Jhansi Ki Rani - Lakshmibai # 12 - Vrindavan Lal Verma

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ब्रिटिश सरकार के शासन की गतिविधि में अफ़सरों का ज़िले भार में दौरा करने, प्रत्येक दफ़्तर के काम को बारीकी के साथ देखने-भालने, थानों, तहसीलों और जेलखानों का निरीक्षण करने का महत्वपूर्ण स्थान था। ग्राम पंचायतों का स्थान अंग्रेज़ी अदालतें दौरे के साधन द्वारा आसानी के साथ ले सकती थी। इसके सिवाय दौरे का जीवन शिकार देता था, नवीन नवीन प्राकृतिक दृश्यों के दर्शन कराता था और सम्पूर्ण देहात को सम्पर्क में इन लोगों के लाता था। शासन की जड़ें मज़बूत बनती थी।

गार्डन दौरा करता हुआ मउ गया। निरीक्षण के लिए थाने पर पहुँच। नायब थानेदार आनंदराय रियासती पगड़ी बांधे, लम्बी दाढ़ी, बीच में से कंघी कर, कानों पर चढ़ाए इंस्पेक्टर और थानेदार सहित स्वागत के लिए आगे बाधा। आनंदराय की वह दाढ़ी गार्डन को खटक गई। उसी समय अपनी आलोचना और आज्ञा प्रकट करना चाहता था, परंतु ठहर गया। 

निरीक्षण करने के बाद उसने आनंद राय को बुलाया। 

बोला, “तुम डाकुओं की सी दाढ़ी क्यों रक्खे हो?”

आनंदराय कोई उत्तर नहीं दे सका। 

गार्डन ने कहा, “इस थाने का तेरा कोई अफ़सर इस तरह की दाढ़ी नहीं रचाता। क्या अपने को इनसे बड़ा समझता है?”

आनंद राय का कलेजा जल उठा, परंतु मुँह से निकला,”नहीं तो।

बातचीत करने का भी तमीज़ नहीं,” गार्डन ने कहा।

आनंद राय ने सिर नीचा कर लिया।

गार्डन ने हुकुम दिया, “दाढ़ी रखनी ही है तो सीधी रख। कानों पर कभी मत चढ़ा। जा सीधी करके आ।

आनंद राय गया और दाढ़ी को कानों पर से उतार कर सीधी करके गया। चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया। 

गार्डन के चेहरे पर संतोष की मुस्कुराहट गई। बोला, “अब ठीक है। जाओ।

उसी समय झाँसी से एक हरकारा कमिश्नर स्कीन को चिट्ठी लेकर आया। स्कीन ने उसको समाचार दिया था कि सागर सिंह नामक डाकू पकड़ा गया है, जेल में बंद है। जेल ना निरीक्षण करना चाहता हूँ, एक दिन के लिए जल्दी जाओ। 

गार्डन ने घोड़ा गाड़ी से झाँसी की ओर कूच कर दिया। मार्ग में घोड़े बदलता हुआ दूसरे दिन झाँसी पहुँच गया।

उसके दूसरे दिन जेल का मुआइना हुआ। स्कीन और गार्डन साथ थे, बख़्शीश अली जेल का दरोग़ा था बड़े विनम्र भाव से सलामें झुकाता हुआ, उन दोनो के सामने आया। दोनो प्रसन्न हुए। उनको इस प्रकार का शाही अदब क़ायदा पसंद था। 

जेल के भीतर जाकर सागर सिंह को देखा। तगड़ा फुर्तीला आदमी था। आँख तीक्ष्ण और चमकदार, दाढ़ी कानों पर चढ़ी हुई; हथकड़ी बेड़ी से जकड़ा हुआ। 

स्कीन ने पूछा, “नाम क्या है?”

क्या आपको मालूम नहीं है?”

तुम्हारे मुहँ से सुनना चाहता हूँ।

कुंवर सागर सिंह।

कहाँ के रहने वाले हो?”

रावली के- बरुआ-सागर से कुछ दूर।

तुमने यह पेशा क्यों अपनाया?”

