबकी बार अंग्रेजों के बंगलों पर दिए नहीं जलाए गए, क्योंकि अंग्रेजों ने सोचा इस सम्पर्क से ईसाईयत को धब्बा लग जाने का अंदेशा है। इससे जनता की धारणा और पक्की हो गई - अंग्रेज हमारे नहीं हैं, हमारे कभी हो ही नहीं सकते।
मकान के बाहर दिए धरने की रस्म के बाद जूही मोतीबाई के घर आई। जूही यौवन के बसंत में थी। बड़ी आँखों में चमक। नीचे देखने के समय लम्बी बरौनियाँ लाज के पाँवड़े से डालने वाली। परंतु कुछ उदास थी। मोतीबाई ने नौकरानी को पौर में बिठला दिया और जूही के साथ एकांत में बात चीत करने लगी।
पूछा, “आज उदास क्यों हो? क्या बात है?”
जूही ने उत्तर दिया, “वें आए हुए हैं - बिठूर वाले सरदार।”
मोतीबाई - “तब तो तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए था। देखती हूँ बिलकुल उल्टा। मुँह लटका हुआ।”
जूही - “आज ओआहली बार ही बात हुई और रूखे बोले।”
मोतीबाई - “किस प्रसंग पर?”
जूही - “उन्होंने अपने निवास स्थान पर बुलवाया। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। मुझे संकोच हुआ। परंतु हिम्मत करके चली गई। सामने पहुँचने पर में शरम में डूबने लगी। मुश्किल से मुस्कुराकर हाथ जोड़े और चुपचाप खड़ी हो गयी।”
मोतीबाई - “अभिनय तो बुरा नहीं था।”
जूही - “अभिनय ही तो नहीं था - अभिनय करना चाहा, नहीं कर सकी। मैं अपने को भूल गई। उन्होंने भौहें सिकोड़ कर कहा क्या सेना में जाकर ऐसी ही खाड़ी हो जाती हो?” मैंने तब कुछ निवेदन किया।”
मोतीबाई - “वें जल्दी में होंगे। उतावली कर गए……”
जूही -“मुझे तो अचरज हुआ। पहले कई बार देखा-देखी हुई थी।”
मोतीबाई - “आजकल में?”
जूही - “नहीं, के महीने पहले जब वें कर्नल साहब के यहाँ आकार ठहरे थे।”
मोतीबाई - “तब क्या हुआ था, मैं समझी नहीं।”
जूही - “उनको देखकर न जाने माँ में कैसी उथल पुथल हो ज़ाया करती थी। उन्होंने देखा एक क्षण भर। उसी क्षण के भीतर कुछ इस प्रकार हेरे कि मुझको ऐसा लगा मानो घंटों देखते रहे हों। मैंने तो शीघ्र आँख हटा ली थी। फिर मकान के पास से निकले। मैंने आहत पाकर उनकी आँख के रास्ते में आ गयी। उन्होंने बहुत कम देखा, परंतु मैं बहुत देर, बार बार, देखती रही। वे चले गए। मुझे बहुत खला।”
मोतीबाई - “होता है। फिर क्या हुआ?”
जूही - “वे यहाँ दो तीन दिन रहे। मैंने निरंतर उनको अच्छी तरह देख भर लेने की कोशिश की। उन्होंने देखा। मैं अघा गयी। मैंने फिर उनकी दृष्टि को पकड़ने का प्रयास किया, परंतु वह किसी ख़याल में ऐसे मस्त थे, कि उनको जूही के मकान का भी स्मरण न रहा होगा। जिस दिन जाने लगे, मैंने खड़की में से निर्लज्ज होकर उनको नमस्ते किया। उन्होंने बिना किसी लिहाज़ के मुस्कुराकर मेरी नमस्ते का जवाब दिया।”
मोतीबाई - “तब और क्या होता?”
