Jhansi ki Rani - Lakshmibai # 13 - Vrindavan Lal Verma

 इस कहानी को audio में सुनने के लिए कहानी के अंत में जाएँ।

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घर आते ही ख़ुदा बख्श मिला। मोतीबाई ने आड़ करने का प्रयत्न किया।

ख़ुदाबख्श ने कहा, “मेरे सौभाग्य का संदेश अभी अभी पीर अली ने दिया, इसीलिए चला आया। बहुत दिन से कान में मिठास नहीं पड़ा। एक बात सुनने को।

पधारिएकहकर मोतीबाई बैठक में चली गई।

ख़ुदाबख्श बैठक के कोने में बैठ गया। मोतीबाई ने समादान में बत्ती जलाई और इठलाती सी बैठ गयी।

उसी ने बात शुरू की।

मोतीबाई -“मैं थकी माँदी हूँ। इसलिए बात जल्दी समाप्त हो जाए, तो मेहरबानी होगी।

ख़ुदाबख्श - “जितने के लिए आया था वह तो पा लिया। अब यह विनती है कि आप घर में ही रहे और मुझे सेवा करने की इजाज़त दें।

मोतीबाई मुस्कराई। आँख के कोने में एक मधुर कलोल हुई और बोली, “अर्थात् मैंने आपकी क़ैद में रहूँ?”

खुदाबख्श हर्षोंन्मत्त हो गया।

मैं आप क़ैदी मानकर रहूँगा।

इस प्रकार की बात आपने कितनी स्त्रियों से की है?”

ख़ुदा जानता है।मुझको कहने की ज़रूरत नहीं है।

मैं भी जानती हूँ। मगर एक वायदा करना होगा। ईमान को बीच में करके। मैं अस्मत इज़्ज़त वाली औरत हूँ। मेरा भी ख़ुदा जानता है।

मुझको मालूम है। इसलिए इतने बरसों साहा और आसुओं की नदियाँ बहाई।

आंसुओं की नदी या नदियाँ बहाने वालों से में दूर रहना चाहती हूँ।

मैं अपना खून बहाने को तैयार हूँ।

उसी का ईमान लेना है।

ईमान देता हूँ, ख़ुदा को बीच में करता हूँ।

बदलिएगा नहीं।

बदलने की बात मन में आते ही अपनी गार्डन छुरी से रेत डालूँगा।

मोतीबाई मुस्कराई। अपनी आँखों में उसने जादू पैदा किया।बोली, “नवाब अली बहादुर की नौकरी कर सकेंगे?”

खुदाबख्श ने उत्तर दिया, “कर सकूँगा। आपके हुकुम से सब कुछ कर सकूँगा। वैसे कसी की भी नौकरी करने की ठान रक्खी थी। अब प्रण तोड़ूँगा। काम क्या करना पड़ेगा? नवाब साहब या पीर अली ने आज तक नहीं कहा।

मैं कहती हूँ”, मोतीबाई ने आदेश के ढंग पर कहा, “आपको जासूसी का काम करना होगा।

जासूसी का काम! कैसी जासूसी?”

रानी साहब के पास कौन कौन आते हैं, किस मतलब से आते हैं, क्या बात करते हैं, कौन से ढंग रचते हैं, अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ कहाँ क्या हो रहा है इन बातों का पता लगाना होगा। नवाब साहब इस सेवा के बदले में काफ़ी देंगे और अंग्रेज सरकार से दिलवाएँगे। बड़े बड़े साहब से हाथ मिलाने का और अपनी तरक़्क़ी करने का, आपको मौक़ा मिलेगा।

खुदाबख्श तमतमा उठा। हिल गया।माथे की नसें फूल गयी। कंठ अवरुद्ध हो गया। मोतीबाई ने संतुष्ट होकर यह सब देखा।

खुदाबख्श मुश्किल से बोला, “मुझको आपने बहुत कमीना समझा है। मैंने सिपाहीगिरी की है।अपने राजाओं की कृपा का मेरे ऊपर उतना ही बोझ है जितना उनकी ज़्यादती का। मगर मैंने आपको ईमान हारा है। अब तक किसी उम्मीद पर जीवन को टिकाए था। अब कोई ज़रूरत नहीं। जाता हूँ। सवेरे खुदाबख्श का नाम भर बाक़ी रह जावेगा। अगर भूले बिसरे कभी बन पड़े, तो मिट्टी की कब्र पर एकाध फूल डाल देना।

खुदाबख्श खड़ा हो गया। मुँह फेर कर जाने को हुआ। मोतीबाई ने लपक कर हाथ पकड़ लिया। बोलीकिवाड़ बंद कर आइए। फिर सुनिए।

उसने पूछा, “कुछ बाक़ी रह गया है?”