क्योंकि इससे बढ़िया कुछ और मिला नहीं।

हमारी फ़ौज में नौकरी क्यों नहीं की? अच्छा वेतन मिलता।

हमारे घराने में अफ़सरी होती आयी है। हम कोटि सिपाही-गिरी कैसे करते?”

तुम धीरे धीरे नायक, हवलदार और फिर सूबेदार तक हो सकते थे।

हमारे पुरखों की मातहती में पाँच पाँच हज़ार सिपाहियों ने काम किया है।

सेनापतियों के घराने के होकर हवलदारी, सूबेदारी करेंगे?”

ओह जनरल बनना चाहता था?”

क्यों जंडैल बनना कोई बड़ी बात है?”

डाकू से जनरल! हिंदुस्तान में सब अजीब ही अजीब होता है। जनरल से डाकू हो जाता है तब डाकू से जनरली की तरक़्क़ी मामूली बात है। तुमको मालूम है सागर सिंह ……..”

कुंवर कहिए - मुझको अकेले नाम से कोई नहीं पुकारता।

अच्छा कुंवर सागर सिंह, तुमको मालूम है कि इसी जेलखाने में फाँसी घर है और मुझको फाँसी देने का अधिकार है। और तुम्हारे जो कारनामे सुने गए हैं, वें साबित भी होंगे और साबित होने पर तुमको फाँसी की सजा दी जावेगी। मैं कल परसों में तुम्हारा  मुक़द्दमा करके उसी दिन फाँसी दे दूँगा।

मुझ अकेले कुंवर सागर सिंह को।

तुम्हारे साथ कौन कौन है?”

बहुत से हैं।

क्यों बतलाऊँ? क्या पड़ी है? मुझको कोई फ़ायदा हो, तो नाम बतला दूँगा।

फ़ायदा होगा। यदि सच सच कहोगे, तो सरकारी गवाह बना लिए जाओगे और छोड़ दिए जाओगे।

बतलाऊँगा, परंतु इन हथकड़ियों और बेड़ियों के बोझ के मारे और भूखों-प्यासों अकाल बिगड़ गयी है। आज ज़रा आराम मिल जाय तो कल अवश्य बटला दूँगा, पर अपने वचन पर पक्के रहना।

हाँ।

स्कीन ने जेल-दरोग़ा को सागर सिंह का बोझ हल्का करने की आज्ञा दी और अच्छे भोजन की व्यवस्था के लिए भी कह दिया।

बख़्शीश अली ने उस आज्ञा का यह अर्थ समझा कि क़ैदी के साथ पूरी रियायत की जावे।

स्कीन और गार्डन उधर गए और इधर बख़्शीश अली ने कुंवर सागर सिंह को हथकड़ी बेदी खोल दी। केवल साधारण पहरा रहने दिया।

सागर सिंह ने कहा, “दरोग़ा साहब, बहुत भूख लगी है। किसी ब्राह्मण के हाथ अच्छा खाना पकवा दीजिए।

बख़्शीश अली बोला।कुंवर साहब, मैं तो पूड़ी मिठाई से आपका थाल भर देता, परंतु इन अफ़सरों के मारे मजबूर हूँ। अब लीजिए, कोई दिक़्क़त नहीं रही, हुकुम हो गया है।

अच्छा खाना बनवाया गया। आदर के साथ परोसा गया। पहरेदारों के माँ पर भी कुंवर साहब का आतंक छा गया।

शाम हुई। रात हुई। पहरे वाले जागते जागते, सो गए। बख़्शीश अली को दिन भर के परिश्रम के मारे थकावट आई। वह भी चैन में सो गया।

कुंवर सागर सिंह को सुअवसर प्राप्त हुआ। चन्दबरदाई का दोहार्द्ध  याद आया - “फेर जननी जन्म है, फेर खींचे कमानऔर चुपचाप दिवार लांघकर नौ दो ग्यारह हुआ और सवेरा होते होते ऐसे जंगल में पहुँच गया, जहां उसके विश्वास के अनुसार, स्कीन और गार्डन के फ़रिश्ते भी नहीं पहुँच सकते थे।