जूही - “उनको जाते जाते कुछ समय मिल गया। घर पर आने की कृपा की।”
मोतीबाई -“यह तुमने बतलाया था।”
जूही - “मैं सहम गई। सिर नीचा किए खाड़ी रह गयी। बोल, यदि मुझको खुश करना चाहती हो, तो मोतीबाई जो जो काम बतलावें, उसको बहुत होशियारी के साथ किया करो। मैंने हामी का सिर हिया दिया, परंतु मुँह से बोल नहीं निकला। उन्होंने कहा, हृदय की बात जीभ को न मालूम होने पावे। मुझको तुम्हारा हाल मालूम होता रहेगा। ईश्वर तुम्हारी मदद करे और वे चले गए। मैंने बहुतेरा उनकी आँख के चमत्कार को देखने का प्रयत्न किया, पर वे नहीं मुड़े। मैंने उनकी पीठ को इस तरह निगाह गाड़कर देखा जैसे वे देख ही रहे हो। चले गए। उसके बाद जो कुछ करती रही हूँ, आपको मालूम है।”
मोतीबाई - “मैं महारानी साहब को सुनाती रही हूँ। वे सरदार साहब को सूचना देती रहती हैं।”
जूही - “अभी बीच में एक दिन के लिए और आए थे।”
मोतीबाई - “हूं”
जूही - “तब भी घर पर आए थे - बहुत थोड़ी देर के लिए। मैंने निश्चय कर लिया था - उनको जी भर कर देखूँगी। न देख पाया। उन्होंने कुछ बातें पूछी। कुछ बतलाई। मेरा सिर और आँखें इतनी भारी हो गई थी, कि उठा न पाई। उनकी सुनती गई और मंज़ूर करती चली गई। नीचे नीचे ज़रा सा देख लेती थी, वे बात करते मुस्कुराते थे और मुझको मन में गुदगुदी सी झकझोरती थी, मैं खूब हँस कर कुछ कहना चाहती थी। हँस क़तई नहीं पाई, बात भी काम कर पाई। जो कुछ बात हुई आपको सुना दी थी, परंतु और सब कहने का उस दिन मौक़ा न आया था।”
मोतीबाई - “अरी पहली , इसमें उदास होने की कौन सी बात हुई?”
जूही - “नहीं बाई जी! मैं जो कुछ कर रही हूँ आपके हुक्म से और अपने राजा- रानी के नमक से अदा होने के लिए। चाहे मैं मार भले ही डाली जाऊँ, परंतु क्या वे मेरे सिर पर एक बार हाथ भी नहीं फेर सकते थे?”
मोतीबाई - “यह उनकी गलती है। काम करने वालों का माँ रखने के लिए, बढ़ावा देने के लिए बहुत मिठास बरसाना चाहिए।”
जूही - “वह तो आप से मुझको बहुत मिल जाता है।”
मोतीबाई - “किसी दिन रानी साहब के सामने तुमको पेश करूँगी। वह बहुत देर बात करेगी।”
जूही - “मेरा ज़िकर तो आता होगा?”
मोतीबाई - “बहुत बार, परंतु वे अभी बहुत लोगों से मिलना उचित नहीं समझती। एक दिन आवेगा, जब तुम उनकी सहेली सेना में भर्ती हो जाओगी।”
जूही - “मैं चाहती हूँ उनके कदमों में मेरा सिर काटकर गिरे।”
मोतीबाई - “सरदार साहब के पूछने पर तुमने क्या निवेदन किया?”
जूही - “उनकी रुखाई से माँ टूट सा गया था। इसलिए पहले तो मैं ज़मीन को अंगूठे से खोदने लगी, फिर हिम्मत करके बतलाया कि फ़ौज के हिंदू मुसलमानों को ईसाई बनाए की कोशिश की जा रही है, उन्होंने ब्योरा माँगा। मैंने कहा कि सिपाहियों को लोभ दिया जा रहा है, कि यदि वें ईसाई हो जाएँ तो उनका वेतन भत्ता बढ़ा दिया जवेगा और जो सिपाही पहले ईसाई होगा उसको तुरंत हवलदार का पद दे दिया जावेगा। बाक़ी कुछ नहीं कह सकी, क्योंकि रो डालने को जी चाहता था। यह कहकर चली आई कि फिर सुनाऊँगी, अभी पूजा करनी है। मुश्किल से लक्ष्मी पूजन करके दिए घर कर आपके पास चली आई हूँ।”
मोतीबाई ने जूही को लिपटा किया। उसने जूही को रोने नहीं दिया।
बोली, “यों ही फुसफुसा नहीं जाना चाहिए देखो वे कितना कठिन और कितना नाज़ुक काम कर रहे हैं। नाटक शाला में जो लोग तमाशा देखने आते थे, क्या वे घर से हंसते हंसते आते थे? संसार के दर्द को बिसरने के लिए लोग नाटक शाला में बैठ जाते थे। उनकी रुखाई या अवहेलना को देखकर यदि हम लोग रंगमंच पर उदास या उदासीन हो जाएँ, तो खेल बनेगा या बिगड़ेगा?”