मोती ने जल्दी से उत्तर दिया, “बहुत।

खुदाबख्श काँपते हुए पैरों गया। किवाड़ बंद करने के लिए सिर बाहर निकाला। कोई खड़ा था। भाग गया। खुदाबख्श ने नहीं पहचाना। उसने पहचानने की परवाह भी नहीं की। बैठक में आकर खड़ा हो गया।

बोला, “कहिए अब क्या बाक़ी है?”

बैठकर सुनिए ना।

न। इसके लिए ईमान नहीं दिया।

मोतीबाई हँसी। मोतियों की लड़ियाँ सी छटाँक गयी। खुदाबख्श पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मोतीबाई ने परख लिया। वह और हँसी।

बोली, “यदि मैं अनुरोध करूँ कि आप रानी लक्ष्मीबाई की नौकरी करे, तो अपने ईमान को कैसा लगेगा?”

आप क्या मज़ाक़ कर रही हैं?”

बिलकुल नहीं, मैं अपने ईमान की सौगंध खाती हूँ।

फिर वह बात कैसे कही?”

बतलाऊँगी। पहले मेरी इस बात का जवाब दीजिए।

रानी साहब की सेवा में तो अपना सिर चढ़ा दूँगा। मगर अब मौक़ा ही क्या आना है?”

आएगा। मुझसे पक्की बात करिए।

पक्की ही कहता हूँ। कोई अंग्रेज पूछे तो उससे भी कह दूँगा।

कदापि नहीं। किसी से मत कहिएगा। नवाब साहब से बिलकुल नहीं। पीर अली से भी नहीं।

हूँ।

हूँ क्या? पक्का वायदा रानी साहब की सेवा के लिए करिए।

मेरी ज़बान ही क्या वायदा करेगी, मेरा रोम रोम वायदा करता है।

अब मुझे भरोसा हो गया। मैंने अली बहादुर साहब की नौकरी और जासूसी के सम्बंध में इसलिए पूछा था कि देखूँ आप कितने पानी में हैं। परीक्षा ले ली, आप सफल हुए।

कुछ करके दिखलाऊँगा तब कहिएगा।

तभी और कुछ भी कहूँगी”, मोतीबाई मुस्कराई।

खुदाबख्श की हसरत जागी।

बोला, “कभी तो कह सकूँगा कि अब मैं आपका क़ैदी हो गया।

मोतीबाई ने मुस्कुराते हुए कहा, “मगर अभी क़ैद की घड़ी नहीं आई है। जिस दिन रानी साहब स्वराज्य क़ायम करके उत्सव मनाएँगी मैंने आख़िरी बार नाचूँगी, और उस दिन आपकी क़ैद में हो जाऊँगी। तब तक आपकी और मेरी अस्मत - दोनो की - उस देवी के हाथों रहेगी, जो झाँसी की रानी कहलाती है और कहलावेगी।

उस नर्तकी का मुखमंडल उस समय दिव्यता से भर गया।

खुदाबख्श सिपाही था। उसका खून जोश खा गया।

मुट्ठी बांधकर बोला, “आइ ही होगा बाई जी। मुझको कभी चूकते पाओ, तो मेरे मुँह पर थूक देना, महारानी साहब से कह देना कि खुदाबख्श उनका पूरन नौकर - सिपाही है, जब उसकी ज़रूरत पड़े, वे कहला भर दें। अपने सीने पर गोली लेने के लिए तुरंत खड़ा होगा। वेतन या भत्ते का नाम लेना। दो वक़्त खाने के लिए उन्ही का दिया हुआ मेरे पास अभी काफ़ी है।

मुझको आज बहुत ख़ुशी है”, मोतीबाई ने संयत सवार में कहा, “मैं रानी साहब को कल सुनाऊँगी। मगर अर्ज़ है कि नवाब साहब और पीर अली से मत कहना।