प्रातःकाल जेल भर में गड़बड़ी फैल गयी। बख़्शीश अली का होश कपूर हो गया।कभी जेल में हड़बड़ा कर पहुँचता और कभी हर में बीवी बच्चों के पास आकार सिर पीटता।

स्कीन और गार्डन के पास भी खबर पहुँची। वे दोनो तुरंत आए। क्रोध में डूबते उतराते।

बख़्शीश अली ने अत्यंत विनम्र प्रणाम किया। और अत्यंत कातर सवार में कहा, “हुज़ूर हुकुम दे गए थे कि हथकड़ी-बेड़ी खोल दो और अच्छा खाना दो। मैंने वैसा ही किया। उस पर पहरा रक्खा। फिर भी रात को वह मौक़ा निकालकर भाग गया।

बेवक़ूफ़, गधे, नालायक” , स्कीन पागल सा होकर बोला, “हमने यह हुकुम दिया था?” और तड़ाक से बख़्शीश अली को चढ़े जूते की ठोल दी। वह गिर पड़ा। वैसी हालत में भी स्कीन ने उसको कई ठोकरें और लगाई।

तब कहीं उसका क्रोध शांत हुआ। 

गार्डन ने कहा, “बख़्शीश अली, ग़नीमत समझो कि कि तुमको साहब बहादुर ने इतने से ही छोड़ दिया। तुमको हम बर्खास्त करना चाहते हैं।बख़्शीश अली रोने लगा। स्कीन ने इशारा किया। बख़्शीश अली ने नहीं देखा। 

गार्डन बोला, “अच्छा तुमको बर्खास्त नहीं करता हूँ, मगर उस पहरे वाले को बर्खास्त किया जावेगा, जिसके पहरे में से क़ैदी छूटकर भाग है।

वह सिपाही बर्खास्त कर दिया गया।

बख़्शीश अली का अपमान पहरेदारों और क़ैदियों के सामने हुआ था।मार पीट से ज़्यादा वह घोर अपमान उसको खला। सीधा घर गया और बहुत रोया। बीवी बच्चे भी रोए।

बख़्शीश अली ने कहा, “जी चाहता है कि तलवार से तुम सबको कतरकर डाल दूँ और गोली मारकर मैं भी मर जाऊँ। राजा गंगाधर राव ने या रानी लक्ष्मीबाई ने कभी तू तड़ाक तक नहीं किया। आज इन गोरों ने मेरे बुजुर्गों की इज़्ज़त ख़ाक में मिला दी।

बीवी ने रो रो कर समझाया। मुश्किल से अपने अपमान और क्षोभ को पीकर, बख़्शीश अली ने वह दिन भूखों काटा। 

कैसे मुँह दिखलाऊँगा?” वह बार बार कहता था, “कहाँ तो मैं आठों फाटकों का कोटपाल था और कहाँ आज यह हालत हुई।बार बार मन में आत्मघात की, बीवी बच्चों को मार डालने की प्रतिक्रिया मन में उठती थी, परंतु उनको रोटी हुई, बेबस सूरतों को देख देख कर सहम जाता था। 

अंत में आत्मघात का निश्चय उसके मन के किसी कोने में जाकर लीन हो गया। बख़्शीश अली फिर यथावत काम करने लगा। 

जब कभी स्कीन या गार्डन जेल - निरीक्षण के लिए आता बख़्शीश अली को ऐसा लगता मानो कोई जल्लाद आया हो।