जूही ने मोतीबाई के कंधे पर अपनी आँखें छिपाकर कहा, “रंगमंच पर हम अपने असली रूप में जाते ही कब हैं?”
मोतीबाई ने जूही की ठेस को समझ लिया। बोली, “मैं उनका जवाब तालाब करूँ?”
जूही ने तुरंत आँखें गड़ा कर कहा, “आपसे कैसे बनेगा?”
मोतीबाई - “अपने को भूल जाऊँगी और अभिनेत्री बन जाऊँगी। तुम सिपाहियों के सामने क्या किसी प्रकार का भी लाज संकोच करती हो?”
जूही - “बिलकुल नहीं। मुझको मालूम ही नहीं पड़ता कि मैं ऐरो ग़ैरों से से बात कर रही हूँ और क्या ख़ुराफ़ात बके जा रही हूँ। आँखें मेरी कुछ नहीं देखती - कान अलबत्ता खूब खुले रहते हैं।”
मोतीबाई - “और उनके सामने?”
जूही ने भोलेपन के साथ कहा, “उनके सामने तो रोमांच हो हो आता है - पसीना सा आ जाता है। सिट्टी साई भूल जाती है। क्या आप उनसे कुछ कहोगी?”
मोतीबाई बोली, “आज ही मिलूँगी और कहूँगी।”
जूही ने अनुनय के साथ कहा, “नहीं मेरी ओर से कूच न कहिएगा, - काम से काम, मैंने जो कुछ कहा है, वह न बतलाइएगा। शायद मेरा भ्रम ही हो। वे बुरा मान जाएगा। शायद रानी साहब बुरा माँ जावें। मैं रानी साहब को अपना देवी देवता समझती हूँ।”
“मैं मूर्ख नहीं हूँ। इस तरह न कहूँगी कि वे समझे तुमने कोई शिकायत की है। तमहरा काम ब्योरेवार बतलाऊँगी। खुश होंगे और तुमसे मिलेंगे।”
“कर्नल साहब की हवेली पर?”
मोतीबाई - “फिर कहाँ? तुम्हारे मकान पर?”
जूही - “आपके मकान पर आ जाऊँगी।”
मोतीबाई - “देखूँगी, वें जहां उचित समझें।”
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उसी समय मोतीबाई चादर ओढ़ कर महल गई। रानी पूजन में थी। उनको लक्ष्मी जी का इष्ट था, इसलिए और लोगों की अपेक्षा इस पूजन को वे अधिक समय देती थी।
ड्योढ़ी के एक भाग में तात्या और नाना साहब बैठे हुए थे। तात्या ने मोतीबाई को पहचान लिया और तुरंत उसको एकांत में ले जाकर बातचीत करने लगा।
तात्या ने प्रश्न किया, “यहाँ का हाल अभी ठीक ठीक मालूम अनहिन हुआ। जूही थोड़ी देर पहले मिली थी, परंतु वह तो कुछ ऐसी गाड़ गयी कि कुछ कान ही नहीं सकी। केवल यह आश्वासन दे गई कि फिर बतलाऊँगी।”
मोतीबाई ने निस्संकोच भाव के साथ उत्तर दिया, “आप स्त्रियों की प्रकृति को नहीं जानते।”
तात्या ने कहा, “सुना है कि उनकी प्रकृति टेढ़ी होती है। अभी तक इस विषय के अध्ययन करने का समय नहीं मिला। जब अवसर आवेग तब समझने का प्रयत्न करूँगा।”
मोतीबाई मुस्कुराकर बोली, “आप शायद ही कभी समझ सकें। परंतु ज़रूरत न पड़े तो अच्छा ही है। अब काम की बात सुनिए।
तात्या - “मैं ध्यान लगाए हूँ।”
मोतीबाई - “फ़ौज के सिपाहियों को ज़बरदस्ती ईसाई बनाए जाने की कोशिश की जा रही है। रामचंद्रजी और मुहम्मद साहब, दोनो को खुले आम गालियाँ दी जाती हैं। ईसाई बनने के लिए तरह तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं एक अंग्रेज अफ़सर तो यहाँ तक कहता था, कुछ दिनों में सारा हिंदुस्तान ईसाई हो जावेगा। न एक मंदिर बचेगा और न एक मस्जिद बचेगी।
तात्या - “इस तरह के समाचार सब तरफ़ से आ रहे हैं।”
मोतीबाई - “क्या सचमुच ऐसा दिन आने वाला है?”