खुदाबख्श बोला, “मुझको किसी से कुछ नहीं कहना है। यक़ीन रखिए। परंतु पीर अली के बाबत अंत में आप देखेंगी कि आपका भ्रम था।” 

खुदाबख्श चला गया।

दूसरे दिन रानी को मोतीबाई ने साब समाचार दे दिया। 


41

रानी जब से घुड़सवारी के लिए बाहर निकलने लगी, तब से वह मर्दानी पोशाक करने लगी थी - सिर पर लोहे का कुला, ऊपर साफ़, उसका एक खूँट पीछे फहराता हुआ। कंचुकी के ऊपर सात हुआ अंगरखा। पैजामा। अंगरखे और पैजामे पर कसी हुई पेटी। दोनो बगलों में पिस्तौलें और दोनो ओर परतलों में तलवारें। कभी कभी इतने सब हथियारों के अलावा नेजा भी हाथ में साध लेती थी। इस पर भी घोड़े को बहुत तेज चलाने में कसर नहीं नलगाती थी। उनको काठियावाडी घोड़े अधिक पसंद थे और सफ़ेद रंग के ख़ास तौर पर। घोड़ों की उनकी विलक्षण पहचान थी।

उन्हें कुला लगाकर साफ़ बांधने में एक असुविधा अवगत होती थी - लम्बे केशों की। विधवा थी इसलिए महाराष्ट्र की प्रथा के अनुसार, बाल मुंडवाने में कोई बाधा थी। अपने केशों का कोई मोह था ही नहीं।सोचा काशी जाकर मुंडन करा लाइन। पर्यटन हो जवेगा और काशी में बैठकर उस ओर की राजनैतिक परिस्थिति का आभास मिल जावेगा। एक भावना और थी - जिस घर में माता ने जन्म दिया था उसके दर्शन भी मिल जायेंगे।

खोज करने पर मालूम हुआ कि बिना डिप्टी कमिश्नर की अनुमति के काशी यात्रा के लिए नहीं जा सकती!


अनुमति के लिए गार्डन को अर्ज़ी दी गयी। उसके पास दीवान जवाहर सिंह इत्यादि के रानी के पास आने जाने की खबरें पहुँच चुकी थी। वह चिढ़ा हुआ था। दूसरे अपने अधिकार को करारे रूप में लाने का अभ्यासी था। काशी यात्रा के लिए जो अर्ज़ी गई थी वह उसने अस्वीकृत कर दी।

जिसने सुना उसी के जी को चोट लगी।

रानी ने प्रण किया, “मैं केश मुंडन तभी कराऊँगी, जब हिंदुस्तान को स्वराज्य मिल जावेगा, नहीं तो शमशान में अग्निदेव मुंडन करेंगे।

 उनकी यह भीषण प्रतिज्ञा उनकी सहेलियों को मालूम थी। वें सब इस प्रतिज्ञा पर प्रसन्न थी - उनको पसंद था कि ऐसे सुंदर बालों का कुसमय क्षय हो।


42

दामोदर राव रानी के प्रगाढ़ स्नेह में पल रहा था, बढ़ रहा था। कोई निज माता अपने गर्भ प्रसून को इतना प्यार करती होगी जितना वह दामोदर राव को चाहती थी।

समय अपनी प्राकृतिक गति से चला जा रहा था। इसी में रानी की योजना भी सवृद्धि और पुष्ट होती जा रही थी। कहाँ क्या हो रहा है, इसके समाचार उनको निरंतर मिलते रहते थे। वह युद्ध सामग्री तैयार करने वाले कारीगरों को एकत्र करने की योजना पर, बहुत ज़ोर देती थी - और यह हो रहा था।

इस ओर रानी के जासूस और विश्वसनीय सहायक काम कर रहे थे।उस ओर नाना और राव के तथा बहादुर शाह और अवध के साथ सहानुभूति रखने वालों के लोग, अपने अपने काम में जुटे हुए थे। बिहार, बंगाल में भी स्वाधीनता की आग सुलग रही थी। महाराष्ट्र, मध्यदेश, बुंदेलखंड उत्तर हिंद तो मानो उसके पलने ही थे। यहाँ तो स्त्रियाँ भी काम कर रही थी।

रानी ने देखा कि लोगों को इकट्ठा करना दुष्कर होगा, इसलिए वे सबको एक बार एकत्र करके तब योजना को आगे बढ़ाना चाहती थी। हर काम की एक योजना वे पहले बना लेती थी, तब व्यवस्था के साथ उसको व्यवहार का रूप देती थी।