39

रानी को झाँसी की लगभग सब घटनाएँ, समय समय पर, विदित होती रहती थी। स्मरण शक्ति उनकी, इतनी विशाल थी कि लोगों को आश्चर्य होता था। बख़्शीश अली वाली घटना का वर्णन उन्होंने सुना और आनंद राय वाली का भी। यद्दपि दाढ़ी वाली घटना जेल दरोग़ा की मारपीट वाली घटना के मुक़ाबले में कुछ नहीं थी, तो भी रानी को उन घटनाओं का मूल तत्व समझने में देर नहीं लगी। जिस स्रोत से गार्डन और स्कीन को प्रेरणा मिली थी वह मूल में एक ही था - हेकड़ी, अवहेलना , उपेक्षा। रानी का प्रशस्त गौर ललाट लाल हो गया।एक आह खींच कर रह गई।

"पेट के लिए इन लोगों को यह सब सहन करना पद रहा है। रानी ने सोचा।

इस तरह की अनेक घटनाएँ जब तब होती रहती थी।

अंग्रेज लोग शासन को धाक (bruff) की पुख़्ता नींव पर खड़ा करते चले जाते थे। धाक रौब का रूप पकड़ती चली जा रही थी। यही रौब हिंदुस्तानियों के माँ में अंग्रेजों केइक़बालकी सूरत में उत्पन्न होने को था।

परंतु यह धाक या इक़बाल हिंदू-मुसलमानों के हृदय पर वह अधिकार नहीं कर पा रहे थे जो साधु और फ़क़ीर ने जमाने से कर रखा था।

रानी इस प्रकार की सब घटनाओं को ध्यान और विविध भावों से सुनती रहती थी।

गार्डन भी शहर और अपने ज़िले का हाल लगन के साथ टटोला करता था, परंतु अहमन्यता और स्वार्थ के कारण वह सही स्तिथि नहीं समझ सकता था। और अधिकांश अंग्रेज।

एक दिन गार्डन घोड़े पर सवार शहर की कोतवाली के निरीक्षण के लिए रहा था। एक हिंदू गृहस्थ की बारात सामने पड़ गई। दूल्हा घोड़े पर चढ़ा था। यह अंग्रेजों के नए हिंदुस्तानी तरीक़े के ख़िलाफ़ था। उसने दूल्हा को घोड़े पर से उतरने की आज्ञा दी। बारात वालों ने प्रतिवाद किया। उसने एक नहीं सुनी। आखें लाल पीली थी।

दूल्हा के पिता ने विनय की, “हमारे यहाँ राजा तक दूल्हा का मान रखता है।

चुप!” गार्डन ने धमकाया।

दूल्हा को घोड़े पर से उतरना पड़ा।

नवाब अली बहादुर गार्डन और स्कीन के पास आया ज़ाया करते थे। परंतु गार्डन के पास बहुधा। पेन्शन बढ़ने की आशा अभी जीर्ण नहीं हुई थी। उनको इधर उधार की खबर पीर अली दिया करता था। वें इन खबरों को गार्डन के पास पहुँचा देते थे।

पी अली ने दीवान जवाहर सिंह के आने का समाचार नवाब साहब को दिया। परंतु वह और तात्या जब चले गए तब। 

नवाब के कहा, “कुछ डाल में काला है। जवाहर सिंह कँटीली वाले राजा की फ़ौज के एक बड़े अफ़सर रहे हैं। बिठूर से उस आदमी ला इन्ही दिनों आना इल्लत से ख़ाली नहीं है। क्या है? क्या कर्नल जमाखां भी इन लोगों से मिले?”

पी अली ने उत्तर दिया, “कह नहीं सकता। अनुमान करता हूँ कि ज़रूर मिले होंगे। कर्नल साहब की हवेली में ही तो वह बिठूर वाला ठहरा था। उसको टोपे कहते हैं।

इन लोगों की क्या बात चीत हुई या किस प्रसंग की चर्चा हुई यह जानने की ज़रूरत है।

मैंने जानने की कोशिश की। लेकिन वे लोग दीवान रघुनाथ सिंह के वहाँ ऐसी जगह बैठे थे कि वहाँ से सुनाई नहीं पड़ सकता था।

ये लोग रानी साहब के पास भी गए।

जी हाँ गए। और हंसते खुश होते हुए लौटा।

कर्नल साहब के यहाँ वह टोपी या टोपे क्या किया करता था?”