तात्या - “विश्वास रक्खो, वह दिन कभी नहीं आवेगा। मुझको यह बतलाओ कि यहाँ के सिपाही खस क्या भावना रखते हैं?”
मोतीबाई - “मुझको पक्का भरोसा है है कि एक फ़ीसदी भी हिंदू या मुसलमान सिपाही किसी भी लालच में आकर अपने धर्म ईमान को नहीं बिगाड़ेगा।”
तात्या - “यह तो हम सब लोग जानते हैं। मुझको यह बतलाओ कि गोरों की इस हरकत का यहाँ की फ़ौज पर क्या असर पड़ता है?”
मोतीबाई - “उनमें से कुछ तुरंत मारना मारना चाहते थे, परंतु धीरज धरकर रुक गए।”
तात्या - “अभी मारने-मारने का समय नहीं आया है। मैंने चाहता हूँ प्रत्येक पलटन में से तीन अफ़सर, जो बिलकुल विश्वास के योग्य हो चुन लिए जावे। उनको कब और क्या करना होगा, वह दो-एक महीने पीछे बतलाया जावेगा। उनसे कह दिया जाय कि वें ईसाई तो होंगे ही नहीं पर इस समय अपना सब्र न खो बैठे। क्रोध भरे रहे, परंतु उसको निकलने किसी प्रकार न दे, नहीं तो सब किया कराया मिट्टी में मिल जावेगा। अबकि बार आऊँगा तब जो कुछ करना है, उसकी तारीख़ और समय बटला जाऊँगा। आप या जूही इस काम को कर सकेंगी?”
मोतीबाई - “मेरे लिए मशहूर है कि मैं बाहर बहुत जाम निकलती हूँ। महलों में आती जाती हूँ। फ़ौज में नृत्य गान के लिए, मेरा आना जाना तुरंत संदेह उत्पन्न करेगा और बाई साहब भी यह पसंद न करेंगी। जूही को इसी कारण महल में नहीं बुलाया जाता। वह बहुत अच्छा नाचती गाती है, ईश्वर ने उसको रूप भी दिया है और ज़बरदस्त संयम। वह आपको चाहती है।”
तात्या -“मुझको? मोतीबाई, यह ज़माना बुद्धि और तलवार को माँजने का है, न कि माँ को रस में डुबोने का।”
मोतीबाई - “तब आप उसको अपने रस में डूबा रहने दीजिए। तभी तो मैंने कहा कि आप नारी प्रकृति को नहीं जानते।”
“क्या नारी प्रकृति पुरुष प्रकृति से बहुत भिन्न होती हैं?
मोतीबाई - “कह नहीं सकती। शायद किसी दिन आप इस विषय को समझे।
तात्या - “ऐसा नहीं है कि मैं नारी प्रकृति को बिलकुल ही नहीं जानता हूँ। परंतु सामने इतने महत्व का बड़ा काम है कि और कुछ सूझता ही नहीं।”
मोतीबाई - “आप कृपा करके जूही से ज़रा मीठा बोलिए। एक बार उसके सिर पर शाबाशी का हाथ फेर दीजिए। वह अपने काम का कमाल दिखलावेगी।”
तात्या - “मैंने आपसे सबक़ लिया और गाँठ बांध ली।”
मोतीबाई ने हँसकर कहा, “आपको औरतों से अभी बहुत सीखना है।”
तात्या ने देखा - “मोतीबाई के प्रबल सौंदर्य में विलक्षण शोख़ी है और शोख़ी में कोई दृढ़ सत्य।
हँसकर बोला, “मानता हूँ। पर आपकी जूही को वह काम करते देखना है, जो मैंने बतलाया है।”
मोतीबाई ने भी हँसकर कहा, “मेरी नहीं आपकी - आप लोगों की जूही।”
“बेशक। बेशक।” बतलाइए फ़ौज के देशी अफ़सरों पर उसका प्रभाव हो गया है?”