इसलिए उन्होंने दामोदर राव का जनेऊ करना निश्चित किया और उसके समारोह में जगह जगह से प्रमुख लोगों का, जमाव करके, आगे के कदम की बावत परामर्श करना तय किया।

इस काम के लिए एक लाख रुपए की ज़रूरत थी नक़द रुपया उनकी गाँठ में था।

दामोदर राव छः वर्ष का हो चुका था। सातवीं लग गयी। इस वर्ष में जनेऊ होना ही चाहिए। योजना भी इस स्थिति में गयी थी कि इस वर्ष में एक महान सम्मेलन का किया जाना ज़रूरी था। 

मोतीबाई इत्यादि ने समाचार दिया अंग्रेजों की हिंदुस्तानी सेना में, काफ़ी असंतोष फैल गया है।

रानी ने पुरोहित को बुलाकर मुहूर्त सुधवाया। मुहूर्त निकलने पर गार्डन को अर्ज़ी दी कि दामोदर राव के नाम से जो छः लाख रुपया ख़ज़ाने में जमा है, उसमें से उसके जनेऊ के लिए एक लाख रुपया दे दिया जावे।

पहले तो गार्डन की इच्छा अर्ज़ी को तुरंत ख़ारिज कर देने की हुई। फिर सोचा हिंदुओं कि कोई यह ज़रूरी रस्म है, इसलिए अंतिम निर्णय को स्थगित कर दिया।

उसने लोगों से पूछताछ  शुरू कर दी। अली बहादुर से खोज। उन्होंने कहा, “ब्रजमनों में यह रस्म लाज़मी है।

सेठ साहूकारों से पूछा। उन्होंने कहा, “अनिवार्य है।

अंत में फ़ैसले को अपने पेशकार की सम्मति पर छोड़ा।

पूछने पर पेशकार ने कहा, “हुज़ूर ऊँची जाति ने हिंदुओं में, विशेषकर ब्राह्मणों में यह रस्म किसी प्रकार भी नहीं टाली जा सकती।

गार्डन ने कमिश्नर से, कमिश्नर ने लेफ़्टिनेंट गवर्नर से पूछा। अंत में गार्डन की मर्ज़ी पर इस शर्त के साथ छोड़ा गया कि अगर झाँसी शहर के चार भले आदमी ज़मानत दे तो रुपया दे दिया जाए।

गार्डन ने रानी को सूचना दी, “ख़ज़ाने में जो रुपया जमा है वह दामोदर राव नाबालिग है। यदि बालिग़ होने पर दामोदर राव ने सरकार पर दावा कर दिया तो सरकार को रुपया अपनी थैली में से देना पड़ेगा, इसलिए झाँसी शहर के ऐसे चार आदमियों की ज़मानत दीजिए, जिनमें मेरा मन भरे।

अंग्रेजों के केंद्रीकरण के, गार्डन के अहंकार की हैड हो गयी। झाँसी की प्रमुख जनता कुछ इसी तरह सोच रही थी।

झाँसी में चार क्या बावन बड़े बड़े आदमी थे। रानी की ज़मानत देने के लिए सब तैयार हो गए।

कुछ ने खुदाबख्श और रघुनाथ सिंह से यहाँ तक कहा, “अर्ज़ी देने की क्या अटक पड़ी थी? इतना रुपया तो हमें लोग नज़र कर सकते हैं।

परंतु रानी को अपने रुपए के लिए हाथ था। उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।

जोभले आदमीज़मानत देने के लिए गार्डन के सामने हाज़िर हुए, वे थे - लाला बीमा वाले, मगन गन्धी, मोटी खत्री और श्याम चौधरी।

गार्डन उनको हतोत्साहित करना चाहता था।

बोला, “सोच समझ कर काम करना। बालिग़ होने से तीन बरस के भीतर तक दामोदर राव दावा कर सकेगा।

उन लोगों ने विश्वास दिलाया कि यदि ज़रूरत हो तो हम लोग नक़द ज़मानत दाखिल कर दें। 

गार्डन को झेंप मालूम हुई, इसलिए उन लोगों की साधारण ज़मानत पर उसने रानी को एक लख रुपया दे दिया।