कर्नल साहब की हवेली के नज़दीक नाटकशाला वाली जूही रहती है। मुझको मालूम होता है कि उस टोपे के लिए वह चुम्बक है।

हो सकता है। और इसलिए शायद वह कर्नल साहब के यहाँ ठहरता है। मगर जवाहर सिंह का और इस टोपे का रघुनाथ सिंह की भीतरी बैठक में देर तक बात चीत करना, किस मतलब से हुआ होगा? ख़ुदा बख्श कहाँ है?”

वह तो मोतीबाई के पीछे दीवाने हो रहे हैं।

मोतीबाई रानी साहब के पास कभी जाती है?”

जी हाँ कभी कभी

उससे काम नहीं निकाला जा सकता।

कोशिश करूँगा।

नवाब साहब सोचने लगे, “मोतीबाई को मेरे पास लिवा लाओ। गाने के बहाने से।

पीर अली - “लेकिन वह कहीं भी नहीं गाती। बहुत कम बाहर निकलती है।

नवाब -“मेरे यहाँ गाएगी। लेकिन ख़ुदा बख्श को खबर ना हो। ख़ुदा बख्श से बाद में बातचीत की जावेगी।

पीर अली अपने घर गया। देखा तो मोतीबाई मौजूद। पीर अली ने सोचा बहुत अच्छा शकुन हुआ। 

आवभगत के बाद उसने मोतीबाई से बात चीत की।

मैं तो आपके यहाँ आने वाला था” , प्रसन्न होकर पीर अली ने कहा।

मोतीबाई ने मधुर मुस्कान के फूल बरसाए। साड़ी का घूँघट खींचा। गार्डन मोदी। बोली, मैं खुद गयी। आप किसलिए कष्ट कर रहे थे?”

नवाब साहब को गाने का शौक़ हुआ है। कहाँ अकेले में सुन लूँगा। महफ़िल ना होगी।


और मैं भी यही सोच कर आयी हूँ। अब पर्दे में गुजर नहीं हो सकती खुले आम नाचना गाना मुझसे होगा, चाहे भूखे भले ही मर जाऊँ। मगर नवाब साहब सरीखे बड़े आदमियों को सुना आने में मुझको कोई उज्र होगा।

नवाब साहब भी यही फ़रमाते थे। वह महफ़िल नहीं जोड़ेंगे।

आप भी सुना करिए।

मैं तो फ़र्ज़ और शौक़ दोनो के लिए मौजूद रहूँगा। उस्ताद मुग़लखां के घुरपद से जब जी भर जाए, तब आपका ख़याल और नाटक के गीत ही मौज पैदा कर सकते हैं। सच पूछिए तो दिन भर का समय हो और मुग़लखां साहब को सुना जा सके।

तो मैं कितने बजे आऊ?”

मेरे ख़याल में शाम का वक़्त अच्छा रहेगा।

जी हाँ। लेकिन मैं आठ बजे चली जाऊँगी।

हाँ ठीक है। दो घंटे क्या काम हैं।

मोतीबाई समय नियुक्त करके चली गई।

पीर अली ने सोचा, “अमर कुछ बध गयी है मगर अब भी झूमती फुलवारियों सा मदमाता यौवन है।

पीर अली ने नवाब साहब को सूचना दी।

संध्या के छः बजे मोतीबाई गई।

पर्दे की आड़ टूट गई। प्रारम्भ में ज़रा शर्माते शर्माते। अली बहादुर ने सोचा स्वाभाविक है। उनको आश्चर्य यही था कि रंगमंच पर बिना किसी शील संकोच के नृत्य गान करने और हाव भाव दिखलाने वाली अभिनेत्री इतने दिनों और ऐसा परदे का ढोंग क्यों किए रही।

नवाब ने रसीलेपन से कहा, “मैंने रंगशाला में आपकी काला का कमल देखा है। समझ में नहीं आता था कि इतना लाज संकोच और पर्दा मेरे पर आकर भी आप क्यों करती रही हैं।