“हो गया है अनेक पर।”
“इस प्रभाव को बढ़ाना है।”
“बढ़ जाएगा।”
“और कोशिश यह करनी है कि अभी भड़क न उठे। जो तारीख़ और समय नियुक्त होगा, उसकी बात ना जोहें।”
“हो सकेगा।”
“एक पलटन के तीन अफ़सरों को ख़ास तौर पर चुनना है।”
“मुझको जूही की बुद्धि का भरोसा है।”
“मैं उससे आज ही बात करूँगा। आप तो रानी साहब से बात करने के लिए ठहरेगी?”
“फिर कभी मिल लूँगी। आप मेरी बात उनसे कह दीजिएगा। मैं जाती हूँ।”
मोतीबाई समझ गई थी कि तात्या इत्यादि बिलकुल एकांत में, रानी से बात चीत करना चाहते हैं, इसलिए वह नहीं ठहरी।
पूजन के उपरांत नाना साहब और तात्या की भेंट रानी से हुई। रानी लक्ष्मीबाई आज बिलकुल लक्ष्मी साई भासित होती थी।”
नाना ने कहा, “मैंने अपने एक विश्वस्त आदमी अज़ीमुल्लाखां को विलायत भेजा था। अर्ज़ी, अपील स्वीकृत नहीं हुई। हो जाती तो कुछ रुपया मिल जाता। काम से काम दादा साहब के जमाने का जो छयासठ हज़ार रुपया बाक़ी है, वही मिल जाता। परंतु अंग्रेज़ी सरकार तो बेईमान और अन्यायी है। उसने सब नामंज़ूर कर दिया। इसका अब अधिक रंज नहीं है। रुपए की कमी पूरी हो ही जावेगी। अज़ीमुल्ला देश विदेश घूम है। वह इटली गया, तुर्की में रहा, रूस भी पहुँचा और ईरान होकर लौट आया। उसने तुर्की के साथ चिट्ठी पत्री की है। इटली में इस समय एक प्रबल पुरुष गेरीबाल्डी नाम का है। वह अंग्रेज़ी जहाज़ी बेड़े को अपने जहाज़ी बेड़े से नष्ट कर देगा। रूस से मदद मिलेगी। सब कहते है, कि अंगरेज हिंदुस्तान में खुल्लमखुल्ला उर आड़े ओट लेकर बहुत निंदनीय काम कर रहे हैं। बहादुर शाह बादशाह ने ईरान के शाह से लिखा पढ़ी की है। क़बूल तो हतोत्साह है, परंतु शायद ईरान बादशाह की कुश सहायता करे।”
रानी - “ऊपर ऊपर इन बातों का प्रभाव अंग्रेजों पर अच्छा पड़ेगा, परंतु वास्तव में कार्य बहुत दृढ़ता और प्रबलता के साथ, अपने देश ही में होना चाहिए। मुझको विश्वास है कि जनता अपने साथ है। वह बहुत बड़ा बल है। अंग्रेजों के हाथ में सीखी सिखाई हिंदुस्तानी फ़ौज है। वह सम्पूर्ण रूप में अपने हाथ में आ जानी चाहिए। टोप ढालने वाले और बारूद बनाने वाले कारीगर, हाथ में हो गए हैं, क्योंकि उपद्रव होते ही अंग्रेज लोग अपना समान नष्ट कर देंगे। और फिर हम ख़ाली तोपों से कोई काम नहीं कर सकेंगे।”
तात्या - “प्रबंध कर लिए है।”
रानी - “हमको ऐसी तोपें चाहनी पड़ेंगी, जो चलते समय धक्का न दें और जल्दी गरम न हो जावें।”
तात्या - “इस प्रकार के कारीगरों को बराबर खोजा है। कुछ मिले भी हैं। खबर लगी है कि झाँसी में इस चतुराई वाले कारीगर हैं।”
रानी - “हाँ हैं। मैंने कुछ इकट्ठे किए हैं। ऐसी बारूद बनाने वाले भी मैंने ढूँढे हैं, जो धुआँ बहुत काम दें।”
नाना - “अब ज़्यादा विलम्ब नहीं किया जावेगा।”
रानी - “कितने दिन और लगेंगे?”