नियुक्त समय पर समारोह हुआ। दूर दूर के लोग इकट्ठा हुए। झाँसी की जनता की ही बहुत बड़ी संख्या थी। नवाब अली बहादुर भी शरीक हुए।

शुभ मुहूर्त में दामोदर राव का जनेऊ हो गया। लोगों ने ख़ुशी ख़ुशी नज़र भेंट की। काफ़ी रुपया जमा हुआ।

दावत पंगत हुई। गायन वादन और दुर्गा का नृत्य। इसके बाद चुने हुए लोगों की बैठक, रानी लक्ष्मीबाई सफ़ेद साड़ी पहने एक ज़रा ऊँचे आसान पर बैठी। आस पास उनकी खस सहेलियाँ। ज़रा फ़ासले पर नाना साहब और उनके भई, तात्या टोपे, जवाहर सिंह, रघुनाथ सिंह, खुदाबख्श इत्यादि।

रानी ने कहा, “जिस सफलता के साथ आप लोगों के सहयोग से यह छोटा सा यज्ञ हुआ, उसी सफलता के साथ उस बड़े यज्ञ की पूर्ति होनी चाहिए।

नाना बोला, “अच्छे कारीगरों और बधिया समान का प्रबंध हो गया है। यज्ञ की सामग्री धोने वाले पशुओं और अश्वमेघ यज्ञ के घोड़ों का भी इंतज़ाम कर लिया गया है।

तात्या -“मैं ज़रा सीढी भाषा में बात करना चाहता हूँ।

रानी - “कर सकते हो, सब अपने ही अपने हैं। बाहर स्त्रियों का कठोर पहरा है। काम की बात करके अधिवेशन को समाप्त कर दिया जावेगा।

तात्या - “उत्तरी और पूर्वी हिंदुस्तान में अथक काम हो रहा है। अंग्रेजों ने जिन कारतूसों को आरम्भ में जारी किया था, प्रतिवाद को देखकर लगभग बंद कर दिया है। अब अंग्रेज हिंदू सिपाहियों को तिलक टीका लगाए हुए परेड में नहीं आने देते, इस कारण हिंदू सिपाहियों में घोर खिन्नता फैल गयी है।

खुदाबख्श - “यहाँ की फ़ौज के मुसलमान सिपाहियों में भी बहुत जोश है। उनके दीन को बर्बाद करने का जो काम चर्बी वाले कारतूसों ने जारी किया था, वह ऐसा नहीं है, कि क़तई तौर पर बंद हो गया हो।

तात्या -“एक दिन था जब अंग्रेजों के प्रतिनिधि अपने मस्तक को बादशाह के पैर रखने की जगह बतलाते थे। अब हमारे सबके सिर पायदान बनते जा रहे हैं। कलाकारों की कला, कारीगरों का शिल्प और अनेक लोगों की रोटी गई। अब ईमान की बारी आइ है। देश और जनता की रक्षा का समय गया है।

रानी -“मेरी रमझ में अभी थोड़ा काम और करने की आवश्यकता है।

रघुनाथ सिंह - “आपकी जो आज्ञा हो। वैसे हम लोग बुंदेलखंड से ही आरम्भ करने को तैयार हैं।

रानी -“अभी नहीं। ओरछा, अजयगढ और छत्रपुर के राजा बालक हैं। इन राज्यों के प्रबंध पर अंग्रेजों की छाप है। इसके सिवाय क्रांति का लग्गा लगवाते ही डाकू और बटमार बढ़ जावेंगे। हमारी जनता ही इन उपद्रवों से पीड़ित होगी। जब तक हमारे पास मज़बूत सेना नहीं हो गई है, तब तक हम लोगों को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। अंग्रेजों को परास्त करने के साथ साथ इन जैन पीड़िकों का भी तो दमन करना पड़ेगा, अन्यथा जनता का क्षोभ अंग्रेजों के सिर से टलकर हम लोगों के सिर आवेग। हिंदुस्तानी सैनिकों को अपनाने का करम जारी रखना चाहिए। जब मन भर जावे, तब ही कही जावेगी। 

रानी की इस सम्मति से लोग सहमत हुए।


43

मऊ छावनी से लेकर मेरठ छावनी तक और मेरठ छावनी से लेकर डैम डैम बारकपूर की छावनियों तक, विविश प्रकार के लक्षण दिखलाई पड़ने लगे। मऊ, मेरठ, बारकपूर इत्यादि छावनियों में साधु और फ़क़ीर, विविध प्रकार के वेश और रोप्पक धारण करके, क्रांति का कार्य करने लगे।

ग्वालियर की छावनी में नारायण शास्त्री उस मेहतरानी को गाना गवाते ले गया। सिपाही उसके नाचने गाने पर रीझे। समाप्ति पर पैसे देने लगे। 

नर्तकी ने पूछा, “आप लोग सेंधिया सरकार के नौकर हैं या अंग्रेज के?”