हुज़ूरमोतीबाई बोली, “आदत पड़ गई थी। अब भी बिलकुल नहीं छूती है। गुजर के लिए पर्दे को काम कर दिया है लेकिन बिलकुल तो छोड़ सकूँगी। बहुत लोगों ने अंग्रेज सरकार की नौकरी कर ली है। मुझे तो कोई नौकरी मिल नहीं सकती, इसलिए गाने बजाने से पेट भरना तय कर लिया है। आप सरीखे कुछ रईसों को खुश करना ही मेरी गुजर के लिए काफ़ी होगा।

नवाब ने सोचा मोतीबाई शोख़ हो गयी है उसकी वह शोख़ी उनको भली मालूम हुई।

मोतीबाई ने लगभग एक घंटा गाय नाचा परंतु इसके बाद तो नवाब साहब का माँ लगा और ना मोतीबाई का।

नवाब साहब ने कहा, “ज़रा सस्ता लीजिए। फिर देखा जाएगा। तब तक बात करें। पीर अली पान लाना।

पीर अली ने पान दिए।

नवाब ने पूछा, “कभी आप महलों में जाती हैं? काम ही क्या पड़ता होगा?”

जाती हूँ” , मोतीबाई ने उत्तर दिया, “रानी साहब भजन सुनती हैं। उनको मीरा के भजन बहुत पसंद हैं। रोज़ तो नहीं जाती हूँ। कभी कभी सुना आती हूँ। वहाँ थोड़ा बहुत मिल जाता है।

रानी साहब की पेन्शन में से बहुत लोगों को सहारा मिलता है इसलिए बिचारी को मुश्किल का सामना करना पड़ता होगा।

ज़रूर, मगर वे बहुत उदार हैं। उनका निजी खर्च तो बहुत कम है। दान पुण्य में बहुत दे डालती हैं।

बहुत नेक हैं। और फिर इधर उधर के आने जाने वाले नाते रिश्ते के लोग पुराने मुलज़िम लगे हैं उनको भी कुछ कुछ देना ही पड़ता होगा।

मोतीबाई की आँख के कोने पर सजगता आई। दरवाज़े से सटा हुआ पीर अली कान खड़े करके सुनने लगा।

मोतीबाई ने मुस्कुरा कर कहा, “आते तो बहुत लोग हैं, पर उनको देते लेते मैंने नहीं देखा।

यही क्या कम है कि रानी साहब उनको बात चीत ही के लिए काफ़ी समय देती होगी।

अली बहादुर ने सुझाव दिया, पूजा पटरी और सवारी कसरत में भी कई घंटे निकल जाते हैं।

मोतीबाई ने तुरंत कहा, “ मालूम कहाँ से दुनिया भर के कामों के लिए वें समय निकाल लेती हैं। सवारी, कसरत कुश्ती करती हैं, औरतों को सिखलाती हैं- पूजा करती है, गीताजी को सुनती हैं और जाने कितने स्त्री पुरुषों से बात चीत करती हैं। इसी बीच में, कभी कभी मेरा गाना भी सुन लेती हैं।

तुम्हारा गाना तो, बाई जी देवताओं को भी लुभा लेगा”, अली बहादुर ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा।

मोतीबाई मुस्कराई। झेंप का अभिनय किया। फिर भोलेपन के साथ बोली, “उन्होंने एक काम ज़रूर बहुत काम कर दिया है। शायद छोड़ ही दिया हो। राम नामी गोलियों का बनना और अकेले में बैठ कर मछलियों को खिलाना। यह काम अब उनकी सहेलियाँ करती हैं।

दासियाँ बाई जी?”

वह उनको दासियाँ नहीं कहती, सहेलियाँ कहती हैं।

वह बड़ी नेक हैं, बाई जी। अब तो उन्होंने पर्दा छोड़ दिया है मैंने भी दर्शन किए हैं। मालूम पहाड़ों और नदियों के घूमने में उनको क्या मज़ा आता है।

मुझसे भी घोड़े की सवारी के लिए कहा था।

सचमुच? आपने सीखी?”