नाना - “कुछ महीनों से अधिक नहीं।”
रानी - “मेरी सम्मति में, अभी ज़रा और संयम और अनुशासन की आवश्यकता है।”
तात्या - “मैं बिलकुल मानता हूँ बाई साहब! परंतु ऐसा जान पड़ता है कि विस्फोट जल्दी होगा। अंगरेज लोग हिंदू-मुसलमान सिपाहियों को ईसाई बनाना चाहते हैं। फ़ौज की सही हालत जाने के लिए, मैं अनेक साधन काम में ला रहा होन। उन सबसे एक सा ही समाचार मिल रहा है। अंगरेज कर्नल और कप्तान पादरी बने हुए हैं। अपने छापे की कालों से सहस्रों लाखों की संख्या में, छोटी बड़ी पुस्तकें छाप छाप कर फ़ौज में बाँट रहे हैं। जिनमें हिंदू और मुसलमानों के धर्मों की, बेहद निंदा की जाती है। इसके ऊपर सिपाहियों को भाँति भाँति की प्रलोभन देकर, ईसाई बनाने की कोशिश की जा रही है। चर्बी वाले कारतूस अब भी बन रहे हैं। पहले मैं समझता था कि बैंड कर दिए गए हैं। और चर्बी वाली बात बहुत बढ़ा बढ़ा कर फैलाई गई है। पर अब तो निश्चय हो गया है कि बात सच्ची है सिपाहियों को यह सब बहुत अधिक खटक रहा है। वे धर्म के पीछे प्रान गँवाने को उठ उठ पड़ते हैं। अब उनको बहुत अधिक रोका नहीं जा सकेगा।”
रानी - “जब शीघ्रता करने की अटक होगी, मैं कहूँगी कि अब काम करने में आधी से होड़ लगाओ। तब वैसा करना। परंतु अभी जैसे बने तैसे संयम से काम लो। नीति और युद्ध का समन्वय होना चाहिए।”
नाना - “प्रयत्न तो यही किया जा रहा है। हम लोग इधर उधर घूमते घामते, दक्षिण के तीर्थों को जा रहे हैं। राजाओं से काम बात करेंगे, जैन नायकों से मिलेंगे। क्योंकि बहुत दिनों तक स्वराज्य युद्ध को चलाते रहने के लिए, हम लोगों को प्राण बुंदेलखंड, अवध और महाराष्ट्र से प्राप्त होंगे।”
तात्या - “यहाँ की स्त्रियाँ तो ऐसा काम कर रही हैं कि मैं दंग हो हो जाता हूँ।”
रानी - “हाँ, मोतीबाई और उसकी संगीनें काम कर रही हैं।”
तात्या - “मोतीबाई अभी आई थी।आप पूजा में थी। उसने बतलाया कि फ़ौज में ईसाई मत फैलाने का किस रूप में प्रयत्न हो रहा है। हमारे और लोग भी काम कर रहे हैं। उनमें मैंने अलग खोज की थी। मोतीबाई की बातों से उनके समाचारों की पुष्टि होती है।”
रानी - “मोतीबाई को यह मालूम है कि हमारे कुछ और लोग भी काम कर रहे हैं?”
तात्या - “नहीं बाई साहब।”
नाना - “ऐसा प्रबंध रक्खा है कि विभाग वाले दूसरे विभाग वालों की बात न जान सकें।”
रानी - “एक एक पलटन में तीन तीन अफ़सर क्यों चुन रहे हो? दो दो काफ़ी थे।”
नाना - “तीन इसलिए, कि दो दो मार दिए गए या बदल लिए गए तो काम करने के लिए एक एक तो बच ही जाएगा।”
रानी - “तो अब आग को भड़काने की आवश्यकता नहीं है। उसको ढाँकने की आवश्यकता है।”
तात्या - “कहीं कहीं दोनो की अटक है।”
रानी - “अंग्रेजों ने भी जासूस छोड़ रखे हैं।”
नाना - “अंतर इतना ही कि उनका जासूस विभाग, महज़ पैसे के लिए अपना ईमान और अपना देश बेचने को तैयार है और हम लोगों का जासूसी विभाग, कुछ भी न लेकर अपने धर्म, अपने देश और स्वराज्य के लिए, अपने तन, माँ, धन को आग में झोंकने के लिए प्रस्तुत हैं। पुलिस, जो शासन का सबसे अधिक प्रचंड कुत्ता होता है, वह भी हमारे साथ होता चला जाता है।
रानी - “इसलिए कि हम सबके धर्म का और रोटी का सवाल है।”
नाना - “मुसलमान और भी अधिक कुढ़े हुए हैं। बादशाह की जो नज़र-न्योछावर ईद और नौरोज़ के दिन होती थी, वह तो बारह चौदह साल से बंद है। अब अंग्रेज चाहते
हैं कि बादशाह दिल्ली का लाल क़िला ख़ाली करके मुंगेर चला जावे और गोरे लोग क़िले में बैठकर हिंदुस्तान भर को लाल आँखें आराम के साथ दिखलाते रहे। जो अपने को कभी ‘फिदवी ख़ास’ कह कह कर बल खाते थे, वे अब अपने को तान कर, मालिक ख़ास कहते हैं।”
रानी - “क्या वे लोग यह सब खुल्लामखुल्ला कर रहे हैं?”