अंग्रेज के।

अंग्रेजों का नमक खाने वालों का पैसा नहीं छूती।और वह इठला कर चली गयी।

उन लोगों ने नारायण से कहा, “यह कौन है? बड़ी घमंडिन मालूम होती है।

नारायण - “है तो बैरागिन, परंतु झाँसी की बाइसहब के राज्य की लड़की है।

उनका राज्य तो चला गया।

अंग्रेजों ने बेईमानी से ले लिया फिर लौटेगा।

छावनियों के सिपाही समय पर चुपचाप परेड पर जाते। चुपचाप ड्यूटी करते, परंतु भन्नाए हुए।

अंग्रेजों को ऊपर की तह चिकनी और समतल दिख रही थी। नीचे के कोलाहल का उनको पता ना था। हिंदुस्तान एक सपने में उनको चुटकी में आया, सपने में ही चुटकी में बना रहेगा और यह सपना कभी ना टूटेगा। वे लोग इस बात को नहीं जानते थे, उन्होंने कभी इस बात को नहीं जाना कि हिंदुस्तान जीता भले ही आसानी से साथ अजवे लेकिन बहुत समय तक इसको मुट्ठी में रक्खे रहना असम्भव है। बाहर से आए हुए शासकों को इस देश को पराजित करने में बहुत समय नहीं लगा।

शान के साथ अपना अभिषेक करवा लिए। राजगद्दियाँ भी तोड़ी मरोड़ी परंतु शासक की हैसियत से उनका इस देश में रहना केवल छावनी का प्रवास मात्र रहा।

असल में, जनता को रुष्ट, असंतुष्ट और क्षुब्ध करके यहाँ तो क्या संसार के किसी कोने में कोई भी राज्य नहीं कर सकता। फिर इस देश की जनता व्यक्तित्व- मग्न और महासंस्कृतिमयी है। बहुत दिनों तक कदापि विदेशी शासन को सहन नहीं कर सकती।

इसलिए उसकी अंतरात्मा आसानी के साथ, उस समय के स्त्री पुरुष नेताओं की बात सुन रही थी और मन में गाँठों पर गाँठें बांधती चली जाती थी, कि कब अवसर मिले और सिर के बोझ को उतार कर फेंक दे।

गार्डन और स्कीन इत्यादि अंग्रेज सोचते थे कि यहाँ के लोग डब्बू हैं - जनता एक भेड़ियाधसान है, थोड़ा वेतन पाने वाले बहुसंख्यक हिंदुस्तानी मोटी रक़में समेटने वाले अल्पसंख्यक अंग्रेजों को सदा अपना सहयोग देते रहेंगे। 

अंग्रेजों का सब स्वार्थ कार्य शास्त्रीय और वैज्ञानिक ढंग पर चल रहा था। केवल चल नहीं रहा था किसी ढंग पर भी तो वह था मानव प्रकृति का, भारतीय जन - प्रकृति का, अध्ययन और विश्लेषण।

रेल तार जारी हो गए। नहरें खुदी, तालाब सुधारे गए। डाकुओं और बटमारों का दमन हुआ। किसान सुभीते से अपनी खेती काटने लगे। व्योपारी अपना रोज़गार करने लगे। मंदिरों, मस्जिदों में लोग अपने विश्वास के अनुसार श्रद्धा भेंट कर उठे।कुछ पाठशालाएँ और मदरसे भी खुल गए। सड़कें बनी। उन पर पेड़ लगे। पंचायतें टूटीं। अदालतें खुली। क़ानून का बर्ताव हुआ परंतु अंग्रेजों ने यह समझा, कि हिंदू मुसलमान मन ही मन माना रहे हैं, कि हमारा खोया हुआ अधिकार फिर कब और कैसे हमारे हाथ में आवेगा।



Part # 12 ; Part #14

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