पहले तो बहुत डर लग, पर अब थोड़ा थोड़ा सीख गई हूँ। उनकी सहेली सुंदर बड़ी अच्छी सवार हैं। यहीं सब औरतों को सिखलाती है।

क्या औरतों को हथियार चलाना भी सिखलाया जाता है?”

वह तो लाज़मी है।

आपने भी सीखा?”

सीख रही हूँ।

किस मतलब से?”

मैं तो, अपने हाथ पैर, अभी बरसों अच्छी हालत में रखना चाहती हूँ। इसलिए सीखती हूँ। केवल इसी मतलब से रानी साहब सवारी, कसरत इत्यादि करती हूँ। और मतलब मुझको मालूम नहीं।

आपको घोड़े पर सवार देखकर मुझको बड़ा अच्छा लगेगा। शायद फुरेरू जाय। आपकी तंदरुस्ती, रूप, रंग सन पहले से बहुत अच्छे हैं। कारण यही कसरत, सवारी वग़ैरह है।

अली बहादुर ने सोचा, स्त्री को पराजित करना हो तो उसकी प्रशंसा करो।

मोतीबाई पराजित सी जान पड़ी। मुस्कुराकर झेंप कर, सिमटकर उसने आँखों से मादकता उँडेली।

बोली, “हुज़ूर ने तो यों ही बहुत तारीफ़ कर डाली।

नवाब ने कहा, “मैंने झूठ नहीं कहा।

फिर हंसने लगे। पान खाया और खिलाया! सतर्कता के साथ पूछा, “कौन कौन लोग रानी साहब के पास आते हैं, या आए हैं?”

मोतीबाई ने अविलम्ब उत्तर दिया, “हाल में बहुत लोग आए हैं। बिठूर से तात्या टोपे, कटीले से दीवान जवाहर सिंह, एक कोई दूल्हाजू, कोई - क्या विनय करूँ बहुतों के नाम याद नहीं रहे हैं। आगे याद रक्खा करूँगी।

ज़रूर और मुझको बतला दिया करो। रुपए पैसे की संकोच मत करना आप। जो कुछ मेरे पास है, वह अपना समझो।

आपकी बहुत कृपा है। मैंने अहसानों को कभी ना भूलूँगी।

और आने जाने वाले लोग जो कुछ बात किया करे वह भी मुझको सुना ज़ाया करिए। अभी हाल में कोई खास बात हुई हो तो……

हाँ कुछ बातें तो मुझको मालूम हैं। निवेदन करूँ?”

अवश्य। मैं ध्यान से सुनूँगा।

रानी साहब गोद लिए राजकुमार का जनेऊ करना चाहती हैं। उसी का मश्विरा हो रहा है।

दीवान जवाहर सिंह और रघुनाथ सिंह से?”

जी हाँ। वे सब पुराने नौकरों को और सब नातेदारों को तथा शहर और देहात के रईसों को उस मौक़े पर बुलावेंगी। चूँकि रानी साहब को अपने पुराने आदमियों के सही पते नहीं मालूम इसलिए को लोग आते हैं उनके साथ इसी प्रसंग की चर्चा करती हैं। वे राजकुमार के जनेऊ पर बहुत रुपया खर्च करेगी। हाँ एक बात भूल गई। उन्होंने अपनी अपील को विलायत भिजवाया है, उसके लिए लगभग सबसे कहती हैं और ज़िद करती हैं कि सब छोटे बड़े साहबों से मेरी सिफ़ारिश करो।

आगे कोई और मालूम पड़े तो मुझको आप ज़रूर बतलाना।

अपना कर्तव्य और सौभाग्य समझूँगी”, कहकर मोतीबाई चलने को हुई। उसने मुस्कुराकर एक कटाक्ष किया।

नवाब साहब ने पान दिया।

मोतीबाई ने कहा, “मैं सीधी रानी साहब के पास महल जाऊँगी। उनको एकाध भजन सुनाकर फिर घर पहुँचूँगी। यदि कोई खास बात मालूम पड़ी तो सेवा में आकर अर्ज़ करूँगी।

पीर अली ने अनुरोध किया, “मैंने आपको महल तक पहुँचा आऊँ?”