नाना - “बिलकुल। उनको अब कोई डर नहीं रहा। जनता में, विविध उपायों से, हिंदू-मुसलमानों को लड़ाने का सिलसिला जारी है।”
रानी सोचने लगी।
बोली - “बहुत सावधानी और संयम से काम लेने की आवश्यकता है। हम लोगों के अपने कार्य कि प्रगति के समाचार, बराबर मिलते रहने चाहिए।”
रानी ने खिड़की के बाहर दृष्टि डाली। रात कुछ अधिक गई समझ कर, वे दोनो उठ खड़े हुए और रानी का चरण स्पर्श करके चले गए। यह पहला दिन था जब नाना और तात्या ने सहसा लक्ष्मीबाई के पैर छुए- यद्दपि वे दोनो आयु में उनसे बड़े थे।
तात्या वहाँ से आकर सीधा अपने प्रवास स्थान को नहीं गया। पहले जूही के घर पहुँचा।
समय कुछ अधिक हो गया था, परंतु जूही सोई न थी।
तात्या के भीतर आते ही जूही सहमी। लाज की अरुणिमा चेहरे पर बिखर गई।
तात्या ने बैठते ही मुस्कुराकर कहा, “तुमने उस समय कुछ नहीं बतला पाया था। मैं बहुत जल्दी में था, इसलिए उतावली में ठीक तौर से पूछ भी नहीं पाया।”
जूही ने नीची पलकों को ऊँचा किया। उसकी आँखों से मोहक, मादक मधु सा छलक पड़ा।
ज़रा एक ओर देखते हुए उसने कहा, “नहीं कोई बात नहीं, मुझे लक्ष्मी पूजन के लिए घर आना था, इसीलिए चली आयी थी। अब सब सुनाती हूँ।”
वह खाड़ी थी। तात्या के कहने पर एक ओर बैठ गयी। नृत्यगान द्वारा झाँसी स्थित अंग्रेज़ी सेना में वह जो कुछ किया करती थी वह उसने ब्योरेवार सुनाया। जब वह बात कर रही थी, केशजूटों में बंधे हुए चमेली के फूल, हिल हिल जाते।
बात की समाप्ति पर तात्या ने उठकर, जूही की सिर पर हाथ फेरा। हाथ फेरने में एक फ़ूल टूट कर नीचे गिर पड़ा। तात्या ने फिर खोंसने की कोशिश की।
जूही ने पलकें नीची किए हुए कहा, “जाने दीजिए।”
“वह तो मैंने खोंस दिया जूही”, तात्या बोला, “मै लक्ष्मी से मानता हूँ एक दिन आवे, जब इस देश की मुक्ति और तुम्हारे फूलों की महक का सम्मेलन हो।”
जूही खड़ी हो गई। श्वेत भूमिकाएँ काली पुतलियों से प्रकाश झर सा पड़ा।
“यदि उस काम के करने में, मैं या मेरी तरह की और स्त्रियाँ मर जाएँ, तो इस टूटे हुए फूल की महक और देश की मुक्ति के सम्मेलन के वचन को न भूलिएगा।” जूही ने कहा।
तात्या बोला, “कभी नहीं जूही।”
जूही - “आप जा रहे हैं? कब? फिर कब आइएगा?”
तात्या - “”कल चला जाऊँगा। जल्दी ही आऊँगा। कब आऊँगा? यह ठीक ठीक अभी नहीं कह सकता।”
तात्या नमस्ते करके चला गया। उस दिन तात्या को मालूम हुआ कि वास्तव में जूही का बोधक नाम मंगलामुखी सार्थक है।
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