मोतीबाई ने इनकार नहीं किया।

मार्ग की चहल पहल कम हो गयी थी, परंतु बंद नहीं हुई थी।

मोतीबाई ने अवसर पाकर पीर अली से कहा, “नवाब साहब के सामने का पर्दा तोड़ दिया अब और लोगों के सामने भी निकलने लगूँगी।

पीर अली समझ गया। बोला, “ख़ुदाबख्श साहब मेरे दोस्त हैं। उनसे कहूँगा तो वह मुँह मीठा कर देंगे।

जी नहीं। अभी नहीं। वे बहुत दिक् करते हैं। आपका जैसा मिज़ाज और क़ायदा उन्होंने नहीं पाया है।

पीर अली प्रसन्न भी हुआ और सहमा भी।क़ायदाशब्द उसको खटका।

वह मोतीबाई को महल के फाटक तक पहुँचा कर लौट आया।

रानी कथा-वार्ता का सुनना समाप्त कर चुकी थी। मोतीबाई ने आकर प्रणाम किया। जब सब लोग चले गए रानी ने उससे पूछा, “क्या हाल है मोती?”

मोती ने अनुनय के साथ कहा, “सरकार को मीरा का एक पद सुना दूँ। तब कुछ निवेदन करूँगी।

मोती ने तम्बूरे पर मीरा का एक पद सुनाया। फिर तम्बूरा जहाँ का तहाँ रखकर बोली, “सरकार के विरुद्ध एक जासूस और पैदा हो गया है।

रानी ने शांत भाव से कहा, “कौन है मोती?”

नवाब अली बहादुर।

मुझको संदेह तो नवाब साहब पर पहले से था। क्या बात हुई?”

मोतीबाई ने ओर से छोर तक सब सुनाया।

जनेऊ के सम्बंध की बात को सुनकर रानी बोली, “मुझको तेरी बुद्धि पर अचरज होता है मोती। मेरे मन में दामोदर का जनेऊ करने की और अपने लोगों को निमंत्रित करके समारोह करने की बात कुछ दिन से उठ रही हैं। पर मैंने उसको प्रगट किसी पर नहीं किया। तूने कैसे जान लिया?”

सरकारमोतीबाई ने उत्तर दिया, “एक दिन राजा भैया से आपने कहा था - तुम्हारा जनेऊ होगा। इतना याद था। उसी को मैं काम में ले आई।

रानी ने मुस्कुराकर प्रस्ताव किया, “तुझको ख़ुदाबख्श की भी जाँच करनी है।

मोतीबाई ने ज़रा सा सिर नवाया। फिर दृढ़ सवार में बोली, “सरकार मैं जाँच करूँगी। यदि काम के निकले तो फ़र्द में नाम रहने दीजिएगा, नहीं तो - काट कर अलग कर दीजिएगा।

मुझको विश्वास है मोती”, रानी ने कहा, “लोहा, लोहा ही सिद्ध होगा।

रानी ने पूछा, “जूही और दुर्गा कुछ कर रही हैं?”

मोतीबाई ने उत्तर दिया, “हाँ सरकार। दुर्गा फ़ौज के हिंदुस्तानी अफ़सरों को नाचना गाना प्रदर्शित करती है और उनसे भेद लेती है। जूही की परीक्षा बाक़ी है।

मेरा सम्बंध तो प्रकट नहीं होता?” रानी ने प्रश्न किया।

नहीं सरकार”, मोती ने उत्तर दिया।

रानी ने कहा, “मुझको तुम्हारी बुद्धि और अभिनय कला का भरोसा है।

मोती ने उत्साह के साथ आश्वासन दिया।

यदि मेरा अभिनय श्री चरणों की कुछ भी सेवा कर सका, तो मैंने अपने जन्म को सार्थक मानूँगी।

मोतीबाई अपने घर चली आई।



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